नई दिल्‍ली [ उदय प्रकाश अरोड़ा ]। चौदहवीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह नामक एक पुस्तक में चार्वाक से प्रारंभ कर वेदांत तक हिंदू धर्म में सम्मिलित 16 विभिन्न दर्शनों की व्याख्या की थी। प्रत्येक अध्याय में उन्होंने यह बताया था कि कैसे एक विचार दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते हुए भी स्वयं को हिंदू धर्म का ही अंग मानता है।

हिंदू धर्म के मूल तत्व उस वैदिक संस्कृति की देन हैं, जिनका जन्म विभिन्न धाराओं से मिलकर सिंधु-सरस्वती नदी के तट पर हुआ। जिस वर्ण व्यवस्था को इस संस्कृति ने जन्म दिया वह व्यक्ति के कर्म पर आधारित एक प्रकार का सामाजिक विभाजन था। व्यक्ति को अपनी रुचि के अनुसार काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। कर्म या पेशे के मुताबिक ही वर्ण तय किया जाता था। न कोई ऊंचा था न कोई नीचा। स्त्रियों को भी परवर्ती युग की अपेक्षा अधिक आजादी थी। धीरे-धीरे सामाजिक संगठन जटिल होने लगा। वर्णों का स्थान जाति ने ले लिया। ऊंच-नीच का भेद बेतहाशा बढ़ गया। व्यक्ति की श्रेणी उसके कर्म से नहीं, बल्कि जन्म से तय की जाने लगी।

मनुष्य केवल शूद्र ही नहीं, अन्त्यज और अस्पृश्य माना जाने लगा। कर्मकांडों केआडंबर के कारण समाज में पुरोहितों का वर्चस्व बढ़ने लगा। ऐसी स्थिति में हिंदू समाज को आवश्यकता थी सामाजिक-धार्मिक परिवर्तन की। 600-500 ईसा पूर्व के लगभग भारत में ऐसे अनेक आंदोलनों ने जन्म लिया जिन्होंने जाति प्रथा और पुरोहितवाद के खिलाफ आवाज उठाकर सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों को आगे बढ़ाया। इन आंदोलनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने हैं बुद्ध और महावीर के नेतृत्व में प्रारंभ बौद्ध और जैन धार्मिक क्रांति। दोनों ने जातिवाद, यज्ञवाद, पशुबलि हिंसा और पुरोहितवाद का विरोध किया। दोनों ने अहिंसा का मार्ग अपनाया। दोनों ने अहिंसा, तप त्याग और नैतिक नियमों पर बल दिया। अपने उपदेशों के प्रसार के लिए उन्होंने जनता की प्रचलित भाषा पाली और प्राकृत को अपनाया, संस्कृत को नहीं। दोनों का संघर्ष कुप्रथाओं के विरुद्ध था।

कोई नया धर्म प्रारंभ करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। वे धर्मों में सुधार लाना चाहते थे, धर्म से अलग होना नहीं। दलाई लामा बौद्ध धर्म के बारे में प्राय: कहते हैं, ‘यह भारत की अमूल्य निधि है जिसे हम आज आपके पास लाए हैं। कभी आपके आचार्यों ने तिब्बत को इसे उपहार स्वरूप प्रदान किया था। हमने एक हजार वर्षों तक उसे संभालकर रखा। जब यह भारत में विलुप्त होने लगा तब हम उसे पुन: जीवन प्रदान करने के लिए आपको दे रहे हैं।’

जो काम महात्मा बुद्ध और वर्धमान महावीर ने किया वही मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने किया। उस समय कबीरदास क्रांतिकारी संत के रूप में सामने आए। उन्हें इसका श्रेय जाता है कि हिंदू धर्म का जो नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था उसे उन्होंने अन्य वर्ग तक पहुंचाया। कबीर की परंपरा में जो संत सुधारक हुए उनमें नानक, रैदास, सुंदरदास, दादूदयाल, मलूकदास और धरणीदास के नाम विशेष रूप से जाने जाते हैं। इनमें कोई भी संत ब्राह्मण कुल में नहीं पैदा हुआ। इसी समय सिख धर्म ने जन्म लिया। सामान्य हिंदू ने सिखों को कभी भी अपने धर्म से अलग नहीं माना। पश्चिमोत्तर भारत की ओर से हुए बाहरी आक्रमणों के दौरार्न हिंदुओं ने सदैव उन्हें हिंदू धर्म के रक्षक के रूप में देखा।

