[ डॉ. महेश भारद्वाज ]। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के रिश्ते हमेशा से ही चर्चा का विषय रहे हैं। इन रिश्तो में समय, स्थान और परिस्थितियों के हिसाब से उतार-चढ़ाव के अलग अलग दौर रहे हैं। भारत में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान नौकरशाही का स्वरूप और प्राथमिकताएं कुछ अलग थीं। आजादी के बाद उनमें धीरे-धीरे बदलाव लाया गया। परिणामस्वरूप आजाद मुल्क में नौकरशाही के काम करने का अपना एक तरीका बना। आजादी के बाद उसे काम करने की काफी कुछ आजादी दी गई। इसके अलावा उसकी सेवा शर्तों को बनाते समय इस बात का विशेष ख्याल रखा गया कि नौकरशाह किसी भी प्रकार के अनावश्यक दबाव में न आएं। नौकरशाही को केवल सरकार के अनावश्यक दबाव से ही बचाने की कोशिश नहीं की गई, बल्कि जनता या फिर निहित स्वार्थों के दबाव को भी उनसे परे रखने की कोशिश की गई। पारंपरिक तौर पर नौकरशाही का यह भारतीय मॉडल बहुत कुछ नौकरशाही के मैक्स वेबेरियन मॉडल के करीब था जो नौकरशाही के तटस्थ रहने की बात करता है। इसमें सरकारी कर्मचारी को सरकारी सेवा के नियमों के अनुसार कार्य करने की सलाह दी जाती है।

इसके विपरीत नौकरशाही का प्रतिबद्ध मॉडल नौकरशाही से सरकार की नीतियों के अनुरूप चलने की बात करता है। भारत में 1975 के आपातकाल तक तो नौकरशाही के तटस्थ रहने की बातें की जाती थी, लेकिन आपातकाल के दौरान सरकारी अधिकारियों से सरकारी नीतियों के प्रति प्रतिबद्धता की अपेक्षा की जाने लगी। दरअसल तबसे ही देश मे तटस्थ और प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा में घालमेल शुरू हो गया। इस घालमेल के चलते सत्ताधारी दलों और नौकरशाहों ने अपने-अपने हिसाब से खूब उलटबाजियां की हैं।

जहां राजनीतिक दल अपनी अलग-अलग विचारधाराओं के आधार पर वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच बंटे रहे वहीं नौकरशाही को भी तटस्थता और प्रतिबद्धता के रूप में दो विकल्प मिल गए हैं। इस तरह नौकरशाहों द्वारा अपनाए गए गए विकल्पों के आधार पर नौकरशाही की मौटे तौर पर तीन श्रेणियां बन गईं। पहली श्रेणी के नौकरशाह सत्ताधारी दल के साथ मिलकर चलने वाले हुए, जिन्हें सरकार बदलने से कोई फर्क नही पड़ता और जो दल राजनीतिक दल सत्ता में आया उसके साथ वे आंख बंद करके हो लिए। दूसरी श्रेणी में तटस्थता को अपना आदर्श मानकर चलने वाले सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हैं। जबकि तीसरी श्रेणी बीच का रास्ता अपनाने वाले हैं। इन्हें मौकापरस्त नौकरशाह के तौर पर भी जाना जाता है। आम धारणा यह है कि ऐसे नौकरशाहों की बन आई है। देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से कभी तटस्थ तो कभी प्रतिबद्ध बन जाते हैं। एक समय पश्चिम बंगाल के नौकरशाहों को वामपंथी नीतियों के प्रति आसक्त पाया जाता था, लेकिन जब वे केंद्रीय सत्ता के तहत काम करते थे तो वे तत्कालीन सरकार की नीतियों के अनुपालन में लग जाते थे। शायद यही कारण है कि कई राज्यों में सत्ता बदलते ही नौकरशाही के रंग-ढंग बदलते नजर आने लगते हैं। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर नौकरशाही का कौनसा मॉडल सबसे उपयुक्त है? इसे लेकर तरह-तरह के तर्क- वितर्क दिए जाते हैं और कई बार नौकरशाहों के मामलों को लेकर बहस कुछ ज्यादा ही विवादास्पद हो जाती है। इस तरह के विवादों की परवाह न करते हुए हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि आखिर नौकरशाही का अस्तित्व है किसके लिए?

