शिवकांत शर्मा: कृषि सुधार कानून आए और चले गए, लेकिन किसानों की चिंता का मुख्य मुद्दा जस का तस है। बीज, खाद, कीटनाशक, बिजली, पानी और मजदूरी की बढ़ती दरों की वजह से खेती की लागत लगातार बढ़ रही है। इसलिए किसान अपनी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी चाहते हैं। एमएसपी की वर्तमान व्यवस्था अव्वल तो सभी राज्यों और सभी फसलों पर लागू नहीं है तिस पर यह सरकारों की इच्छा पर निर्भर है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को इस व्यवस्था से खूब फायदा हुआ है। वहीं बिहार जैसे राज्यों को न इसके होते हुए लाभ मिल रहा था और न ही इसके हटाए जाने से कोई लाभ हुआ है। इसकी एक मुख्य वजह शायद बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जोतों का बहुत छोटा होना है। कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार पंजाब और हरियाणा के किसानों के पास औसतन 14 और 11 बीघा जमीन है वहीं बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के पास औसत जोत मात्र डेढ़ से तीन बीघा। इसीलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के औसत किसानों के पास बेचने के लिए कम उपज ही बचती है और वे खरीदार की सौदेबाजी का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में एमएसपी की कानूनी गारंटी मिलने से छोटी जोत वाले किसानों को भी शायद इसका कुछ लाभ मिले।

कृषि उपज का न्यूनतम मूल्य तय किया जाना कोई नई बात नहीं है। अमेरिका और यूरोप में कृषि उपज के बाजार मूल्यों में गिरावट थामने के लिए किसानों को अपने कुछ खेतों को खाली रखने और जैव-विविधता को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी दी जाती है। भारत में किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए एमएसपी की व्यवस्था है। स्वरूप भिन्न होने के बावजूद बात वही है। हालांकि भारत सरकार को भय है कि एमएसपी की गारंटी से महंगाई बढ़ सकती है, क्योंकि गेहूं, मक्का और धान जैसी फसलों के एमएसपी उनकी अंतरराष्ट्रीय जिंस बाजार कीमतों के बराबर आ चुके हैं। इसलिए उपज की गुणवत्ता और किसानों की उत्पादकता में गिरावट आने का भी खतरा है।

सरकार की सबसे बड़ी चिंता पूरे देश की उपज का एमएसपी तय करने और उस पर आने वाले खर्च की है। वहीं कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों की दलील है कि सरकारी बजट पर इससे कुछ हजार करोड़ का ही अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। यह दलील मान भी ली जाए तब भी देश भर की उपज को किसानों से खरीद कर उसके भंडारण और वितरण की चुनौती बहुत बड़ी है। दुनिया भर की सरकारें इसमें नाकाम रही हैं। उसमें उपज के भारी मात्र में बर्बाद होने और घूसखोरी की गुंजाइश बनी रहती है। सरकारों को केवल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा लायक कृषि उपज को खरीदना और उसका भंडारण करना चाहिए। बाकी काम बाजारों पर छोड़कर नीतियों द्वारा मूल्यों पर नियंत्रण रखना चाहिए।

जिस तरह गन्ना और कपास किसानों को उनकी फसलों का न्यूनतम मूल्य दिलाया जाता है उसी तरह बाकी फसलों के न्यूनतम मूल्य को व्यापारियों से दिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? यह संभव है, परंतु इसके लिए ग्रामीण इलाकों में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेजी से विकास करना होगा। घरेलू उपभोक्ता के साथ-साथ यदि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी कृषि उपज की मांग करने लगेगा तो बाजार में उसकी कीमतें स्थिर रखने में आसानी होगी। इस उद्योग को कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए बड़ी संख्या में शीत-गोदामों की जरूरत होगी। उनके खिलाफ किसान नेताओं और उनके समर्थकों ने एक अनुचित मुहिम छेड़ी हुई है।

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेज विकास इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत का कृषि क्षेत्र विकास दर में सेवा और उद्योग जैसे दूसरे क्षेत्रों की तुलना में लगातार पिछड़ रहा है। देश की आधे से अधिक आबादी के कृषि में संलग्न होने के बावजूद आज अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र 18 प्रतिशत रह गया है। भारत में करीब 14 करोड़ लोगों के पास खेती की जमीन है। उनमें केवल छह करोड़ लोग ही उस पर साल में दो फसलें लेते हैं। उनमें से भी 80 प्रतिशत के पास औसतन तीन बीघा से कम जमीन है। उन्हें गुजर-बसर के लिए खेती से इतर आय के दूसरे साधनों की भी जरूरत है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का विकास ऐसे साधन उपलब्ध करा सकता है।

कृषि क्षेत्र का विकास गांवों और शहरों के बीच बढ़ती आर्थिक विषमता की खाई को पाटने के लिए भी जरूरी है। यह कृषि सुधारों के बिना संभव नहीं। इसके लिए एक नई कृषि क्रांति की जरूरत है। मिट्टी और सिंचाई का वैज्ञानिक प्रबंधन, नकदी फसलों को बढ़ावा, अच्छे बीज सुलभ कराना, बागवानी, वानिकी और मत्स्य पालन को प्रोत्साहन और नई पर्यावरण हितैषी तकनीकों का विकास समय की जरूरत बन चुका है। स्वाभाविक है कि सरकार सारे काम खुद नहीं कर सकती। उनकी पूर्ति के लिए निजी उद्यमों और पूंजी के लिए राह खोलनी होगी। राजनीतिक बिरादरी को उद्यम विरोधी बयानबाजी से भी बाज आना होगा। कृषि जैसे समाज के आधारभूत क्षेत्र को पीछे छोड़कर देश का संतुलित और समावेशी विकास नहीं किया जा सकता। इसके लिए कृषि सुधारों के साथ-साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास जरूरी है। साथ ही किसानों के लिए एमएसपी और उससे भी बढ़कर खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की गारंटी आवश्यक है, क्योंकि एमएसपी गारंटी से बढ़ने वाली खाद्य पदार्थो की महंगाई की सबसे बड़ी मार उन्हीं खेतिहर और गरीब मजदूरों पर ही पड़ने वाली है। इसलिए एमएसपी गारंटी के बदले किसानों से न्यूनतम मजदूरी की गारंटी और जलवायु की रक्षा के लिए पराली जलाने जैसे प्रदूषणकारी काम न करने और खेती में जलवायु की रक्षा का ध्यान रखने का वचन लेना आवश्यक होगा।

एमएसपी गारंटी का मामला कृषि उत्पादकों और उपभोक्ताओं की जरूरतों के बीच संतुलन बिठाने पर भी आधारित है। सरकार को किसानों की आय सुरक्षा के साथ-साथ उपभोक्ताओं की आमराय और सहमति भी जुटानी होगी। कोई लोकतांत्रिक सरकार केवल एक वर्ग की खुशामद कर अधिक दिनों तक नहीं टिक सकती। उपभोक्ताओं का वर्ग किसानों से भी कई गुना बड़ा है। इसलिए समर्थन मूल्य गारंटी जैसी नीति पर आगे बढ़ने से पहले सरकार को उनका ध्यान भी रखना होगा।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)