अभिजीत। Vinayak Damodar Savarkar अपने शैक्षणिक श्रेष्ठता के साथ विवादों से भी लगातार जुड़े रहने वाला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बार फिर सावरकर के नाम पर एक सड़क के नामकरण को लेकर चर्चा में है। अगर तत्कालीन वाकये को संक्षेप में समझें तो पिछले वर्ष जुलाई में जेएनयू परिसर विकास समिति ने परिसर के भीतर के सड़कों का नाम स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सुधारकों के नाम पर रखने की बात करते हुए विश्वविद्यालय के एक्जीक्यूटिव काउंसिल के अनुमोदन के लिए ऐसे व्यक्तियों के नामों की एक सूची रखी थी, जिसमें वाल्मीकि, गुरु रविदास, सावरकर, अब्दुल हामिद, रानी झांसी, सरदार पटेल, लोकमान्य तिलक आदि नाम शामिल थे।

इस प्रस्ताव को एक्जीक्यूटिव काउंसिल के सामने 13 नवंबर 2019 को रखा गया जिसे काउंसिल ने पारित कर दिया। इसके पहले भी परिसर के मुख्य मार्गों के नाम कई महापुरुषों के नाम पर रखे गए थे। वैसे भी सड़कों या किसी भी स्थान का नामकरण जगह और पता को चिन्हित करने की दृष्टि से एक सामान्य प्रक्रिया होती है और वह किसी महान व्यक्ति के नाम पर हो तो यह न सिर्फ जगह और पता को चिन्हित करने की दृष्टि से उचित कदम है, बल्कि आम लोगों को भी इन महापुरुषों के योगदानों को ध्यान में रखकर प्रेरणा देने का कार्य करती है। वर्तमान परिदृश्य में विश्वविद्यालयों के भीतर ऐसे नामकरण और भी जरूरी हैं, क्योंकि भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है, और वे समाज के सबसे ऊर्जावान लोग हैं। ऐसे में मानव समाज का भविष्य उनके विचारों और व्यवहारों से ही सुनिश्चित होना है तो उनके सामने ऐसे आदर्शों को रखना, जिन्होंने अपना जीवन देश और समाज के लिए लगा दिया था, अत्यंत आवश्यक है।

इसी प्रक्रिया में अभी कुछ दिनों पहले एक सड़क, जो भारतीय जनसंचार संस्थान को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर से जोड़ती है, उसका नाम विनायक दामोदर सावरकर के नाम पर सुनिश्चित करते हुए सावरकर के नाम का बोर्ड लगाया गया। मगर दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से यह मसला राजनीतिक बन गया और खबरों के अनुसार छात्र संघ की अध्यक्षा ने इसको लेकर अपनी आपत्ति जाहिर की। अगले ही दिन इस बोर्ड को खराब करने की कोशिश शुरू हो गई और उस पर काला रंग डाल कर मोहम्मद अली जिन्ना मार्ग का पोस्टर चिपका दिया गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना पहली नहीं है।

पिछले वर्ष नवंबर में भी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के पास बने स्वामी विवेकानंद की मूर्ति (जिसका अभी अनावरण नहीं हुआ है) पर भी आपत्तिजनक बातें लिखी गई थीं। इन घटनाओं को एक साथ देखें तो ऐसे महान व्यक्तियों, जिनकी सोच वामपंथी नहीं रही है, उनका अपमान के स्तर तक विरोध विश्वविद्यालय की प्रवृत्ति में समाहित होता दिख रहा है।

गैर-राजनीतिक तरीके से सोचें तो ऐसी प्रवृत्तियों को तुरंत नहीं रोका गया तो अपने तर्कों पर भरोसा रखने वाला देश का यह प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय शायद वाद-विवाद और बहस की अपनी परंपरा को खो देगा। अगर देश और दुनिया में देखें तो सड़कों, संस्थानों और शहरों के नाम काफी समय से उन लोगों के नाम पर रखे जाते रहे हैं जिन्होंने देश को बचाने और बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज हम अगर देश के विभिन्न इलाकों को देखें तो हमें इसका प्रमाण मिलता है। दरअसल आजादी के बाद अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अपने विचार के अनुसार नामकरण किए हैं और यह काबिले तारीफ है कि तमाम वैचारिक विरोध के बावजूद भी ऐसे मौके कम ही आए हैं, जब दो वैचारिक प्रतिद्वंद्वी इसको बदलते या नुकसान पहुंचाते हैं। इसके पीछे शायद यह बात रही है कि जब कभी इस तरह से चिन्हों या किसी प्रतिमा के साथ छेड़-छाड़ की गई हो तो आम से लेकर खास सभी लोगों ने दलगत प्रतिबद्धता से ऊपर उठ कर इस पर आपत्ति जताई है।

सभी जानते हैं कि सावरकर के संदर्भ में कांग्रेस के कुछ नेताओं को लेकर वैचारिक मतभेद था और उनकी अपनी एक अलग विचारधारा थी। शायद इसी मतभेद के कारण सावरकर को उनका उचित स्थान मिलना तो दूर, उल्टे उनको लोगों के सामने नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाने लगा। पहला बड़ा अवरोध तब आया जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान सावरकर के चित्र को संसद में जगह मिली और पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डा का नाम वीर सावरकर के नाम रखा गया। वर्ष 2004 में सरकार बदलने के बाद इसमें कोई भी बदलाव तो नहीं किया गया, लेकिन सावरकर को लेकर पूर्वाग्रह खत्म नहीं हुआ। सावरकर के योगदान पर सार्थक बहस की जगह एक निश्चित राजनीतिक दृष्टि हावी रही। उनको हिंदुत्व की राजनीति के पुरोधा की छवि तक सीमित करने का इतना जोरदार प्रयास जारी रहा कि आज भी कम लोग ही आपको यह बता पाएंगे कि आखिर सावरकर को 50 साल की कैद की सजा क्यों हुई थी? सावरकर को कालापानी क्यों भेजा गया?

रिहाई के बाद उन्होंने अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए जो कार्य किए उसका जिक्र भी आम तौर पर नहीं मिलता और ऐसा सिर्फ सावरकर को लेकर ही नहीं है, बल्कि और कई क्रांतिकारियों के साथ हुआ और उन्हें पाठ्यक्रमों एवं चर्चाओं से दूर रखा गया। इस दृष्टि से देखें तो सावरकर के नाम पर सड़क का नामकरण एक अच्छी पहल है, जिसका हमें विरोध नहीं, बल्कि स्वागत करना चाहिए। होना यह चाहिए कि सावरकर को लेकर दोनों पक्षों यानी समर्थकों और विरोधियों के बीच इस पर एक देशव्यापी चर्चा हो। इस विषय पर विश्वविद्यालयों में गोष्ठियां आयोजित करनी चाहिए। साथ ही सावरकर को शैक्षिक पाठ्यक्रम में भी शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि सावरकर के संबंध में लोगों तक सही जानकारी पहुंचाई जा सके।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]