[रिजवान अंसारी]। यह लेख बीते 17 सितंबर को प्रकाशित आलेख ‘सभी के लिए समान होने चाहिए नियम’ के संदर्भ में है जिसमें समान नागरिक संहिता को लागू करने की जरूरत पर जोर दिया गया है, लेकिन कुछ बिंदुओं पर मेरी असहमति है। दरअसल जब विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी करते हुए मौजूदा वक्त में समान नागरिक संहिता की जरूरत को नकार दिया, तब ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस मुद्दे को तूल देने के बजाय हमें आयोग की बातों पर मंथन करने की जरूरत है। आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि समान नागरिक संहिता समस्या का हल नहीं है, बल्कि सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की जरूरत है ताकि उनके पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी तथ्य सामने आ सके।

आयोग जब यह कहता है कि अलग-अलग नियम का होना किसी विखंडित लोकतंत्र की निशानी नहीं, बल्कि एक मजबूत लोकतंत्र की पहचान है तब सवाल उठता है कि क्या वाकई एक एकीकृत राष्ट्र को ‘समानता’ की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवाह ही न करें। फिर सवाल यह भी है कि निजी कानून में अंतर होने से समस्या किसे है? दूसरे समुदायों को, सरकार को या मुस्लिम महिलाओं को? यह सवाल इसलिए भी है, क्योंकि शरिया कानून 1937 में ही बना था और सर्वोच्च न्यायालय दशकों से समान नागरिक संहिता की जरूरत के संकेत देता रहा है। फिर अब तक सरकारें क्यों सोई रहीं? ऐसे में एक सवाल है कि अगर अब तक समान नागरिक संहिता को लागू करने की कोशिशें संजीदगी से नहीं हुई है तो इसके पीछे अल्पसंख्यकों की चिंता तो नहीं है? या फिर यह मान लिया जाए कि हमारे सियासतदां भी समझते हैं कि धर्म और कानून के घालमेल से इस बहुल संस्कृति वाले देश में बेहतर संदेश नहीं जाएगा?

जहां तक दूसरे समुदायों की बात है तो मेरा मानना है कि उन्हें परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि भारत इतनी विविधताओं से भरा है कि एक निश्चित दूरी के बाद लोगों के रीति-रिवाज में फर्क आ जाते हैं। बात चाहे मुस्लिम की हो या हिंदू धर्म की, एक ही समुदाय के भीतर विभिन्न नियम कानून पाए जाते हैंर्। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में खून के रिश्ते में शादी करने की मनाही है, लेकिन दक्षिण भारत के हिंदुओं में कई जगह इसका पालन नहीं होता। इसी तरह मुस्लिमों में कुछ नजदीकी रिश्ते में शादी की वकालत करते हैं तो एक तबका इसका विरोध भी करता है। फिर सवाल है कि मुस्लिम महिलाएं क्या सोचती हैं? मुस्लिम पर्सनल लॉ के हस्ताक्षर अभियान की मानें तो करोड़ों मुस्लिम महिलाएं भी उस आजादी की ख्वाहिश नहीं रखतीं जो उन्हें समान नागरिक संहिता के तहत मिलती हो। उन्हें भी धर्म के तहत मिली आजादी ही पसंद है।

पक्ष और विपक्ष के तर्क

दरअसल संविधान निर्माण के बाद से ही समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग उठती रही है, लेकिन हम यह भी न भूलें कि जितनी बार मांग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है। दरअसल समान नागरिक संहिता को लागू करने के पीछे तर्क दिया जाता है कि संविधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार और अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव करने की मनाही। लेकिन महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है। बात चाहे तीन तलाक की हो, मंदिर में प्रवेश को लेकर हो, शादी-विवाह की हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। इससे न केवल लैंगिक समानता को खतरा है, बल्कि सामाजिक समानता भी सवालों के घेरे में है। लिहाजा समान नागरिक संहिता के झंडाबरदार इसे संविधान का उल्लंघन बता रहे हैं।

दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज समान नागरिक संहिता का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा जाता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। इसलिए सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा। मुस्लिमों के मुताबिक उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिए समान नागरिक संहिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए। मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक शरिया कानून कुरान और पैगंबर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है। लिहाजा यह उनकी आस्था का विषय है। मुस्लिमों की चिंता है कि देश में छह दशक पहले उन्हें मिली धार्मिक आजादी धीरे-धीरे उनसे छीनने की कोशिश की जा रही है। यही कारण है कि यह रस्साकशी कई दशकों से चल रही है।