आधुनिक युग में पश्चिमी विचारकों से प्रभावित जिन हिंदू सुधारकों का उदय हुआ उनका उद्देश्र्य हिंदू धर्म का मूल्यांकन सामाजिकता की कसौटी पर करना था। राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, दयानंद, रामकृष्ण, विवेकानंद आदि के नेतृत्व में जिस हिंदू नवोत्थान का विकास हुआ उसने जाति प्रथा के विरोध, विधवा विवाह के समर्थन, स्त्री शिक्षा के प्रसार और बाल विवाह के विरोध में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यह राममोहन राय के ही प्रयत्नों का परिणाम था कि 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित करके उसके विरुद्ध कड़ा कानून बनाया।

19वीं सदी के नवोत्थान ने हिंदू धर्म में तर्क और विवेक की प्रधानता, संसार की सत्यता और मनुष्य के विश्वास को बढ़ाया। दुर्भाग्य की बात है कि 19वीं सदी में समाज सुधारकों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए जो आंदोलन छेड़े वे सदी के अंत तक स्थगित से हो गए और 20वीं सदी के प्रारंभ से यह सोच पैदा होने लगी कि पहले राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना जरूरी है, धार्मिक और सामाजिक सुधारों की लड़ाई आजादी के बाद भी प्रारंभ की जा सकती है। दुष्परिणाम सामने है। राजनीतिक स्वतंत्रता तो हमने पा ली, किंतु सामाजिक एकीकरण और धार्मिक सद्भाव का काम थमा रहा।

परिणाम यह है कि जाति प्रथा, सांप्रदायिकता और अंधविश्वास देश के विकास को रोके हुए है। और भी अजीब बात यह है कि जो संगठन हिंदू समाज को मजबूत बनाने के लिए बने थे वे आज हिंदू समाज से अलग होना चाहते हैं। हिंदुत्व की रक्षा करने में जितनी मुसीबतें आर्य समाज ने झेलीं उतनी और किसी संस्था ने नहीं। एक तरह से उत्तर भारत र्में हिंदुओं को प्रगतिशील बनाने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। एक समय यही आर्य समाज संस्था यह प्रमाणित करने में जुटी कि वह हिंदुओं से अलग एक अल्पसंख्यक धर्म है। दिल्ली और कलकत्ता के उच्च न्यायालयों से आर्य समाज ने अल्पसंख्यक दर्जा मांगा। उसका आवेदन खारिज हुआ और इस तरह न्यायपालिका ने हिंदू समाज को बचा लिया।

विवेकानंद ने अपनी वाणी और करनी से यह अभिमान जगाया कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं और हमारा धर्म ऐसा है जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है, लेकिन उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने 1980 में यह दलील दी कि वह हिंदू नहीं है। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि रामकृष्ण मिशन हिंदू धर्म का ही एक अंग है। इसके बाद जनवरी 2014 में संप्रग सरकार ने जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया। हजारों वर्ष तक खुद को हिंदू समाज का हिस्सा मानने वाले अकस्मात उससे अलग हो गए।

अब शिव पूजक लिंगायत समाज हिंदू धर्म से अलग होने को तत्पर है, जबकि लिंगायत मत के संस्थापक विवेकानंद और दयानंद सरीखे समाज सुधारक थे। उन्होंने जाति प्रथा, मूर्ति पूजा और बहुदेववाद का विरोध किया। रामकृष्ण मिशन, आर्यसमाज, जैन और लिंगायत समाज की संस्थाओं के अधीन अनेक मंदिर, अस्पताल, शिक्षा संस्थाएं, धर्मशालाएं है। लगता है कि ये नहीं चाहते कि उनकी इन संस्थाओं पर सरकार का हस्तक्षेप हो। जो भी हो, यह अल्पसंख्यकवाद वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा के विपरीत है। हिंदू समाज को फिर से आवश्यकता है किसी मध्वाचार्य, कबीर, दयानंद या विवेकानंद की और सामाजिक-धार्मिक सुधार की।

(लेखक जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं)