[डॉ. विजय अग्रवाल]। इतिहास कहने से नहीं करने से बनता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन 12 जून को सिंगापुर के सेंटोस रिसॉर्ट पर मिले और इसी के साथ यह क्षण इतिहास का एक हिस्सा बन गया। इस मुलाकात की अपनी-अपनी तरह से व्याख्या की जा रही है। कोई नहीं जानता कि भविष्य में इस मुलाकात की व्याख्या किस रूप में की जाएगी? एक बार एक प्रोफेसर साहब गांधी जी से मिलने पहुंचे और उनके सामने अपने इतिहास ज्ञान का प्रदर्शन करने लगे। कहते हैं कि बापू थोड़ी देर तो सुनते रहे, फिर उकताकर बोले, ‘प्रोफेसर तुम इतिहास पढ़ाते हो और मैं इतिहास बनाता हूं।’ इसी बात को दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जाता है कि इतिहास को पढ़ाने और बताने का जिम्मा इतिहास के शिक्षकों पर छोड़ दिया जाना चाहिए और नेताओं को इतिहास बनाने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ऐसा तब तो और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, जब नेता के पास न तो इतिहास का ज्ञान हो और न ही इतिहास का बोध।

जवाहरलाल नेहरू के पास ये दोनों थे। भारत के इतिहास पर लिखी उनकी किताब इसकी गवाह है। इतिहास में एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत व्याख्या की गुंजाइश होती है, लेकिन नेहरू की पुस्तकें सबसे कम विवादास्पद रही हैं। ऐसा तब हुआ जब वह स्वयं इतिहास को बनाने में शामिल थे और जिनकी आस्था समाजवाद के प्रति थी। इसका मूल कारण यह था कि उनके पास एक वैज्ञानिक-तार्किक दृष्टि थी। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है उनके पत्रों का संकलन जो पिता के पत्र पुत्री के नाम से है। इस सबके बावजूद नेहरू जी के भाषणों में इतिहास के संदर्भ बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। शायद वह यह चाहते रहे हों कि इतिहास का राजनीतिकरण करके उसे प्रदूषित करने के बजाय उसे इतिहास ही रहने दिया जाए। नेहरू ने अपनी राजनीति और अपने इतिहास के ज्ञान के बीच एक मर्यादा रेखा खींच ली थी। आज मर्यादा की यह रेखा गायब हो रही है, जो अकादमिक दृष्टि के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत चिंताजनक है।

इतिहास के मुख्यत: दो भाग होते हैं। पहला-तथ्य और दूसरा-तथ्यों की व्याख्या। इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि तथ्यों की विश्वसनीयता की रक्षा किसी भी कीमत पर की जानी चाहिए। न तो उपलब्ध तथ्यों की उपेक्षा होनी चाहिए और न ही मनगढ़ंत तथ्यों का समावेश किया जाना चाहिए। हां, तथ्यों की व्याख्या के मामले में व्याख्याकार पूरी तरह स्वतंत्र होता है। वह अपने ढंग से उनकी व्याख्या करके अपने निष्कर्ष निकालता है। इतिहास के मामले में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किसी की व्याख्या सत्य के कितने निकट होने का अहसास करा पाती है? उपलब्ध तथ्यों का जितना अधिक उपयोग करके जिस निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है वह दीर्घजीवी होता है। कोई व्याख्याकार केवल उन्हीं-उन्हीं तथ्यों को चुनकर अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्ष को सप्रमाण पुष्ट करके वाहवाही लूट सकता है, लेकिन ऐसा व्याख्याकार इस सत्य की अनदेखी नहीं कर सकता कि इतिहास बहुत निर्मम होता है। वह किसी को भी समय के कूड़ेदान में डाल सकता है।