यदि नौकरशाही स्वयं अपने लिए अर्थात अपने में ही साध्य है तब फिर उसे जो कानून-कायदे बने हुए हैं उनके हिसाब से चलना चाहिए। नि:संदेह इसमें लकीर का फकीर बने रहना भी शामिल है। कुछ नौकरशाह आज भी इस परिकल्पना को साकार करने में लगे हुए हैं, लेकिन अब इनकी संख्या दिनों-दिन घटती जा रही है। इसका कारण यह है कि सरकारों के एजेंडे में रुकावट बनने पर नौकरशाहों को एक कोने मे बैठा दिया जाता है। दूसरी तरफ नौकरशाही का प्रतिबद्ध मॉडल है। आजकल यही ज्यादा प्रचलन में भी है। ऐसी नौकरशाही के पक्षधर यह दलील देते हैं कि नौकरशाही स्वयं मे साध्य नहीं है, बल्कि सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन का साधन मात्र है और उसे लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों के कामकाज मे अड़ंगा नहीं बनना चाहिए। इस सिलसिले में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों की जनता के प्रति जवाबदेही का तर्क दिया जाता है और यहां तक कहा जाता है कि सरकारों को तो हर पांच साल में जनता के बीच जाना होता है जबकि नौकरशाही के लिए ऐसी किसी जवाबदेही की बाध्यता नहीं है। हालांकि नौकरशाह भी अपने-अपने तरीके से स्वयं को जनता के प्रति जवाबदेह ठहराने में पीछे नहीं हैं। वैसे तो इस बारे में सबके अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन तथ्य यह है कि केवल तर्कों से लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ नहीं किया जा सकता। इसके लिए कम-से-कम इस बात पर तो सहमत होना ही पड़ेगा कि चाहे सरकार हो या नौकरशाही, वह है तो जनता के लिए ही। जब अब्राहम लिंकन ने सदियों पहले लोकतंत्र

की परिभाषा ‘जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन व्यवस्था’ के रूप में दी थी तो उसके केंद्र मे भी जनता-जनार्दन को ही रखा गया था। इसलिए सबसे जरूरी है जन-कल्याण, जिसकी उपेक्षा न कोई निर्वाचित सरकार कर सकती है और न ही नौकरशाही का कोई भी मॉडल।

राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र के आधार पर जन समर्थन पाते हैं और जिन नीतियों को जनता का समर्थन प्राप्त हो उनके मार्ग में किसी के भी बाधा बनने का कोई औचित्य नहीं है। यदि किसी राजनीतिक दल ने एक रुपये किलो चावल अथवा टीवी या स्कूटी देने का वादा किया है और इन वादों के दम पर वह दल सत्ता में आ गया है और वह अपने इन वादों को पूरा भी करना चाहता है तो ऐसे में नौकरशाही के पास जनभावना के अनुरूप न चलने का विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसे वादों को पूरा करने के लिए संसाधनों के प्रबंध में आने वाली कठिनाइयों के बारे में राजनीतिक नेतृत्व को साफ-साफ बताना नौकरशाही की जिम्मेदारी जरूर है ताकि सरकार को आर्थिक स्थिति के बारे मे किसी प्रकार का मुगालता न रहे, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को भी परिपक्वता के साथ वस्तुस्थिति के बारे में सुनने का साहस होना चाहिए। यदि समन्वय का अभाव होगा तो संतुलन बिगड़ेगा और फिर मामला हाथापाई तक भी जा सकता है। राजनीतिक नेतृत्व को यह याद रखना ही होगा कि जनता ने उन्हें किसलिए जनादेश दिया है और जनता के प्रति उनकी क्या जवाबदेही है? 

[ भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी ]