जगमोहन सिंह राजपूत : किसी भी देश की नैतिकता, मानवीयता, कार्यसंस्कृति, कर्मठता तथा जीवन की सार्थकता और संतुष्टि का स्रोत होते हैं शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान-जहां आधुनिक समय में औपचारिक ढंग से अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जाता है। इन संस्थानों में और इसके बाद स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्ति एक नैतिक कर्तव्य के रूप में पूरी की जानी चाहिए। देश जानता है कि बड़े स्तर पर ऐसा हो नहीं रहा है। बंगाल में शिक्षक नियुक्ति में धांधली का उदाहरण तो केवल झांकी मात्र हैं। यह धांधली देश को विचलित करने और झकझोरने वाली है।

ध्यान रहे कि इस तरह की धांधली अन्य राज्यों में होती रही है। एक भी अध्यापक की अनैतिक नियुक्ति देश की भावी पीढ़ी के प्रति अन्याय है। अध्यापकों की नियुक्ति में धांधली को एक तरह के देशद्रोह की संज्ञा दी जानी चाहिए, क्योंकि वह अध्यापक ही है, जो प्रजातंत्र और उसके मूल्यों से भावी पीढ़ी को परिचित कराता है। वही ऐसे सजग और सतर्क नागरिक तैयार करता है, जो मूल्य-आधारित जीवन जी सके और अन्याय का प्रतिरोध करने में भी कभी पीछे न रहे।

आजादी के अमृत महोत्सव मनाने के साथ आज जब देश एक नए कालखंड में प्रवेश कर रहा है और एक विकसित राष्ट्र बनने के अपने लक्ष्य को निहार रहा है, तब हमें भारत के भविष्य का निर्माण कर रहे स्कूलों और विश्वविद्यालयों के अध्यापकों के प्रति समाज तथा सरकार में आदर एवं सम्मान की स्थिति पर भी बात करनी चाहिए। स्वतंत्रता के बाद भारत की और उसकी शिक्षा व्यवस्था की उपलब्धियां अद्वितीय हैं। भारत की आजादी के आसपास करीब सौ से अधिक देश स्वतंत्र हुए। उनमें भारत ने सबसे अधिक त्रासदियां और कठिन परिस्थितियां झेलीं, फिर भी प्रगति में उनसे आगे है।

1950 में 18 प्रतिशत साक्षरता, 23 विश्वविद्यालय, 700 प्राध्यापक और 1.74 लाख विद्यार्थियों वाली उच्च शिक्षा व्यवस्था आज एक हजार से अधिक विश्वविद्यालय, 15 लाख प्राध्यापक और 3.85 करोड़ नामांकन के साथ सारे विश्व का ध्यान आकर्षित कर रही है। कम संसाधनों के बावजूद देश के युवाओं ने नासा (अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी) और सिलिकन वैली में अपनी छाप छोड़ी है। भारत आज परमाणु, अंतरिक्ष विज्ञान संबंधित शोध और उपयोग तथा संचार तकनीकी के क्षेत्र में किसी से पीछे नहीं है, न ही किसी पर निर्भर है। यह सब हमारे कर्मठ शिक्षकों की मेहनत से ही संभव हुआ है।

भारत के सुदूर गांवों का अध्यापक भी मानता है कि वह एक दैवीय कार्य कर रहा है, जिसमें संसाधन बाधा नहीं बन सकते। यह कैसी विडंबना है कि आज भारत विश्व पटल पर सम्मानपूर्ण स्थिति में है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व में सबसे सराहे जाने वाले नेता हैं, मगर इस देश में एक वर्ग उनके प्रति शालीन भाषा का प्रयोग करना भी भूल चुका है। अशालीनता का परिचय देने वाले अपनी संस्कारहीनता का ही परिचय देते हैं। सत्ता से जनता द्वारा हटाए गए नेताओं में निराशा और हताशा किस सीमा तक पहुंच गई है, इसके अनगिनत उदाहरण हैं। आखिर हर घर तिरंगा जैसे अत्यंत उत्साहवर्धक विचार तक का विरोध करने वालों को राजनीतिक रूप से अपरिपक्व न माना जाए तो क्या माना जाए?

आज अनगिनत अध्यापकों की चिंता यह है कि देश की राजनीति में एक वर्ग-विशेष में हताशा के कारण बढ़ रही स्तरहीनता और अशालीनता देश के बच्चों और युवाओं पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रही है। ऐसा ही प्रभाव उन नेताओं के आचरण का भी पड़ता है, जिन्होंने चयनित प्रतिनिधि बनने के बाद अपना सारा ध्यान और क्षमता केवल अकूत धन-संपत्ति संग्रहण में ही लगा दी। चूंकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद अगले 25 वर्ष हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं, इसलिए देश को ऐसे लोगों से और इस प्रकार की प्रवृत्तियों से जितनी जल्दी संभव हो, छुटकारा पाना ही होगा। ऐसा करके ही हम विकसित देश बनने के अपने सपने को पूरा कर सकते हैं।

यह कालखंड महात्मा गांधी और उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा जिए गए मूल्यों को याद करने का समय है। यह नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के बलिदानों से प्रेरणा लेने का भी समय है। अंतिम व्यक्ति को सदैव ध्यान में रखने की गांधीजी की अपेक्षा तो उनके उत्तराधिकार का दम भरने वालों ने बहुत पहले भुला दी थी। इसी कारण जब अंतिम पंक्ति के जीवन का स्वयं अनुभव करने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार मकान, शौचालय, उज्ज्वला जैसी योजनाएं लेकर आई तो उसका भी विक्षुब्ध नेताओं ने विरोध किया। कुछ राज्यों ने उन्हें लागू करने में शिथिलता बरती तो कुछ ने उन्हें लागू करने से भी मना कर दिया।

व्यक्तिगत और पारिवारिक लाभ के लिए जिन नेताओं ने प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों को ही तिलांजलि दे दी है और कदाचरण के नए मापदंड स्थापित कर रहे हैं, देश को उनसे सावधान रहना है। व्यवस्था और जनता अपना कर्तव्य पूरा करे, लेकिन दीर्घकालीन व्यवस्था तो देश की प्राथमिक पाठशालाओं में बच्चों द्वारा सीखी गई कार्यसंस्कृति, सेवा भाव तथा मानवीय मूल्यों को आत्मसात किए जाने के द्वारा ही संभव है। देश इसके लिए अपने अध्यापकों पर विश्वास करे और अध्यापक देश के लिए समर्पण भाव से कार्य करें तो सारा विश्व भारत की स्व-अर्जित उत्कृष्टता को आदर और सम्मान की दृष्टि से ही देखेगा। वास्तव में वे गुरुकुल के गुरु ही थे, जिन्होंने भारत को विश्व गुरु बनाया। यदि भारत पुन: उस ऊंचाई तक पहुंचना चाहता है, जो कि स्पष्ट भी है तो उसे ‘गुरु’ को वही प्रतिष्ठा और सम्मान देना होगा, जो उनका अधिकार है।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक समरसता और पंथिक सद्भावना के क्षेत्र में कार्यरत हैं)