नई दिल्ली [ कुलदीप नैयर ]। हाल में जब कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि वे भारतीय जनता पार्टी को फिर से सत्ता में नहीं आने देंगी तो उनका संकेत विपक्ष की संयुक्त कार्रवाई से था। इसका मतलब यह भी था कि वह नहीं चाहतीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा मौका मिले। कांग्रेस के पास संख्या बल नहीं है कि वह भाजपा की सरकार या मोदी के लिए खतरा पैदा कर सके। अभी की स्थिति में इसकी पूरी संभावना है कि मोदी दोबारा सत्ता में आ सकते हैं। वह इसके लिए सक्षम मालूम पड़ते हैं। पहले राजस्थान में और फिर उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा के उपचुनावों में पराजय के बावजूद भाजपा विधानसभा चुनावों के जरिये एक के बाद एक राज्य अपने कब्जे में ले रही है और धीरे-धीरे, किंतु पक्के तौर पर अपना जाल फैला रही है। अभी 2019 के चुनाव में जाने के लिए थोड़ी दूरी तय करनी है। उसके पहले कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हैं, जो नजदीक आ गए हैं। कर्नाटक के बाद इस साल के आखिर में होने वाले राज्य विधानसभाओं के चुनावों से ही मोदी की ताकत और कमजोरियों की असली परीक्षा होगी।

गैर-भाजपा दलों के नेता संघीय ढांचे की संभावना को लेकर एक-दूसरे के लगातार संपर्क में हैं

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गैर-भाजपा पार्टियों को एक साथ लाकर 2019 में भाजपा से टकराने की पहल की है। सोनिया गांधी से सहयोग लेने के बारे में उन्होंने कहा कि वह उनके साथ रोजाना संपर्क में हैं। ममता बनर्जी ने हाल के अपने दिल्ली आगमन के दौरान विपक्षी नेताओं से मिलने के बाद सोनिया गांधी से भी मुलाकात की। वास्तव में गैर-भाजपा दलों के नेता संघीय ढांचे की संभावना को लेकर एक-दूसरे के लगातार संपर्क में हैं। अगर आप याद करें तो जनता पार्टी की संरचना भी संघीय थी। वह आगे नहीं चल पाई और इसलिए टूट गई, क्योंकि इसके नेता और खासकर मोरारजी देसाई एवं चरण सिंह हरदम सार्वजनिक रूप से लड़ते रहते थे। सोनिया गांधी या यूं कहिए कि ममता बनर्जी के प्रयासों से जो संघीय मोर्चा बने उसे जनता पार्टी के अनुभवों को ध्यान में रखना होगा। विवाद का विषय यह होगा कि किसे प्रधानमंत्री बनने के लिए पर्याप्त समर्थन मिलेगा? एक बार इस सवाल का हल निकल गया तो बाकी चीजें खुद ही जगह पर आ जाएंगी और संघीय मोर्चा अस्तित्व में आ पाएगा।

आज लोगों के सामने यह सवाल है कि अगर विविधता और देश के मूल्य पराजित हो गए तो कौन सी ताकत सत्ता में आएगी? भाजपा के लोग एक या दूसरे रूप र्में हिंदू- समर्थक सरकार बनाने की कोशिश करते रहे हैं। भाजपा का मार्गदर्शक आरएसएस मोदी के सपनों को साकार करने के लिए अपनी भूमिका निभा रहा है। इसे लेकर ही नए संघीय गठबंधन को सावधान रहना है। अच्छा होगा कि वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाएं जिसमें सभी नेताओं के विचारों और आकांक्षाओं को सभी पार्टियां स्वीकृत करें। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर गैर-भाजपा नेताओं को ध्यान देना है, क्योंकि जनता के हित बाकी सभी चीजों से ऊपर होने चाहिए। 

