बलबीर पुंज। पवित्र काशी के ज्ञानवापी परिसर का न्यायिक वीडियो सर्वेक्षण सार्वजनिक विमर्श में है। 16 मई को इसके परिसर में अधिवक्ता आयुक्त की कार्यवाही के दौरान प्राचीन शिवलिंग मिलने के दावे के बाद संबंधित क्षेत्र पर अदालती प्रतिबंध है। मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन है। जबसे इसे लेकर सुनवाई प्रारंभ हुई है, तबसे 1991 का पूजास्थल (विशेष प्रविधान) अधिनियम भी चर्चा में है। इसे तत्कालीन नरसिंह राव सरकार द्वारा संसद से पारित कराया गया था। इसका उल्लेख वामपंथी-सेक्युलर वर्ग यह कहते हुए कर रहा है कि यह संसद से पारित कानून है। इसे चुनौती देना लोकतंत्र-संविधान का अपमान है।

यदि ऐसा है तो फिर 2019 में संसद से पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ इसी जमात ने देश के कई क्षेत्रों को हिंसा की आग में क्यों झोंका? ज्ञानवापी मामले में हिंदू पक्ष पूजास्थल अधिनियम की वैधानिकता पर प्रश्न उठा रहा और उसे निरस्त करने की मांग कर रहा है। इसे सेक्युलर-लिबरल कुनबा सांप्रदायिक बता रहा है। गौर करें कि यही कुनबा संसद से पारित तीनों कृषि सुधार कानूनों पर क्या कह रहा था? क्या यह सत्य नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी से राजनीतिक-वैचारिक विरोध के कारण हजारों की भीड़ ने इन प्रगतिशील कानूनों को काले कानून बताकर दिल्ली के सीमांत रास्तों को एक वर्ष तक अवरुद्ध किया? यह स्थिति तब थी, जब 85.7 प्रतिशत किसान संगठनों ने इन कानूनों का समर्थन किया था। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं रही।

देश ने गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक लालकिले पर नंगी तलवारों और धारदार हथियारों के साथ भीषण उन्माद देखा। इन उन्मादियों ने ट्रैक्टरों पर सवार होकर पुलिसकर्मियों को रौंदने का प्रयास किया। कुछ प्रदर्शनकारियों की तख्तियों, परिधानों और वाहनों पर खालिस्तानी जरनैल सिंह भिंडरांवाले की तस्वीरें दिखीं। इसके अलावा दलित लखबीर की सिख पंथ की कथित बेअदबी के आरोप में निर्मम हत्या देखी। आंदोलनस्थल पर एक महिला से दुष्कर्म की खबर भी सुनी। ऐसे माहौल में जब प्रधानमंत्री ने देखा कि देशविरोधी शक्तियों की लामबंदी हो रही, उन्हें विदेश से वित्तपोषण हो रहा है और वह राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए खतरा बन रहा है तो वह कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने हेतु बाध्य हो गए।

जब समाज के एक वर्ग की अनैतिक आपत्ति पर सरकार ने उपयोगी कृषि कानूनों को निरस्त कर दिया तो ज्ञानवापी सर्वेक्षण को लेकर हिंदू पक्ष द्वारा 1991 के पूजास्थल अधिनियम की नीयत पर सवाल खड़े करना या उसे निरस्त करने की मांग करना अपराध कैसे हुआ? यह अकाट्य सत्य है कि 1991 का यह अधिनियम हिंदुओं को उनके ध्वस्त पूजास्थलों को वापस पाने के अधिकार और वहां पूजा-अर्चना से वंचित करने का दूषित प्रयास था, जो वामपंथियों और स्वघोषित सेक्युलरिस्टों द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण और सनातन संस्कृति विरोधी मानसिकता से प्रेरित था।

