हृदयनारायण दीक्षित : भारतीय राष्ट्रभाव अतिप्राचीन है। इसका मूल आधार हिंदू संस्कृति है। संप्रति हिंदू राष्ट्र पर विमर्श है। हिंदू संस्कृति के कारण यह हिंदू राष्ट्र है। कुछ लोग भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर रहे हैं। उनका मंतव्य स्पष्ट नहीं है। राष्ट्र राजनीतिक इकाई नहीं है। यह सांस्कृतिक अनुभूति है। विराट विश्व हिंदू संस्कृति में एक परिवार है। पृथ्वी ब्रह्मांड की एक इकाई है। हिंदू संस्कृति में यह माता है। आकाश पिता हैं। हिंदू संस्कृति में वनस्पतियां अग्नि, वायु और जल भी देवता हैं। पूर्वजों में प्रकृति के प्रति आत्मीय भाव था। इसी संस्कृति से हिंदू राष्ट्र बना। राष्ट्र और राज्य भिन्न हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा है, ‘संयुक्त राष्ट्र वस्तुतः राष्ट्रों का संगठन नहीं है। राष्ट्रों के प्रतिनिधि के नाते उसमें राज्य ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए राज्य के विकारग्रस्त होते ही राष्ट्र अपने प्रतिनिधि बदल देता है। शासन पद्धति राज्य को राष्ट्र के हित में उपयोगी बनाने वाला तंत्र मात्र है, मगर कोई भी शासन पद्धति अपने राष्ट्र को नहीं बदल सकती। राष्ट्र स्थायी सत्ता है।’

हिंदू राष्ट्र संस्कृति सत्य है। तर्क-प्रतितर्क और वाद-विवाद हिंदू संस्कृति की विशेषता है। कुछ विद्वान हिंदू को मुसलमानों द्वारा दिया गया शब्द मानते रहे हैं। यह सही नहीं है। हिंदू शब्द का उल्लेख ईरानी ‘अवेस्ता’ में है, जो इस्लाम के उद्भव से सैकड़ों वर्ष पुराना है। डेरियस (522-486 ईसा पूर्व) के शिलालेख में भी हिंदू शब्द का उल्लेख है। उच्चतम न्यायालय ने 1976 में हिंदुत्व को संस्कृति बताया। 1995 में भी सर्वोच्च न्यायपीठ ने हिंदुत्व को पंथ-मजहब नहीं ‘जीवनशैली’ बताया।

प्रतीत होता है कि हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग का अर्थ संभवतः हिंदू राज्य से है, हिंदू राष्ट्र से नहीं। हिंदू संस्कृति प्राचीनतम है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद एवं रामायण-महाभारत से लेकर आज तक सांस्कृतिक निरंतरता लिए है। मार्क्सवादी विद्वान डीडी. कोसंबी ने ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा, ‘मिस्र की महान अफ्रीकी संस्कृति में वैसी निरंतरता देखने को नहीं मिलती जैसी हम भारत में पिछले 3000 या उससे भी अधिक वर्षों में देखते हैं। मिस्री और मेसोपोटामियाई संस्कृतियों का अतीत अरबी संस्कृति के पीछे नहीं जाता।’

सांस्कृतिक निरंतरता महत्वपूर्ण है। प्राचीन काल से ही भारत में राष्ट्र संस्था सांस्कृतिक प्रवाह में थी। अथर्ववेद में सामाजिक सांस्कृतिक विकास के सूत्र हैं, ‘पहले वह शक्ति विराट थी। अव्यवस्थित थी। फिर परिवार संस्था का निर्माण हुआ। परिवारों ने जीवन को सामूहिक बनाया। सामूहिक विचार-विमर्श से सभा एवं समिति का विकास हुआ। लोककल्याण के इच्छुक ऋषियों ने तप किया। दीक्षा आदि नियमों का पालन किया। इससे राष्ट्र तथा राष्ट्र के बल का जन्म हुआ।

