[डॉ. नीलम महेंद्र]। संसद के दोनों सदनों से तीन तलाक पर रोक लगाने का बिल पारित होना न केवल मोदी सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति की ऐतिहासिक विजय है, बल्कि कहा जाए तो 30 जुलाई 2019 की तारीख भारत में रहने वाली मुस्लिम महिलाओं के जीवन में एक नई सुबह का आगाज भी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2017 में ही इसे असंवैधानिक करार दिया था, लेकिन विपक्षी दलों के रवैये के चलते इसे एक कानून का रूप लेने के लिए दो साल लंबा इंतजार करना पड़ा है। हालांकि तीन तलाक के खिलाफ मुस्लिम महिलाएं अपनी जंग जीत चुकी हैं, लेकिन अधिकांश देश के अधिकांश विपक्षी दलों का इस बिल के खिलाफ खड़ा होना राजनीतिक रूप से उनके लिए कितना फायदेमंद या नुकसानदेह साबित होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

यह वाकई में समझ से परे है कि कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार क्यों नहीं है। अपनी वोटबैंक की राजनीति की एकतरफा सोच में विपक्षी दल इतने अंधे हो गए हैं कि वे यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि उनके इस रवैये से उनका दोहरा आचरण ही देश के सामने आ रहा है, क्योंकि जो विपक्षी दल राम मंदिर और सबरीमाला जैसे मुद्दों पर यह कहते हैं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है और उसके फैसले को स्वीकार करने की बातें करते हैं, वो तीन तलाक पर उसी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध खड़े हो रहे हैं।

दरअसल एक स्त्री के जीवन की नींव को पल भर में हिला देनेवाला तीन तलाक जैसा मुद्दा एक गंभीर मसला है। किसी महिला की हंसती खेलती गृहस्थी को पल भर में उजाड़ दे, उसे संभलने का एक भी मौका दिए बिना उसके सपनों को क्षण भर में रौंद दे, ऐसे मुद्दे पर तो राजनीति होनी ही नहीं चाहिए। न तो यह कोई मजहबी चश्मे से देखने वाला मुद्दा है और न ही राजनीतिक नफा-नुकसान की नजर से। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज इस मुद्दे पर विपक्ष ओछी राजनीति के अलावा और कुछ नहीं कर रहा। कारण इस विधेयक की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें ‘तलाक’ को नहीं, तलाक के एक अमानवीय तरीके ‘तीन तलाक’ को ही कानून के दायरे में लाया जा रहा है। जाहिर है इससे पुरुषों का तलाक देने का अधिकार खत्म नहीं हो रहा, बल्कि समुदाय विशेष की स्त्रियों के हितों की रक्षा करने का प्रयास किया जा रहा है, और यही कारण है कि इसे ‘मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक’ नाम दिया गया।

इतना ही नहीं, इस्लाम में नौ तरीकों से तलाक दिया जा सकता है। तो अगर उसमें से एक तरीका कम कर भी दिया जाए तो तलाक देने के आठ अन्य तरीके फिर भी शेष हैं, तो इसका इतना विरोध क्यों? खास तौर पर तब, जब कुरान में ‘तलाक-ए-बिद्दत’ यानी तीन तलाक का स्पष्ट संहिताकरण नहीं किया गया हो, बल्कि उलेमाओं द्वारा इसकी मनमाफिक व्याख्या की जाती रही हो।

दरअसल मुल्ला मौलवियों की मिली-भगत से तीन तलाक और फिर उसके बाद हलाला जैसी कुप्रथाओं ने समय के साथ एक ईश्वरीय रूप ले लिया और पाक कुरान के प्रति आस्था के नाम पर मजहबी भय का माहौल बन गया जिससे अज्ञानतावश लोग इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। अपने फैसले में न्यायालय ने भी यह स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘तलाक-ए-बिद्दत’ इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है, इसलिए इसे अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण प्राप्त नहीं हो सकता। इसके साथ ही न्यायालय ने शरीयत कानून 1937 की धारा 2 में दी गई एक बार में तीन तलाक की मान्यता को भी रद कर दिया। शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी का भी कहना है कि तीन तलाक का किसी मजहब या कुरान से कोई वास्ता नहीं है। इसके बावजूद कुछ राजनीतिक दलों द्वारा मजहबी आस्था के नाम पर तीन तलाक का विरोध साबित करता है कि यह वोट बैंक की राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है, क्योंकि यह आस्था नहीं अधिकारों का मामला है।

जैसा कि आम तौर पर बताया जाता है इस्लाम में निकाह दो लोगों के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट जरूर है, लेकिन जब इसमें स्त्री और पुरुष दोनों की रजामंदी जरूरी होती है तो इस कॉन्ट्रैक्ट से अलग होने का फैसला एक अकेला कैसे ले सकता है? जब यह कॉन्ट्रैक्ट यानी निकाह अकेले में नहीं किया जा सकता, और कम से कम दो गवाहों और एक वकील की मौजूदगी जरूरी होती है, तो इस कॉन्ट्रैक्ट का अंत यानी तलाक अकेले में या वॉट्सएप या फेसबुक पर बिना गवाह और वकील के  कैसे जायज हो सकता है? और जो मजहब के नाम पर इसे जायज ठहरा भी रहे हैं, क्या वो यह बताने का कष्ट करेंगे कि दुनिया का कौन सा मजहब आस्था के नाम पर किसी इंसान तो छोड़िए, किसी अन्य जीव के प्रति असंवेदनशील होने की सीख देता है? वैसे भी दुनिया के 20 इस्लामिक मुल्कों में तीन तलाक पूर्णत: प्रतिबंधित है। लेकिन तथाकथित मुस्लिम नेता और सांसद ओवैसी का कहना है, ‘हमें इस्लामिक मुल्कों से मत मिलाइए, नहीं तो कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलेगा।’ तो अगर वे वाकई में कट्टरपंथ के खिलाफ हैं तो उन्हें भारत के मुसलमानों को मुस्लिम पर्सनल लॉ को त्याग कर पूर्ण रूप से भारत के संविधान को ही मानने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे भारत में कट्टरपंथ की जड़ खत्म हो जाएगी।

सच तो यह है कि ये राजनीतिक दल अगर देशहित की राजनीति कर रहे होते तो जो लड़ाई दशकों पहले शाहबानो ने शुरू की थी, वो आज तक जारी नहीं रहती। रही बात इसे अपराध की श्रेणी में लाने की, तो फिर जान लीजिए,

कत्ल केवल वो नहीं होता जो खंजर
से किया जाए

जख्म केवल वो नहीं होते जो जिस्म
के लहू को बहाए

कातिल वो भी होता है जो लफ्जों
के तीर चलाए

जख्म वो भी होते हैं जो रूह का
नासूर बन जाए।

जो तीन शब्द एक हंसती खेलती जिंदगी को पल भर में एक जिंदा लाश में तब्दील कर दे, उनका इस्तेमाल करने वाला शख्स यकीनन सजा का हकदार होना चाहिए।
[सामाजिक मामलों की जानकार]

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