विवेक काटजू : गत रविवार की सुबह अमेरिका ने काबुल में एक ड्रोन हमला कर अलकायदा के मुखिया अयमान अल जवाहिरी (Al-Zawahiri) को मौत के घाट उतार दिया। जवाहिरी ने मई 2011 में ओसामा बिन लादेन (Osama Bin Laden) की हत्या के बाद अलकायदा की बागडोर संभाली थी। लादेन की हत्या भी जवाहिरी की तरह एक अमेरिकी हमले में हुई थी। अंतर बस जगह का था। लादेन पाकिस्तानी सेना की किलेबंदी वाले एबटाबाद में मारा गया था तो जवाहिरी काबुल में। जवाहिरी के दस वर्षों के नेतृत्व में अलकायदा ने 9-11 जैसी कोई बड़ी आतंकी वारदात को तो अंजाम नहीं दिया, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर उसका कोई असर नहीं रह गया था। इसीलिए जवाहिरी का सफाया विश्वव्यापी इस्लामिक आतंक के विरुद्ध मुहिम में एक उपलब्धि है।

जवाहिरी मूल रूप से मिस्र का था। उसका संबंध एक पढ़े-लिखे परिवार से था। उसके पूर्वज इस्लामी दुनिया के सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय अल-अजहर के अध्यक्ष रह चुके थे। उसके ननिहाल पक्ष के एक पूर्वज भी राजनयिक थे, जो अरब लीग के सर्वप्रथम महासचिव नियुक्त हुए थे। वैसे तो जवाहिरी ने मेडिकल शिक्षा प्राप्त की, लेकिन आरंभ से ही उसका झुकाव कट्टरपंथ की ओर था। वह 'इस्लामी जिहाद' नाम के कट्टरपंथी संगठन की स्थापना में शामिल रहा। माना जाता है कि मिस्र के राष्ट्रपति रहे अनवर सादात की हत्या में भी उसकी भूमिका थी। उसे सजा भी हुई। फिर पिछली सदी के नौवें दशक में उसने पाकिस्तान का रुख किया।

यह वही दौर था जब अमेरिका, सऊदी अरब और चीन ने सोवियत सेना के खिलाफ सक्रिय अफगान जिहादी संगठनों को सहारा देना शुरू किया। उनकी इस मुहिम में पाकिस्तान उनका पिट्ठू बना। अफगानिस्तान में ही जवाहिरी की लादेन से मुलाकात हुई। दोनों ने अलकायदा की स्थापना की। यकीनन लादेन ही अलकायदा का सर्वेसर्वा था, लेकिन आतंकी हमलों की योजना बनाने से लेकर उन्हें अंजाम देने में जवाहिरी की अहम भूमिका होती थी। इस आतंकी गुट के संचालन में भी उसकी खास भूमिका रहती थी। अमेरिकी तो यहां तक मानते हैं कि पिछली सदी के अंतिम दशक में अमेरिकी युद्धपोत यूएसएस कोल के साथ तंजानिया एवं केन्या में अमेरिकी दूतावासों पर हुए हमलों और फिर 9-11 हमले में भी जवाहिरी की प्रमुख भूमिका थी।

2001 में जब नाटो सेनाओं ने अफगानिस्तान में तालिबान का शासन समाप्त किया तो माना गया कि जवाहिरी ने भी पाकिस्तान में शरण ले ली है। वहां पर वह भी लादेन के साथ अमेरिका के निशाने पर था। अलकायदा सदस्यों का मनोबल बढ़ाने के लिए वह समय-समय पर वीडियो और आडियो मैसेज जारी करता रहता था। वास्तव में तालिबान और अलकायदा के संबंध 1996-97 के बाद घनिष्ठ हुए। तालिबान का एक वर्ग मुल्ला उमर पर दबाव डालता था कि अलकायदा से संबंध रखने पर तालिबान को नुकसान होगा, लेकिन मुल्ला उमर और उसके साथ हक्कानी गुट के सरगना जलालुद्दीन का इस पर असर नहीं पड़ा।

