संदीप घोष : तमाम अटकलों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद चुनाव के लिए नामों से पर्दा उठ गया है। आखिरी दौर में बड़ी हैरानी से मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आया। उससे भी ज्यादा हैरत की बात यह थी कि गांधी परिवार के विरुद्ध असंतोष का बिगुल बजाने वाले कथित जी-23 समूह के नेता थोक के भाव उनके प्रस्तावक बनकर उभरे। जबकि जगजाहिर है खड़गे गांधी परिवार की पसंद हैं। दिग्विजय सिंह का नाम भी उछला था, मगर वह एक शिगूफा ही साबित हुआ। शशि थरूर पहले ही घोषणा कर चुके थे, लेकिन अध्यक्ष पद के लिए परिवार की पसंद खड़गे के पक्ष में जितना समर्थन उमड़ा है, उससे उनका अध्यक्ष चुना जाना तय लग रहा है। ऐसे में थरूर ही एकमात्र ‘स्वतंत्र उम्मीदवार’ दिखते हैं।

अस्सी वर्षीय खड़गे के चयन के माध्यम से गांधी परिवार ने कुछ कड़े संदेश दिए हैं। पहला यही कि स्वायत्तता को लेकर बड़ी बातों के बावजूद वह पार्टी पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं। दूसरा, वफादारी उनके लिए सबसे बढ़कर है। तीसरा, यह कि परिवार अपने वारिस राहुल गांधी के लिए कोई प्रतिस्पर्धा नहीं चाहता।

आलोचकों को भले ही इस व्यवस्था में कुछ खोट नजर आए, लेकिन व्यावहारिक नजरिये से यही तार्किक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि राजनीतिक टिप्पणीकार क्या कहते हैं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि जनता कांग्रेस को गांधी परिवार से ही जोड़कर देखती है। जब तक पार्टी खुद ही न बिखर जाए तब तक इस रिश्ते को खत्म नहीं किया जा सकता। साथ ही विगत दो वर्षों में यही दिखा है कि गांधी ब्रांड नाम पर निर्भरता कहीं अधिक बढ़ गई है और पार्टी के भीतर परिवार को कोई ठोस चुनौती नहीं मिल रही।

चूंकि पार्टी की ‘तिजोरी’ की चाबी गांधी परिवार के पास है तो कोई न विद्रोह करने की स्थिति में है और न विभाजन करने की, जैसा इंदिरा गांधी ने अपने धड़े के साथ किया था। इसलिए पूरी शक्तियों के साथ किसी गैर-गांधी द्वारा पार्टी को चलाने की सोचना बेमानी होगा। जैसा कि दिग्विजय सिंह ने स्वीकार भी किया कि चाहे जो भी अध्यक्ष बने, उसे सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के मार्गदर्शन में ही काम करना होगा।

हालांकि पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता। अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी चुनने की प्रक्रिया सुगम नहीं रही। इसमें गांधी परिवार को अपने सबसे भरोसेमंद क्षत्रप अशोक गहलोत से जो चुनौती मिली वह दर्शाती है कि परिवार का प्रभुत्व कुछ कमजोर हुआ है। यह बदलते हुए समय और चेतावनी का संकेत है कि अपने कट्टर वफादार को भी एक सीमा से अधिक नहीं झुकाया जा सकता।

पार्टी को व्यावहारिक रूप से यह स्वीकार करना चाहिए कि वह अब केंद्र की सत्ता में नहीं है। देश भर में उसका दायरा तेजी से सिकुड़ा है। आज कांग्रेस की सरकार केवल दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में रह गई है। झारखंड में वह एक अस्थिर गठबंधन में हिस्सेदार है। ऐसे में इन राज्यों के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल पर उसकी निर्भरता बहुत बढ़ गई है और यह तब तक कायम रहेगी, जब तक कि वह आगामी विधानसभा चुनावों में कुछ बड़े राज्यों की सत्ता पर काबिज नहीं हो जाती, जिसकी संभावनाएं खासी कमजोर हैं।

ऐसे में कांग्रेस गहलोत जैसे वफादारों से परिवार और पार्टी के लिए अधिक त्याग की अपेक्षा रखती है, जबकि पार्टी की लुंजपुंज स्थिति और लचर संभावनाओं के चलते हाल-फिलहाल या भविष्य में उन्हें देने के लिए उसके पास कुछ खास नहीं है। ऐसे में गहलोत जैसे उम्रदराज नेता, जो लंबी राजनीतिक पारी को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हैं, अपना मौजूदा पद छोड़ने को तैयार नहीं। परिवार को इस वास्तविकता से ताल बैठानी चाहिए।

अफसोस की बात यही है कि उनके सलाहकार और रणनीतिकारों की जनाधारहीन दरबारी मंडली यह नहीं समझती। यदि समझती भी है तो नेतृत्व को हकीकत से अनजान रखती है। हालांकि सोनिया तो कुशाग्र हैं, मगर राहुल और प्रियंका में उस परिपक्वता का अभाव है कि वे दीवार पर लिखी इबारत पढ़ सकें। यह राहुल के उस रुख से भी झलकता है कि उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखना उचित समझा और अध्यक्ष चुनाव एवं राजस्थान का राजनीतिक संकट सुलझाने का जिम्मा सोनिया गांधी पर छोड़ दिया, जिसमें प्रियंका पर्दे के पीछे से सक्रिय थीं, जबकि सभी जानते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी पसंद सचिन पायलट थे।

खड़गे का चयन तो समझ आ सकता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि उनकी भूमिका क्या होगी? कमल नाथ, भूपेश बघेल, सिद्धारमैया, डीके शिवकुमार और दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गजों पर उनका कितना प्रभाव होगा? राजस्थान में वह पर्यवेक्षक बनकर गए थे और कोई प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाए। खड़गे की एक उपयोगिता यही हो सकती है कि वह हार के छींटे राहुल गांधी पर पड़ने से बचाएं। हालांकि यह भी संदिग्ध ही होगा, क्योंकि प्रचार अभियान के केंद्र में तो राहुल ही होंगे।

यह भी निश्चित नहीं कि शरद पवार, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता उन्हें कितना भाव देंगे, जो हमेशा सोनिया गांधी से ही मोलभाव को तरजीह देते आए हैं। ऐसे में विपक्षी नेताओं तक पहुंच के मामले में खड़गे की भूमिका अदद सूत्रधार की हो सकती है। यह देश की सबसे पुरानी और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष के कद के अनुरूप नहीं। ऐसे में उनके पास सामान्य प्रशासनिक कामकाज का दायित्व ही शेष रह जाएगा, जिसके लिए पार्टी में पहले से ही विशेष महासचिव नियुक्त हैं। इस तरह देखें तो पूरी शक्ति गांधी परिवार के पास होगी और अध्यक्ष का पद नाममात्र या औपचारिकता के लिए होगा।

दूसरी ओर थरूर की जीत के कोई आसार नहीं दिखते और संभावित हार को भांपते हुए संभव है कि वह अपनी दावेदारी वापस ले लें, लेकिन अपने घोषणापत्र के माध्यम से उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण संदेश जरूर दिए हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण पीढ़ीगत परिवर्तन और पार्टी को भविष्य के लिए तैयार करने का है। इसके साथ ही उन्होंने शायद देश की सबसे पुरानी पार्टी में कायाकल्प का बीजारोपण कर दिया है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)