संस्कृति के अनेक तत्वों में कला, गीत और संगीत आदि प्रमुख हैं। परम चेतना एक। अभिव्यक्तियां अनेक। रूप, रस, गंध, नाद के आनंद हैं। हिंदू गीत-संगीत की परंपरा प्राचीन है। यहां छह मुख्य राग और 30 रागिनियां हैं। हिंदू दर्शन के अनुसार प्रत्येक राग अर्धदेवता हैं। इनका विवाह पांच रागिनियों से हुआ। महाभारत वन पर्व में इंद्र ने अर्जुन से कहा, ‘तुम नृत्य और गीत सीखो। वाद्य विद्या भी तुम्हें सीखनी चाहिए।’ हिंदू परंपरा में गायन, वादन और नर्तन आदि विधाएं थीं। ऋग्वेद में इसके साक्ष्य हैं। सामवेद का अर्थ ही ज्ञान गान है। इनसे ही उत्कृष्ट सामूहिक संस्कृति विकसित हुई। ऋग्वेद में सांस्कृतिक सामूहिक जीवन के संदर्भ में उल्लेख है, ‘हम परस्पर विचार-विमर्श करें। साथ-साथ चलें। सबके मन समान हों। मंत्र समान हों। समितियां समान हों। हमारे पूर्वज भी ऐसा ही करते थे।’

राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा है और उसके गठन का आधार राजनीतिक प्रक्रिया नहीं। भारतीय चिंतन में ब्रह्मांड को एक जाना गया है। विविधता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी भावात्मक रूप में राष्ट्र होती है। साथ-साथ रहते हुए भूमि के प्रति श्रद्धा विकसित होती है। संस्कृति नेतृत्व करती है और राष्ट्र बनता है। संस्कृति का मुख्य घटक भाषा है। संविधान में ‘सामासिक संस्कृति’ शब्द प्रयोग हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने 1994 में कहा, ‘सामासिक संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा और साहित्य है। इस देश के लोगों में अनेक भिन्नताएं हैं। वे गर्व करते हैं कि वे एक विरासत के सहभागी हैं। यह विरासत और कोई नहीं संस्कृत की विरासत है।’

राष्ट्र और नेशन एक नहीं। नेशनलिज्म का जन्म तो नौवीं-दसवीं शताब्दी के आसपास हुआ। सोलहवीं शताब्दी में इटली में नए युग को ‘ल रिनास्विता’ (पुनर्जन्म) कहा गया। 18वीं शताब्दी में फ्रांस ने इसे रिनेसां कहा। इटली के लोगों के लिए सभ्यता नई होकर जन्म ले रही थी। रोमन सभ्यता से फ्रांस और ब्रिटेन भी प्रभावित हुए थे। उन्होंने इटली की देखादेखी अपनी नई सभ्यता के युग को पुनर्जन्म कहना शुरू किया। पुनर्जागरण के बाद यूरोपीय शक्तियों ने अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों को प्रताड़ित किया। उपनिवेश बनाए। वे लगभग एक भौगोलिक क्षेत्र में थे। एक नेशन होने का भाव जगाया गया। वस्तुत:, नेशनलिज्म में भूमि, जन और राजव्यवस्था तीन घटक हैं। जबकि भारतीय राष्ट्रवाद में भूमि, जन और संस्कृति तीन महत्वपूर्ण घटक हैं।

राजव्यवस्था महत्वपूर्ण नहीं। यहां हजारों छोटे खंडों पर कई तरह की राजव्यवस्था थी। राजा थे। स्वाधीनता के समय भी सैकड़ों रियासतें थीं, पर राष्ट्र एक था और है। इस राष्ट्रीय एकता की नींव हिंदू मनीषियों ने डाली थी। मार्क्सवादी विचारक डा. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि ‘अथर्ववेद और महाभारत में अनेक पंथों के राष्ट्र का जैसा वर्णन है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।’ भारत वैदिककाल के पूर्व से ही हिंदू राष्ट्र है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने सही कहा है कि ‘भारत पहले से ही हिंदू राष्ट्र है। हिंदू राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा है। हम वर्षों से कह रहे हैं कि भारत हिंदू राष्ट्र है। इसे आर्यन, हिंदू या सनातन राष्ट्र भी कहा जा सकता है।’ राष्ट्र की मूलाधार संस्कृति को वैभवशाली बनाना चाहिए। सबके अधिकार समान हों। आजीविका और उपलब्धियों के अवसर समान हों। न कोई अल्पसंख्यक हो और न विशेष सुविधाएं। इसी से हिंदू राष्ट्र परम वैभवशाली होगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)