नई दिल्ली (जगमोहन सिंह राजपूत)। इस वर्ष 28 मार्च को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई परीक्षा देकर बाहर निकले कक्षा दस के बच्चों के चेहरे प्रसन्नता और तनाव मुक्ति से खिले दिखाई दे रहे थे, लेकिन कुछ ही घंटों के भीतर देश भर में कोहराम मच गया। परीक्षा का प्रश्न पत्र ‘लीक’ हो गया था। कुल मिलाकर 28 लाख बच्चों को पुन: परीक्षा देने की घोषणा के बाद हताशा, आक्रोश तथा व्यवस्था द्वारा अपनी अकर्मण्यता से ठगे जाने का भाव परिवारों, पालकों तथा बच्चों के चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। इसके लगभग दो महीने पहले से भर्ती परीक्षाओं में धांधली को लेकर बड़ा आंदोलन हुआ। कुल मिलाकर परीक्षा लेने वाली संस्थाओं में सब कुछ सही, व्यवस्थित तथा अपेक्षित ढंग से नहीं चल रहा है और उनकी साख कम होती जा रही है।

इसका खामियाजा देश की भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। स्वार्थी तत्वों मसलन राजनेता, व्यापारी तथा माफिया-के लिए शिक्षा मुनाफा कमाने का सबसे माकूल जरिया बन गई है। जब चारों ओर प्रभावशाली लोग व्यवस्था में छेद करने में पूरे मनोयोग से लगे हुए हों, तब संस्थागत कर्मचारियों से ही हर प्रकार की ईमानदारी की अपेक्षा करना कितना तर्कसंगत होगा? राजनीति किस कदर शिक्षा व्यवस्था को चौपट करती है इसका ताजा उदाहारण कर्नाटक की राजनीति में दिखता है। वहां लिंगायत समाज को अलग धर्म यानी अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा मिलने पर उनके द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं पर शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के प्रावधान लागू नहीं होंगे। यही नहीं संविधान के अनुच्छेद 30 के प्रावधानों के अंतर्गत उन्हें अपने शिक्षा संस्थान स्थापित करने तथा प्रबंधन के निर्बाध अधिकार भी प्राप्त हो जाएंगे! इन प्रावधानों का अल्पसंख्यक समुदाय के हित में उपयोग उतना नहीं हुआ है जितना नियमों से बचने के लिए दुरुपयोग हुआ है। इसमें अहित तो बच्चों यानी भारत के भावी कर्णधारों का ही होगा।

कोई भी राष्ट्र अपने बच्चों की देखभाल कैसे करता है, यह विकास और प्रगति के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का मापदंड बनता है। सीबीएसई प्रकरण के विश्लेषण की महती आवश्यकता सभी स्वीकार करते हैं, मगर साथ ही साथ यह जानना भी जरूरी है कि इसको मात्र एक दुर्घटना मानकर समाधान नहीं निकाला जा सकता है। शिक्षा व्यवस्था में आपराधिक तत्वों तथा माफिया का सेंध लगाना पहली बार नहीं हो रहा है। प्रश्न पत्र चाहे वे स्कूलों, विश्वविद्यालयों के हों या नौकरी की भर्ती परीक्षाओं के, पिछले दस-पंद्रह वर्षों से लगातार ‘लीक’ होते रहे है। संस्थाएं इनसे सबक क्यों नहीं लेती हैं? क्या व्यापम या बिहार बोर्ड के वैशाली दृश्यों के बाद सीबीएसई को सतर्क नहीं हो जाना चाहिए था? इस वर्ष ही सीबीएसई आगे के पर्चे सीधे परीक्षा केंद्र पर भेजेगी, वहीं वे प्रिंट होंगे और उनके समय से पहले ‘पैकेट’ खोल लिए जाने की कोई आशंका बचेगी ही नहीं! यह सही कदम है, मगर इससे यह प्रश्न भी निकलता है कि इतनी प्रतिष्ठित संस्था आधुनिक संचार तकनीकी का उपयोग करने में इतनी शिथिल क्यों रही? जो देश की भावी पीढ़ी को तैयार करते हैं, उन्हें भविष्य-दृष्टि का धनी तो होना ही होगा। जो वर्तमान की व्याख्या कर भविष्य में झांक सके वही शिक्षा से जुड़ी संस्थाओं को नेतृत्व दे सकते हैं।

सरकारों को अपनी यह समझ बढ़ानी पड़ेगी कि नौकरशाही नेतृत्व अकादमिक नेतृत्व नहीं प्रदान कर सकता है। उसका अपना महत्व है, मगर शीर्ष स्तर पर उसका काम केवल अकादमिक नेतृत्व की परख और विचारों के क्रियान्वयन तक ही सीमित हो सकता है। वर्ष 1965 के आसपास के पांच-दस वर्षों की स्थिति का जायजा लिया जाए तो स्पष्ट दिखाई देगा कि लगभग सभी स्कूल बोड्र्स के अध्यक्ष अकादमिक लोग ही होते थे। राज्यों में शिक्षा निदेशक तक के पदों पर प्रतिष्ठित शिक्षाविद नियुक्त होते थे। जैसे-जैसे राजनीतिक नेतृत्व की साख कमजोर हुई, नौकरशाही हावी होती गई और शिक्षा जगत के सभी महत्वपूर्ण पद नौकरशाहों के लिए सुरक्षित हो गए। इस समय पूरे देश में शिक्षा से जुड़े राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर के लगभग सभी संस्थानों के शीर्ष पदों पर नौकरशाह ही बैठे मिलेंगे। मैंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के अधिनियम निर्माण का उत्तरदायित्व संभाला था तथा पांच वर्ष उसके पहले अध्यक्ष के रूप में उसे स्थापित किया था। दो वर्ष पहले वहां भी एक नौकरशाह की नियुक्ति होने पर शिक्षकों की दुनिया में जो हताशा की प्रतिक्रिया मैंने देखी वह आंख खोलने वाली होनी चाहिए थी। सीबीएसई के वर्तमान अध्यक्ष के पास राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद की अध्यक्षता का अतिरिक्त प्रभार भी कई महीनों से है। यह स्वीकार्य स्थिति नहीं है।

शिक्षा संस्थाओं को ऐसा नेतृत्व चाहिए जिसमें शिक्षा के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता का भाव हो। जो यह मानता हो कि वह भारत के भविष्य निर्माण में एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। ऐसे व्यक्ति को संस्था में दृष्टिकोण परिवर्तन और कार्यसंस्कृति परिवर्तन के लिए स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करना होता है। जो लोग उसे संस्था में मिले हों, उन पर विश्वास करना होगा और अपने पर यह विश्वास रखना होगा कि वह इन्हें संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूर्णरूपेण समर्पित बना सकता है! इन संस्थाओं को ऐसे व्यक्ति चाहिए जो सामूहिकता में विश्वास रखते हों, मिलकर ‘परिवर्तन’ का अवलोकन करें, विश्लेषण करें, जो उपयोगी हो या आगे हो सकता हो, उस पर केंद्रित करें।

आवश्यक है संस्था के बुनियादी उद्देश्यों की गहरी समझ और पक्के आत्मविश्वास की प्रेरणा, सम्मान और सहभागिता के साथ मिलकर शुरू किए नवाचारों से हर व्यक्ति की क्षमता और प्रतिबद्धता को बढ़ाया जा सकता है। हर सफल नेतृत्व इसी ढंग से संस्था की कार्यसंस्कृति को प्रभावोत्पादक बनाने में सफल रहा है। शैक्षिक नेतृत्व का सम्मान उसके योगदान तथा विद्वता से होता है, न कि उसके ऊंचे पद पर प्रतिष्ठित हो जाने से। वह सम्मान की अपेक्षा नहीं करता है, वह तो उसे स्वत: ही मिल जाता है।

वह जानता है कि लोगों को प्रभावित करने के लिए अपना उदाहरण ही सामने रखना होगा। वह चुनौतियां स्वीकार करता है, नए समाधान मिलकर ढूंढ लेता है। अन्य को श्रेय देने में पीछे नहीं रहता है। उसके लिए संस्था का संचालन एक कला है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने शीघ्र ही नई शिक्षा नीति का मसौदा आने वाला है। सीबीएसई प्रकरण की जांच से भी नए तथ्य सामने आएंगे। नए निर्णय केवल एक संस्था के लिए ही नहीं, देशव्यापी स्तर पर शैक्षिक सुधारों को गति दे सकें, ऐसी सभी की अपेक्षा होगी। उसके लिए यह उचित अवसर है। यह भी जरूरी है कि कुछ अवांछनीय तत्वों के लालच के कारण सीबीएसई की साख पर कोई बट्टा न लगे और देश उस पर गर्व करता रहे।

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)