क्यों जरूरी नहीं समान कानून

दरअसल कई मौके ऐसे आए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता लागू न करने पर नाखुशी जताई है। 1985 में शाह बानो केस और 1995 में सरला मुदगल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी से भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा था। जबकि पिछले वर्ष ही तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी इस मुद्दे को हवा मिली। लेकिन अब तक अगर समान नागरिक संहिता को लागू करने की सरकारी स्तर पर संजीदगी से पहल नहीं हुई है या यों कहें कि इसे जरूरी नहीं समझा गया है तो इसके भी कई ठोस कारण हैं। दरअसल भारत एक बहुल संस्कृति वाला देश है जिसका गवाह हमारा संविधान भी है। हिंदू धर्म में विवाह को जहां एक संस्कार माना जाता है, वहीं इस्लाम में इसे अनुबंध माना जाता है। ईसाइयों और पारसियों के रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं। लिहाजा व्यापक सांस्कृतिक विविधता इस देश की न केवल पहचान रही है, बल्कि एक गौरवपूर्ण विषय भी रहा है। जाहिर है समान नागरिक संहिता से हमारी पहचान खत्म हो जाएगी जो हमें पूरी दुनिया में विशिष्ट बनाती है।

दूसरी तरफ मुस्लिम आबादी समान नागरिक संहिता को उनकी धार्मिक आजादी का उल्लंघन मानती है। क्या इसमें कोई शक है कि जितने भी निजी कानून हैं वे सभी आस्था पर आधारित हैं? आस्था पर आधारित होने का मतलब ही होता है उसमें अटूट विश्वास होना। फिर एक कानून बना कर किसी की आस्था को बदला नहीं जा सकता। दरअसल इस्लाम में जो प्रथाएं हैं, वे केवल प्रथाएं नहीं हैं। बल्कि उन सभी का ताल्लुक पैगंबर मोहम्मद साहब से है और किसी बात का मोहम्मद पैगंबर से जुड़े होने का मतलब है कि वह इस्लाम का अभिन्न अंग है। जहां तक बहुविवाह का सवाल है तो इस संदर्भ में कई सवाल उभर रहे हैं। पहला यह कि इससे समस्या किन्हें हैं? फिर सवाल यह कि भारत के कितने फीसदी मुस्लिमों ने बहुविवाह किया है?

सरकार को आंकड़ा जुटा लेना चाहिए। फिर एक यह भी सवाल है कि बहुविवाह के कारण महिलाओं पर अत्याचार के कितने मामले प्रकाश में आए हैं? मेरी समझ कहती है कि किसी भी प्रथा पर आपत्ति तभी होती है जब उसके मामले सरकार को परेशान करने वाले हों जैसा कि तीन तलाक के मामले में हुआ। बहुविवाह से जुड़ी एक बेहतरीन सोच भी साझा करना चाहूंगा। इसके पीछे मोहम्मद साहब की सोच थी कि इसके जरिये बेसहारा और उन औरतों की जिम्मेदारी उठाई जाए जिनसे कोई भी शादी नहीं करना चाहता या जिन महिलाओं को समाज नकार देता है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने की इससे बड़ी संकल्पना कहीं नहीं मिलती। फिर यह कहना कि इस्लाम में महिलाओं के अधिकार सुरक्षित नहीं हैं, कितना सही है? इससे बड़ी अधिकार की रक्षा क्या होगी जिसमें किसी को जीने का अधिकार मिले। किसी बेसहारा का सहारा बनना सबसे बड़ी इंसानियत भी है। फिर उस पर राजनीतिक कितनी दुरुस्त है?

यकीनन सरकार को इस पर अध्ययन करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। बहुविवाह के मामले में कुछ बेहतर उदाहरण देखने को मिले हैं। लेकिन कुछ नकारात्मक उदाहरण के कारण उसमें सुधार के बजाय उसे पूरी तरह खत्म कर देने से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना नहीं कहा जा सकता। देशभर में इन दिनों समान नागरिक संहिता और इससे जुड़े सवालों पर व्यापक बहस छिड़ी हुई है। अनेक सरकारी आयोग, संस्थाएं ने इस पर अपनी-अपनी राय व्यक्त की है। यह बहस निरंतर जारी है और सभी संबंधित पक्षकार अपने तर्क दे रहे हैं। इसमें कानून और धार्मिक आस्था का मसला सबसे अहम है। लोकतंत्र की इस बड़ी विशेषता की एक अन्य नजरिये से की गई व्याख्या के माध्यम से प्रस्तुत है इस कड़ी में एक अन्य विचार।

[अध्येता जामिया मिलिया

इस्लामिया, नई दिल्ली]