काबुल में अल जवाहिरी का मारा जाना यही साबित करता है कि तालिबान का वह आश्वासन हवा-हवाई साबित हुआ कि वह अफगान धरती पर किसी अंतरराष्ट्रीय आतंकी गुट को पनाह नहीं देगा। तालिबान ने अमेरिका को यह आश्वासन 2020 में उसके साथ हुए एक समझौते में दिया था। तालिबान के प्रतिनिधि ने काबुल में अमेरिकी ड्रोन हमले की निंदा की है। हालांकि इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर कोई असर नहीं होगा। उलटे वह तो तालिबान को ही कठघरे में खड़ा करेगा कि अंतरराष्ट्रीय आतंकी गुटों से उसके संबंध जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हैं। इसका तालिबान पर नकारात्मक प्रभाव ही होगा। अंतरराष्ट्रीय राजनयिक स्वीकार्यता-मान्यता की उसकी मुराद अब और दूर की कौड़ी हो जाएगी। इसमें संदेह नहीं कि अमेरिका और यूरोप से लेकर रूस और चीन में भले ही कितनी खेमेबंदी और मतभेद हों, लेकिन ये सभी देश और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस पर एकमत है कि तालिबान अफगान जमीन पर किसी आतंकी संगठन को न पनपने दे।

जवाहिरी की मौत काबुल के जिस शेरपुर इलाके में हुई, वह शहर के बीचोंबीच स्थित है। सरकारी संस्थान और कूटनीतिक प्रतिष्ठान इसके एकदम बगल में हैं। प्रश्न उठता है कि जवाहिरी को ऐसे इलाके में तालिबान के किस गुट ने रखा और क्यों? क्या वह यह समझता था कि अगर अमेरिका को पता भी चल गया तो वह इस इलाके की संवेदनशीलता को देखते हुए हमला करने से हिचकेगा। जवाहिरी के ठिकाने पर अमेरिकी हमले की सटीकता यह बताती है कि उसकी मारक क्षमता कितनी कारगर और असरदार है। यह भी साफ है कि अमेरिका को अपने तकनीकी माध्यमों के साथ कुछ न कुछ मानवीय खुफिया इनपुट भी अवश्य मिला होगा। ऐसे में यह भी एक बड़ा सवाल है कि अमेरिका को यह जानकारी किसने दी होगी?

यह किसी से छिपा नहीं कि तालिबान में आपसी रंजिश और फूट बहुत ज्यादा है। इस घटनाक्रम के बाद तालिबान के बीच की दरारें और बढ़ेंगी। यह भी संभव है कि पाकिस्तानी सेना ने भी अमेरिकियों की इस मामले में मदद की हो। पाकिस्तान की आर्थिक एवं राजनयिक स्थिति इस समय बहुत कमजोर है। वह राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। ऐसी भी खबरें हैं कि पाकिस्तानी सेना के शीर्ष जनरलों में भी मतभेद हैं। मौजूदा हालात में उसे इसीलिए अमेरिकी मदद चाहिए कि कहीं उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा न जाए। यह भी हो सकता है कि अमेरिका के हाथों जवाहिरी की मौत के कारण तालिबान और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान भी पाकिस्तानी सेना को निशाना बनाएं, क्योंकि प्रतिशोध की परंपरा पश्तून कबीलों में कूट-कूटकर भरी है।

भारत ने कुछ सप्ताह पहले एक टेक्निकल टीम काबुल में तैनात की। ऐसी टीमों में कुछ राजनयिक भी होते हैं। इसके पहले भारतीय प्रतिनिधि भी काबुल का दौरा कर चुके हैं। तब तालिबान ने आश्वासन दिया था कि वे भारत से संबंध बढ़ाना चाहते हैं और अगर भारत ने फिर से अपना स्थायी ठिकाना बनाया तो वे उसे पूरी सुरक्षा देंगे। भारत ने संकोच के साथ अपनी टीम काबुल भेजी थी।

अब सवाल यह है कि क्या जवाहिरी के सफाए के बाद भारत को अपनी अफगान नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए? नि:संदेह भारत को स्पष्ट शब्दों में मांग करनी चाहिए कि तालिबान को अंतरराष्ट्रीय आतंकी गुटों, जिनमें पाकिस्तानी गुट भी शामिल हैं, से अपने संबंध पूरी तरह खत्म करने होंगे। चूंकि अफगानिस्तान में भारत के हित निहित हैं, इसलिए उसकी टीम को वहां मौजूद रहना चाहिए। ऐसा न होने पर पाकिस्तान और चीन जैसे देशों को अफगानिस्तान में अपने हितों को पोषित करने और भारत के खिलाफ कार्रवाई करने में खुली छूट मिल जाएगी।

(लेखक अफगानिस्तान में राजदूत रहे हैं)