भारत की सोच का आधार सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र है। जाति और धर्म पर आधारित पार्टियों की इस संघीय मोर्चे में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। खतरा यह है कि सत्ता के लिए अलग-अलग तत्व इसे अलग-अलग दिशाओं की ओर खींचने की कोशिश करेंगे। विभिन्न नेताओं को अपने व्यक्तिगत या पार्टी हितों के आगे देश की एकता को सर्वोपरि रखना चाहिए। वे अगर साथ रहना सीख जाते हैं तो गड़बड़ी के संकेत दूर हो जाएंगे। चूंकि भारत में गठबंधन की राजनीति टाली नहीं जा सकती इसलिए मोदी और उनके साथियों के विचारों को पराजित करने का सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि साथ रहना और साथ मिलकर शासन करना सीखना चाहिए।

कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना, जो हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रचारक थे

भाजपा विविधता में एकता के गांधी के विचार को पराजित नहीं कर सकती। वास्तव में इसने जो किया उससे गांधी सही साबित होते हैं। भारत की एकता ही अलगाववाद के खतरे का सामना कर पाई। पाकिस्तान, जिसके लिए मैं बेहतरी की कामना करता हूं, बहुसंख्यक हिंदू-समुदाय के प्रति अविश्वास की उपज है। कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना, जो हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रचारक थे, ने कहा था कि वह बहुसंख्यक संप्रदाय- हिंदू पर भरोसा नहीं कर सकते। इसी अविश्वास के कारण बंटवारे के बाद लोग अपना घर-बार छोड़कर चले गए। दोनों तरफ मिलाकर दस लाख लोग मारे गए और हिंदू तथा मुसलमानों के बीच दूरी और बढ़ गई। आरएसएस का दर्शन और कुछ नहीं, गांधी जी की शिक्षाओं का मजाक उड़ा रहा है। तब आरएसएस सफल नहीं हो पाया था, क्योंकि सांप्रदायिक ताकतें गांधी जी को चुप नहीं करा सकीं। अंत में उन्हें उनकी हत्या करनी पड़ी ताकि उस आवाज को खामोश किया जा सके जिसे लोग सुनते थे और जिसका सम्मान करते थे।

मैंने वह पत्र देखा है जिसे नाथूराम गोडसे ने अपने बचाव में लिखा था। उसने गांधी जी के प्रति सम्मान व्यक्त किया, लेकिन यह दलील दी कि गांधी जी अगर अधिक दिन जीते तो देश को तकलीफ उठानी पड़ती। मुझे गांधी जी की प्रार्थना-सभाओं की एक घटना याद है। मैं मौजूद था जब महात्मा गांधी के प्रार्थना शुरू करने से पहले पंजाब से आए एक आदमी ने उठकर कहा कि वह कुरान नहीं सुनेगा। प्रार्थना-सभाओं में तीन धर्मग्रंथ-गीता, कुरान और बाइबिल का पाठ होता था।

राष्ट्र को खतरा उन लोगों से है जो यह सोचते हैं कि देश में हिंदुओं की 80 प्रतिशत आबादी है 

उन्होंने कहा कि जब तक आपत्ति करने वाला इसे वापस नहीं लेता, कोई सभा नहीं होगी। कई दिनों तक कोई प्रार्थना सभा नहीं हुई। इसे फिर से तभी शुरू किया गया जब उस व्यक्ति ने अपनी आपत्ति वापस ले ली। आज जब कट्टरवादी आरएसएस शिक्षण संस्थानों के अध्यक्षों की नियुक्ति में सरकार का मार्गदर्शन करता है तो प्रतिभा के आने की कोई उम्मीद नहीं दिखती। इन परिस्थितियों में एक संघीय पार्टी इन तत्वों के खिलाफ किस तरह संघर्ष कर सकती है? राष्ट्र को खतरा उन लोगों से है जो यह सोचते हैं कि देश र्में हिंदुओं की 80 प्रतिशत आबादी है इसलिए शासन करने का हक उन्हें है। जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने इसका ध्यान रखा था कि कोर्ई हिंदुत्व नहीं होगा। उन्होंने उस समय की विधानसभा को संविधान सभा में बदल दिया ताकि एक संविधान बन सके। भारत आज 80 प्रतिशत से नहीं, उस संविधान से शासित है जो हर व्यक्ति को एक वोट का अधिकार देता हैर्। हिंदू बहुसंख्या में होने पर भी भारत की सोच को पलट नहीं सकते, क्योंकि संविधान सबसे ऊपर है।

(लेखक प्रख्यात पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)