पुरातन ज्ञानवापी परिसर, 'सत्य को साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती' की उक्ति का सबसे जीवंत उदाहरण है। मंदिर संरचना में नंदी का मुख बीते साढ़े तीन शताब्दियों से विपरीत दिशा की ओर होना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, क्योंकि हिंदू मान्यता/आस्था के अनुसार किसी भी शिवालय में शिवलिंग/शिवमूर्ति की ओर देखते हुए ही नंदी की प्रतिमा होती है। काशी का प्राचीन मंदिर 1194 से 1669 के बीच कई बार इस्लामी आक्रमण का शिकार हुआ, लेकिन वह हर बार हिंदू प्रतिकार का साक्षी भी बना। औरंगजेब ने जिहादी फरमान जारी कर प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करके उसके अवशेषों से मस्जिद बनाने का आदेश दिया। इसका मकसद केवल पराजितों को अपमानित करना था। इसी सोच के साथ औरंगजेब ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा स्थित मंदिर को भी ध्वस्त किया। जब ज्ञानवापी परिसर में अदालत निर्देशित सर्वेक्षण पर कथित वजूखाने में प्राचीन शिवलिंग के प्रमाण मिले, तो एक वर्ग की ओर से हिंदू संस्कृति पर कुठाराघात करते हुए घृणित टिप्पणियां की गईं। इनमें से कोई भी उस प्रकार की नृशंसता का शिकार नहीं हुआ, जैसे ईशनिंदा के नाम पर फ्रांसीसी शिक्षक सैमुअल पैटी और कमलेश तिवारी हुए थे।

इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मंदिरों/मूर्तियों को तोडऩे की मानसिकता का सटीक उल्लेख 'तारीख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी' पुस्तक में मिलता है। इसके अनुसार जब गजनवी को एक पराजित हिंदू राजा ने मंदिर ध्वस्त न करने के बदले अकूत धन देने की पेशकश की, तब उसने कहा था, 'हमारे मजहब में जो कोई मूर्तिपूजकों के पूजास्थल को नष्ट करेगा, वह कयामत के दिन बहुत बड़ा इनाम पाएगा और मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है...।' इस तरह का उल्लेख इस्लामी आक्रांताओं के समकालीन इतिहासकारों या उनके दरबारियों द्वारा लिखे विवरण में सहज मिल जाता है। औरंगजेब के खूनी इतिहास पर लिखी गई 'मआसिर-ए-आलमगीरी' भी इसका एक प्रमाण है।

क्या किसी समाज को न्याय से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाए, क्योंकि उससे विवाद उत्पन्न होगा? हम जानते हैं कि भारतीय समाज शताब्दियों तक अस्पृश्यता सहित कई कुरीतियों से अभिशप्त रहा है। जनजागृति के कारण आज उन पर एक बड़ी हद तक लगाम लगी है। भारतीय समाज ने ऐतिहासिक अन्यायों-गलतियों को सुधारने और उन पर पश्चाताप करने हेतु दलितों-वंचितों के लिए आरक्षण व्यवस्था की तो दहेज, कन्या भ्रूण-हत्या आदि के संदर्भ में कई प्रभावी कानून बनाए। इस पृष्ठभूमि में वृहद हिंदू समाज ने इस्लामी राज में जो असंख्य अन्यायपूर्ण कृत्य झेले, उनके परिमार्जन में आखिर समस्या कहां आ रही है?

नि:संदेह अतीत में विदेशी आततायियों द्वारा इस्लाम के नाम पर किए गए अत्याचारों के लिए वर्तमान भारतीय मुसलमानों को कोई भी दोष नहीं दे सकता, किंतु जब इस समाज का एक वर्ग स्वयं को कासिम, गजनवी, गोरी, बाबर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, जिन्ना, इकबाल आदि से जोड़ता है और उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानता है तो फिर बात बिगड़ती है। इस स्थिति के लिए माक्र्स-मैकाले मानसबंधु भी बराबर के जिम्मेदार हैं, जो दशकों से मुस्लिम समाज को उनकी मूल सांस्कृतिक जड़ों के स्थान पर इस्लामी आक्रांताओं से चिपकाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। ऐसा करके वे लोगों को गुमराह करने के साथ ही देश को घातक नुकसान भी पहुंचा रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)