[कैलाश बिश्नोई]। देश में पुलिस सुधारों की तमाम कवायद के बावजूद अभी भी ज्यादातर पुलिसकर्मी ड्यूटी के बोझ से दबे हैं। औसतन 14 घंटे तक पुलिसकर्मियों को ड्यूटी करनी पड़ती है, यह बात सीएसडीएस और कॉमन कॉज की तरफ से जारी रिपोर्ट ‘स्टेटस ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया 2019’ में सामने आई है।

इस रिपोर्ट को 21 राज्यों के बारह हजार पुलिसवालों और उनके परिवार के दस हजार सदस्यों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है। इससे पुलिस विभाग के भीतर महिलाओं और ट्रांसजेंडर्स को लेकर ‘पुरुष’ पुलिसकर्मियों के पूर्वाग्रह, अपराध से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे की जर्जर हालत, आधुनिक तकनीकों की कमी के बारे में पता चलता है।

देश में महिला पुलिसकर्मी महज 7.28 प्रतिशत

इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 46 फीसद पुलिसवालों ने कहा कि उन्हें जब सरकारी वाहन की आवश्यकता थी, तब वाहन मौजूद नहीं था। 41 फीसद मानते हैं कि वे अपराध स्थल पर इसलिए नहीं पहुंच पाए, क्योंकि उनके पास स्टाफ नहीं था। सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार देश में महिला पुलिसकर्मी महज 7.28 प्रतिशत ही हैं। जबकि सरकार ने तय किया है कि हर राज्य में 33 फीसद महिला पुलिसकर्मी होनी चाहिए। लेकिन किसी भी राज्य में यह संख्या पूरी नहीं हुई।

समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सक्षम पुलिस तंत्र का होना जरूरी है। कानून- व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। लेकिन भारतीय पुलिस आज भी 1861 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुलिस अधिनियम के माध्यम से संचालित होती है। पुलिस प्रशासन का मूल काम समाज में अपराध को रोकना और कानून व्यवस्था को कायम रखना है। जबकि ब्रिटिश हुकूमत ने 1861 के पुलिस अधिनियम का निर्माण दरअसल भारतीयों के दमन और शोषण के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया था। इसलिए दमनकारी और शोषणकारी पुलिस अधिनियम की राह पर चलने वाली पुलिस व्यवस्था से स्वच्छ छवि की उम्मीद कैसी की जा सकती है? सच यह है कि इसी कारण से समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम हुआ।

पुलिस बल अत्यधिक कार्यबोझ से दबी हुई 

हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में नाकाम रहे हैं। अधिकांश राज्य कुछ फेरबदल के साथ पुराने भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 का ही पालन करते हैं। हालांकि अब यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि पुलिस अधिनियम, 1861 को किसी ऐसे कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए जो कि भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप और बदले हुए वक्त से मेल खाता हो। पुलिस बल अत्यधिक कार्यबोझ से दबी हुई है।

पर्याप्त पुलिस बल नहीं

एक रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस बल अपनी क्षमता का मात्र 45 प्रतिशत ही राष्ट्र को दे पा रहे हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, जनशक्ति एवं कार्यात्मक स्वायत्तता का अभाव, इसका मुख्य कारण है। संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार प्रति लाख नागरिक पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन भारत में यह आंकड़ा 144 ही है। एक तो पर्याप्त पुलिस बल नहीं है, दूसरे स्वीकृत क्षमता के करीब एक चौथाई पद खाली हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश में पुलिस के लगभग पांच लाख पद खाली पड़े हैं। यही नहीं, देश में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के कुल 4,883 पद अधिकृत हैं, लेकिन इनमें भी 900 से ज्यादा पद खाली हैं। लिहाजा पुलिस पर कार्य बोझ कम करने के लिए रिक्त सभी पदों को भरना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

पुलिस बल पर अक्सर लगाए जातेे है यह आरोप

देश भर में इस विभाग में लगभग 24 लाख कर्मचारी हैं। लेकिन देश का नागरिक पुलिस थाने में कदम रखने से भी कतराता है। उसे यह भरोसा नहीं है कि उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाएगी और उस दिशा में किसी तरह की कार्रवाई भी होगी। दरअसल पुलिस ने जनता का सहयोगी होने के अपने दायित्व को लगभग भुला दिया है। भारतीय पुलिस बल पर यह आरोप अक्सर लगाया जाता है कि यह अनुत्तरदायी तरीके से कार्य करती है। कई घटनाएं यह साबित करती है कि पुलिस या तो अपराध की ओर आंख मूंद लेती है या फिर लापरवाह, अरुचिपूर्ण और अपराध के खिलाफ उत्साहहीन तरीके से कार्य करती है। पुलिस द्वारा अपराध के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने में तमाम तरह के बहाने बनाए जाते हैं।

यहां सवाल यह भी है कि एक औपनिवेशिक मानसिकता से रची-बसी पुलिस व्यवस्था में कैसे नवीन लोकतांत्रिक और संवेदनशील गुण समाहित किए जाएं? इस दिशा में 2006 में पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश व द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं। सर्वोच्च अदालत का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुख होने की ओर था। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है, जो दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक है।

पुलिस भर्ती और प्रशिक्षण के लिए देशव्यापी ‘एक्शन प्लान’

देश भर में पुलिस बलों में पर्याप्त और अपेक्षित कौशल तथा प्रशिक्षण की कमी रही है। ऐसे में वक्त की मांग को समझते हुए पुलिस भर्ती और प्रशिक्षण के लिए देशव्यापी ‘एक्शन प्लान’ बनाने की आवश्यकता है। यह समस्त अभियान तकनीक को केंद्र में रखकर चलाया जाए। एक ऐसे पुलिस वाले से हम ईमानदारी की उम्मीद नहीं रख सकते, जो स्वयं रिश्वत देकर पुलिस में भर्ती हुआ है। इसलिए पूरी भर्ती व्यवस्था में पारदर्शिता लानी होगी। प्रधानमंत्री ने पुलिस प्रशिक्षण में भावनात्मक पक्ष पर जोर दिए जाने की बात को स्वीकार किया है। उनके अनुसार सामान्य मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक मनोविज्ञान को भी पुलिस प्रशिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए।

भारत में पुलिस सुधार कानून एक लंबी बहस का हिस्सा जरूर रहे हैं, लेकिन सुधार ज्यादातर कागजों तक ही सीमित रह गए हैं जिस कारण पुलिस व्यवस्था को निष्पक्ष, कार्यकुशल, पारदर्शी और पूर्णरूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में पुलिस प्रमुखों के एक सम्मेलन में पुलिस को स्मार्ट बनाने की बात की थी। पुलिस को स्मार्ट बनाने की कल्पना से जुड़े ये आदर्श वाक्य हैं- पुलिस संवेदनशील हो, आधुनिक और गतिशील हो, सतर्क और जिम्मेदार हो, भरोसेमंद एवं दायित्व का निर्वहन करने वाली हो और तकनीक में दक्ष व प्रशिक्षित हो।

[अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]