[रशीद किदवई]। कांग्रेस के वैचारिक और व्यावहारिक चुनौतियों से जूझने का सिलसिला कायम है। जहां एक तरफ भाजपा में नए पार्टी अध्यक्ष का चुनाव संपन्न हो गया और जेपी नड्डा ने पार्टी की कमान भी संभाल ली वहीं कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर उठे सवालों का समाधान होता नहीं दिखता। नड्डा के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी अपने संसदीय बोर्ड में रिक्तपदों को भरने वाली है, लेकिन कांग्रेस 1991 के बाद से ही अपने संसदीय बोर्ड का चयन करने में असमर्थ है।

बात केवल इतने तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस को यह समझ नहीं आ रहा है कि वह अपनी पूरी ताकत लगाकर भाजपा और आम आदमी पार्टी, दोनों को पराजित करे या फिर आम आदमी पार्टी के साथ कोई ऐसा तालमेल करे जिससे भाजपा को दिल्ली में सरकार बनाने से वंचित किया जा सके।

महाराष्ट्र में भी कांग्रेस को लग रहे झटके

महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के गठबंधन वाली साझा सरकार को लगातार झटके लग रहे हैं। कांग्रेस शिवसेना नेता संजय राउत के तीखे बयानों का सही तरह जवाब नहीं दे पा रही है। इंदिरा गांधी की विरासत के दावेदार राहुल गांधी से आदित्य ठाकरे दो बार मिल चुके हैं, लेकिन गठबंधन में परस्पर विश्वास और टीम भावना का अभाव साफ दिख रहा है।

दिल्ली में शाहीन बाग और अन्य स्थानों पर नागरिकता संशोधन कानून का जो विरोध हो रहा है और जिनमें कांग्रेसी नेता शिरकत कर रहे हैं उसे लेकर पार्टी आश्वस्त नहीं दिख रही कि इससे उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा ही। शाहीन बाग धरने में मणिशंकर अय्यर का जाना कांग्रेस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था।

मणिशंकर अय्यर को कांग्रेस में भी नहीं लिया जाता गंभीरता से

दरअसल मणिशंकर अय्यर की कांग्रेस में कोई बड़ी राजनीतिक हैसियत नहीं है, लेकिन टीवी चैनलों की बहस में वह कांग्रेस के एक मुख्य पात्र बन जाते हैं। खुद मणिशंकर अय्यर को भी इस बात का अंदाजा है कि कांग्रेस में उन्हें अधिक गंभीरता से नहीं लिया जाता। एक बार उनसे पूछा गया था कि वह राजीव गांधी और सोनिया गांधी के समय की तुलना कैसे करते हैं तो उनका जवाब था कि राजीव गांधी के समय मैं अर्श पर था और अब मैं फर्श पर हूं।

वास्तव में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस में उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता, लेकिन कांग्रेस उनसे अपना दामन छुड़ाना भी नहीं चाहती। मणिशंकर अय्यर रह-रहकर पाकिस्तान जाते रहते हैं। वह वहां के नेताओं और बुद्धिजीवियों से मिलते हैं। वह वहां पर और साथ ही वहां से लौटकर ऐसे बयान देते हैं जो अक्सर सुर्खियां बन जाते हैं।

शाहीन बाग को लेकर कांग्रेस असमंजस में

हाल में वह पाकिस्तान से लौटकर शाहीन बाग धरने में गए और वहां उन्होंने भाषण भी दिया। कांग्रेस को समझ नहीं आया कि वह उनके इस भाषण का स्वागत करे या विरोध? संकट केवल इतना ही नहीं है। दिल्ली में शाहीन बाग और देश के अन्य स्थानों पर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन में जो धार्मिक नारे लगाए जा रहे हैं उन्हें लेकर भी कांग्रेस को समझ में नहीं आ रहा है कि वह उनका विरोध करे या समर्थन?

धार्मिक और क्षेत्रीय भावनाएं

आस्था एक बड़ा निजी और महत्वपूर्ण मामला होता है। यदि धर्म से जुड़ी हुई मान्यताओं को हम राष्ट्रवाद के विरुद्ध मानेंगे तो उससे तरह-तरह की समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। भारत जैसे देश जहां विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते हों वहां धार्मिक और क्षेत्रीय भावनाएं होना कोई अचरज की बात नहीं है। किसी खास परिस्थिति में धर्म से जुड़े नारे, जैसे ‘जो बोले से निहाल’, ‘हर-हर महादेव’ या ‘अल्लाह ओ अकबर’ लगाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारी फौज में विभिन्न रेजीमेंट्स जो है भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्घोष करती हैं, खास तौर पर दुश्मन को मजा चखाने के समय। इन नारों को महत्व दिया जाता है और उनका सम्मान भी किया जाता है।

अल्पसंख्यक समुदाय को लग रहा कांग्रेस उनसे काट रही कन्नी

इस संबंध में जो उदारवादी लिबरल सोच है वह मूल रुप से धर्म और आस्था के विरुद्ध जाती है और यहां पर कांग्रेस दो पाटों के बीच में पिसती नजर आती है। उसे लगता है कि किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ कोई नारा अल्पसंख्यकों अथवा बहुसंख्यकों द्वारा गलत समझा जा सकता है और वह रक्षात्मक मुद्रा में आ जाती है। दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ऐसा लगता है कि कांग्रेस उनसे कन्नी काट रही है। शशि थरूर ऐसे नारों का विरोध कर रहे हैं। वह एक विद्वान नेता की छवि रखते हैं, लेकिन कांग्रेस की विचारधारा के लिहाज से वह नौसिखिये प्रतीत हो रहे हैं।

कांग्रेस की एक समस्या यह है कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोधियों और विशेष रूप से युवाओं में पार्टी को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं दिख रहा है। कांग्रेस को यह सोचना होगा कि क्या कारण है कि देश का जो युवा भाजपा से नाराज नजर आता है वह कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में क्यों नहीं देख रहा है और वह भी तब जब कांग्रेस में राहुल गांधी जैसा एक युवा नेता है?

संगठन के चुनाव से पीछे हट रही कांग्रेस

कांग्रेस को इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या कारण है कि जहां एक तरफ भाजपा को नड्डा को अपना नया अध्यक्ष चुनने में कोई परेशानी नहीं हुई वहीं कांग्रेस राहुल गांधी को एक पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाने में हिचक रही है? सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस अपने संगठन के चुनाव से पीछे हट रही है? क्या वजह है कि राहुल गांधी के 2003 से ही राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद आज तक कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता नहीं बन पाए हैं?

दिल्ली में गठबंधन के सहारे सरकार बनाना चाहती है कांग्रेस

दरअसल सोनिया गांधी जोखिम उठाने की राजनीति से बचती नजर आ रही हैं। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की मानें तो कांग्रेस गर्म खिचड़ी को किनारे-किनारे से खा करके ही संतुष्ट होना चाहती है। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में सत्ता में भागीदारी के बाद कांग्रेस दिल्ली में उस मॉडल को दोहराना चाह रही है जो उसने 2013 में अपनाया था और जिसके तहत केजरीवाल सरकार को समर्थन दिया था। कांग्रेस को लगता है कि अरविंद केजरीवाल अपने बलबूते बहुमत नहीं हासिल कर पाएंगे और ऐसे में उनकी सरकार कांग्रेस के समर्थन से ही बन पाएगी।

बिहार के मामले में भी कांग्रेस का ऐसा ही कुछ आकलन है। उसे लग रहा है कि नीतीश कुमार और भाजपा में कुछ खटपट जरूर होगी और उसे वहां की सत्ता में शामिल होने का कोई न कोई रास्ता मिल जाएगा, लेकिन क्या दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी का रास्ता कांग्रेस को कभी भाजपा के विकल्प के रूप में पेश कर पाएगा? यह वह सवाल है जिसका जवाब सिर्फ सोनिया और राहुल गांधी दे सकते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन मेंविजिटिंग फेलो हैं)