इतिहास स्वयं इस सत्य का सबसे बड़ा गवाह है। हर विषय और क्षेत्र का अपना-अपना इतिहास होता है। इतिहास के केंद्र में होती है राजनीति। हर काल में राजनीति ने इतिहास का इस्तेमाल अपने हितों के लिए किया है, न कि ज्ञान में वृद्धि के लिए। 19वीं शताब्दी के मध्य से आज तक की यूरोप की राजनीति इसका जीवंत प्रमाण है। हालांकि यूरोपीय देशों को हम अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिक एवं वैज्ञानिक मानते हैं, लेकिन इसी यूरोप में हिटलर इतिहास के दुरुपयोग का चरम था। दरअसल जिसे हम चेतना कहते हैं, उसका सबसे बड़ा भाग इतिहास से ही बनता है। समाजशास्त्र की भाषा में चेतना की इस अभिव्यक्ति को संस्कार और परंपरा के नाम से जाना जाता है। हमारी स्मृतियों में यह इतिहास किस्से-कहानियों, मिथकों, प्रतीकों और नायकों की गाथाओं के रूप में मौजूद

रहता है। राजनीति, विशेषकर लोकतांत्रिक राजनीति स्मृतियोंमें उपस्थित इतिहास के इन्हीं लोक-टुकड़ों को अपने-अपने हिसाब से गढ़कर लोगों को लामबंद करने का काम करती है। जाहिर है कि भले ही वह हवाला इतिहास का दे रही होती है, लेकिन उसका इतिहास के सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता।

यदि अकादमिक जगत इसे घोर इतिहास विरोधी करार दे तो भी उसके माथे पर जरा भी सलवट नहीं पड़ती। वैसे भी यदि एक बार तीर धनुष से छोड़ दिया गया हो तो उसका उद्देश्य पूरा हो जाता है। वह फिर अपने कहे हुए को सिद्ध करने के चक्कर में नहीं पड़ता। इसका एक उदाहरण कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री की ओर से भगतसिंह एवं नेहरू की मुलकात के बारे में उठाए गए एक सवाल से मिला। इस पर इतिहासकारों द्वारा कई प्रश्न पूछे गए, लेकिन उन प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिले। इतिहास के राजनीतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक इस्तेमाल का एक उदाहरण पुणे के भीमा-कोरेगांव की एक घटना में देखने को मिला। 1818 में इस गांव में अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना को पराजित किया था। चूंकि अंग्रेजों की इस सेना में अधिकांश सैनिक महार जाति के थे इसलिए महाराष्ट्र का दलित समुदाय, विशेषकर महार इसे अपने जातीय गौरव से जोड़कर देखते हैं। वे इसे मराठा सत्ता के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं।

इसी साल जनवरी में इस विजय के ‘स्मृति दिवस’ पर हुआ जातीय संघर्ष इतिहास के इसी स्वरूप को लक्षित करता है। जहां यह एक समुदाय के लिए शौर्य की बात है, वहीं दूसरे के लिए लज्जा की। राजनीति चेतना के इसी विभाजन का लाभ उठाती है। जब कभी भिन्न विचार वाली पार्टी सत्ता में आती है तो सबसे पहले उसका ध्यान शैक्षणिक पाठ्यक्रम के तहत इतिहास के विषय पर जाता है। वह कोशिश करती है कि इतिहास उसके राजनीतिक विचारों को सिद्ध एवं सुदृढ़ करने वाला हो। ऐसा किसी पार्टी विशेष के साथ ही नहीं है, बल्कि यह इतिहास एवं राजनीति का एक सार्वभौम शाश्वत रिश्ता है। इस प्रक्रिया को रोकना संभव नहीं लगता, लेकिन एक काम अवश्य ही किया जाना चाहिए और वह यह कि उच्च शिक्षा के स्तर पर अकादमिक जगत को अपनी विश्वसनीयता के साथ किसी भी प्रकार के समझौते से बचने के हर संभव प्रयास करने चाहिए, ताकि इतिहास का सत्य बचा रह सके।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)