[प्रदीप सिंह]। किसी भी सरकार के कार्यकाल का पांचवां साल सबसे अहम होता है। ज्यादातर यही साल यह तय करता है कि सरकार वापस आएगी या जा रही है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने जब अपने कार्यकाल का तीसरा साल पूरा किया था तो विपक्षी दल भी यह मानने लगे थे कि 2019 में मोदी सरकार का लौटना तय है और उन्हें 2024 की तैयारी करना चाहिए। नोटबंदी जैसे बड़े कदम के बाद देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा को अभूतपूर्व कामयाबी मिली। फिर जुलाई 2017 में मोदी सरकार ने अप्रत्यक्ष करों के मामले में आजादी के बाद सबसे बड़े टैक्स सुधार के रूप में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी को लागू किया। इसके बाद से कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे लग रहा है कि 2019 की लड़ाई एकतरफा नहीं रहने वाली।

जीएसटी लागू होने के बाद तकनीकी और अन्य दूसरी जो दिक्कतें आईं उससे माहौल बिगड़ने लगा। चूंकि सरकार जीएसटी को लागू करने में आने वाली दिक्कतें लगातार दूर करती रही इसलिए धीरे-धीरे जीएसटी की गाड़ी पटरी पर आ गई। अब जीएसटी से मिलने वाला राजस्व लक्ष्य से ज्यादा हो गया है। जीएसटी लागू होने के बाद गुजरात विधानसभा के चुनाव हुए। भाजपा को पिछले चुनाव की तुलना में 16 सीटें कम मिलीं। यह ऐसा चुनाव था जिसके लिए 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने सबसे ज्यादा मेहनत की। सूरत के व्यापारी जीएसटी से सबसे ज्यादा नाराज थे, लेकिन वहां की लगभग सभी विधानसभा सीटें भाजपा जीती। फिर सीटें कम क्यों हुईं? इसके दो बड़े कारण रहे। एक, पिछले 25-30 सालों में किसी राज्य में पाटीदार आंदोलन जैसा बड़ा जातीय आंदोलन नहीं हुआ था। दूसरे, सौराष्ट्र में कपास और मूंगफली की फसल का बाजार भाव गिरने से किसानों की परेशानी बढ़ी। यह सरकार के खिलाफ नाराजगी में तब्दील हो गई।

विपक्ष को ऐसे ही किसी तिनके के सहारे की जरूरत थी। कांग्रेस ने घोषणा कर दी कि उसकी वापसी हो रही है। यह भी कहा गया कि राहुल गांधी अब एक नए अवतार में आ गए हैं। गुजरात के बाद फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में विधानसभा चुनाव हुए। जिस त्रिपुरा में पिछली बार भाजपा की एक भी सीट नहीं थी वहां उसकी सरकार बन गई। भाजपा पहली बार वामदलों को हराकर किसी राज्य में सत्ता में आई। मेघालय में हार के बावजूद भाजपा कांग्रेस की काहिली के कारण सरकार बनाने में सफल रही-ठीक गोवा और मणिपुर की तरह से। नगालैंड में भी वह सहयोगियों की मदद से सत्ता में आ गई। इस तरह एक बार फिर पलड़ा भाजपा के पक्ष में चला गया, लेकिन पार्टी की इस खुशी को उपचुनावों का ग्रहण लग गया-पहले राजस्थान और फिर उत्तर प्रदेश एवं बिहार में। इससे विपक्ष के हौसले बुलंद हो गए।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के आंकड़े से नौ सीटें पीछे रह गई। यहां कांग्रेस ने वही किया जो भाजपा ने गोवा में किया था, लेकिन गोवा और कर्नाटक में एक बड़ा फर्क भी है। भाजपा ने गोवा में मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ा, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस ने अपनी हार को जीत में बदलने के लिए सबसे कम सीटों वाली पार्टी को मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी। इसके बाद हुए उपचुनावों में भी भाजपा ज्यादातर सीटें हार गई। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर से शुरू हुई विपक्षी एकता ने कैराना के बाद और जोर पकड़ लिया। उपचुनावों में जीत को विपक्षी दल बदलती हवा का संकेत मान रहे हैं। पिछले चार साल में करीब 14 राज्यों में चुनाव जीतने (अकेले या सहयोगी दलों के साथ) की भाजपा की उपलब्धि के बरक्स विपक्ष उपचुनावों की जीत को अपनी बड़ी कामयाबी मान रहा है। 2019 में क्या होगा, इसका आकलन करने के लिए यह देखना जरूरी है कि 2014 में किस पार्टी की कितनी ताकत थी और आज क्या है? 2014 में मोदी राष्ट्रीय राजनीति के लिए नए थे। सवाल पूछा जाता था कि प्रदेश चलाने वाला देश कैसे चला पाएगा? भाजपा लस्त-पस्त हालत में थी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में वह तीसरे नंबर की पार्टी थी। उत्तर प्रदेश से लोकसभा में उसके पास केवल नौ सीटें थीं। अब उपचुनाव हारने के बाद भी उसके विरोधियों के पास दस सीटों से ज्यादा नहीं। यहां लोकसभा की कुल 80 सीट हैं। भाजपा विधानसभा में 48 से 324 पर पहुंची थी। बिहार में उसके सहयोगी नीतीश कुमार साथ छोड़ गए थे, अब साथ हैं।

बीते चार सालों में भाजपा ने महाराष्ट्र हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा, अरुणाचल, मेघालय, असम, मणिपुर आदि में सरकार बनाई। यहां वह पिछले 15 सालों (कुछ में तो 70 सालों) में कभी सत्ता में नहीं रही। इसके अलावा वह उत्तर प्रदेश, गुजरात, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, नगालैंड और नीतीश कुमार की वापसी के बाद बिहार में सत्ता में है। कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। 2014 की तुलना में आज भाजपा पहले से ज्यादा मजबूत है। ओडिशा, बंगाल और केरल में उसका जनाधार बढ़ा है। 2014 की तुलना में एनडीए मजबूत नहीं तो कमजोर भी नहीं हुआ है। चंद्रबाबू नायडू निकले तो नीतीश कुमार की वापसी हुई। इसके बावजूद कुछ कमजोरियां भी आई हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अब 2014 की तरह सत्ता विरोधी रुख यानी एंटी इन्कबेंसी का फायदा नहीं है, बल्कि अब उन्हें उसका सामना करना होगा। इसके बावजूद अभी तक उपचुनावों को छोड़कर कहीं एंटी इन्कबेंसी नहीं दिखी है। आजकल राजग में असंतोष के जो स्वर सुनाई दे रहे हैं वे बगावत के कम और सीटों की सौदेबाजी के ज्यादा हैं। इसके मुकाबले यदि विपक्षी खेमे पर नजर डालें तो वह पहले की तुलना में कमजोर ही हुआ है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भाजपा विरोधी दोनों पार्टियां-सपा और बसपा विधानसभा में क्रमश: 47 और 19 सीटों पर सिमट गईं। राहुल और सोनिया गांधी का नेतृत्व इन चार सालों में पंजाब के अलावा पार्टी को कहीं जिता नहीं पाया है। सिर्फ एक राज्य, पंजाब में कांग्रेस चार साल पहले की तुलना में मजबूत हुई है। वामदलों की हालत यह है कि जिस पश्चिम बंगाल में उन्होंने 34 साल राज किया वहां भाजपा उन्हें पछाड़कर दूसरे नंबर की पार्टी हो गई है। बिहार में लालू यादव के जेल जाने के बाद तेजस्वी को साबित करना है कि जनाधार के मामले में वह पिता के उत्तराधिकारी हैं। विपक्षी खेमे में केवल एक नेता है जिसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है और वह हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। विपक्षी एकता हो न हो, लेकिन इतना तय लग रहा है कि 2019 का चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। मोदी सरकार ने अभी तक ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसकी वजह से मतदाता उसे दूसरा मौका देने को तैयार न हों। सरकार की तमाम उपलब्धियों के बावजूद ऐसे लोग जरूर हैं जो उसके काम से संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं दिखता कि उनका असंतोष मोदी विरोध में बदल जाएगा। पिछले चार साल में तमाम कोशिशों के बावजूद मोदी विरोधी ब्रांड मोदी को धूमिल करने में नाकाम रहे हैं। भाजपा के पास यही तुरुप का इक्का है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)