[ तरुण गुप्त ]: ऑस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेट टीम की अविस्मरणीय विजय ऐसी रही कि उसके लिए तमाम उपमा एवं अलंकार भी कम पड़ जाएं। हाल में इस पर इतना लिखा जा चुका है कि एक आम जानकार को भी इस उपलब्धि की महत्ता का अंदाजा हो गया होगा। इस टेस्ट शृंखला में मिली जीत देश के सबसे लोकप्रिय खेल की सर्वकालिक महत्वपूर्ण सफलताओं में शामिल हो गई है। दुनिया भर के खेल प्रेमियों को कांटे की टक्कर वाले मुकाबले की चाह रहती है। इससे ज्यादा उबाऊ कुछ नहीं होता कि एकतरफा मुकाबले में कोई एक पक्ष दूसरे को चारों खाने चित कर दे। कालांतर में टेस्ट क्रिकेट इस नीरस वर्चस्ववाद से पीड़ित रहा, जहां शीर्ष टीमों ने अपनी घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाने में तो महारत हासिल कर ली, परंतु विदेशी दौरों पर लगातार औंधे मुंह गिरती रहीं। इस रुझान को पलटने के लिए प्रतिभा के साथ ही जज्बे की भी उतनी ही दरकार थी। मौजूदा भारतीय टीम ने इन दोनों ही भावों का प्रचुरता से प्रदर्शन किया है।

ऑस्ट्रेलिया में मिली बड़ी जीत

ये मुकाबले बेहद रोमांचकारी रहे। करीब दो महीने के दौरे के अंतिम क्षणों तक कोई भी तीन परिणाम संभव थे। यदि हम टेस्ट क्रिकेट की लोकप्रियता को लंबे अर्से तक कायम रखना चाहते हैं तो हमें गुलाबी गेंद वाले डे-नाइट मैचों से अधिक इस तरह के मुकाबलों की कहीं अधिक आवश्यकता होगी। आखिर यह जीत कितनी बड़ी है? मैं इसकी तुलना 1983 में मिली विश्व कप विजय से करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूं। 1983 की विजय हमारे जीवन का निर्णायक पड़ाव थी, जिसने इस देश में खेलों को लेकर नजरिया ही बदल दिया। परिस्थितियों और इसके स्वरूप को देखें तो यह उपलब्धि भी उससे कमतर नहीं।

क्रिकेट वास्तव में एक टीम गेम है

एक क्रिकेट टीम के रूप में शुरुआत से ही हमारे पास विश्वस्तरीय खिलाड़ी रहे हैं। पिछले पचास वर्षों में हमारी टीम में दुनिया के सबसे प्रभावी स्पिनर रहे। 1970 और 1980 के दशक में हमारे पास महान सुनील गावस्कर और कपिल देव थे। ये दोनों अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज और तेज गेंदबाजी करने वाले हरफनमौला थे। पिछली सदी के आखिरी दशक से लेकर नई सदी के पहले दशक में हमारे पास संभवत: सबसे मजबूत बल्लेबाजी क्रम रहा जिसके सिरमौर महान सचिन तेंदुलकर थे। वैयक्तिक उत्कृष्ट प्रदर्शनों के बावजूद एक टीम के रूप में हम कभी उतनी सफलता अर्जित न कर सके, जितनी अपेक्षित थी। इन विसंगतियों की व्याख्या इसी सरल तर्क से हो सकती है कि क्रिकेट वास्तव में एक टीम गेम है, जहां वैयक्तिक कौशल आवश्यक अवश्य होता है, परंतु अक्सर पर्याप्त नहीं रहता।

प्रतिद्वंद्वी के दुर्ग में भारत ने दुर्गम वापसी का जीवट दिखाया

यह जीत कुछ अलहदा किस्म की है और यही इसे विशिष्ट बनाती है। यह समग्रता की महत्ता बताती है। एक टीम जो पहले टेस्ट में 36 रनों के अपने अभी तक के सबसे न्यूनतम स्कोर पर सिमटकर मटियामेट हो गई थी। जिसके आधे से अधिक प्रमुख खिलाड़ी घायल हो गए और उसका कप्तान और सबसे बेहतरीन बल्लेबाज पितृत्व अवकाश पर चला गया। जिसका गेंदबाजी अमला अनुभवहीन नौसिखियों से भरा हो, जिसमें करीब-करीब पदार्पण करने वाले खिलाड़ी ही रहे। हम घायल अवश्य थे, परंतु हमारे हौसले पस्त नहीं हुए थे। जवाबी हमले के लिए सबसे दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी के दुर्ग में ही हमने एक असंभव स्थिति से निकलकर दुर्गम वापसी का जीवट दिखाया। क्या यह किसी परीकथा जैसा नहीं था?

विस्मित करने वाली जीत

टेस्ट क्रिकेट में पहले भी हमने विस्मित करने वाली विजय हासिल की हैं, फिर भी वे वैयक्तिक उत्कृष्टता के परिणाम अधिक थे, जिसमें निजी पराक्रम को नया आयाम मिला। हमने 2018-19 में भी ऑस्ट्रेलिया में शृंखला जीती थी, लेकिन तब उस टीम में स्टीव स्मिथ और डेविड वॉर्नर नहीं थे और लाबुशाने भी एक बल्लेबाज के रूप में स्थापित नहीं हुए थे, जैसे वह आज हैं। इस बार ऑस्ट्रेलियाई तरकश में उसके सभी तीर मौजूद थे। वहीं मैदान में हमारी प्रथम वरीयता वाली एकादश भी नहीं उतर सकी। बेंच स्ट्रेंथ की ताकत का इससे बेहतर और कोई प्रदर्शन नहीं हो सकता। इस सफलता का श्रेय हम किसे दें? शांतचित्त रहाणे को जिन्होंने अत्यंत खस्ता हालात से कमान संभाली। उन्होंने अपने प्रख्यात पूर्ववर्ती जितना ही जोश एवं जुनून दिखाने के साथ ही कहीं अधिक संतुलन का परिचय दिया। क्या दूसरे टेस्ट में उनके शतक ने कायाकल्प करने का काम किया या फिर दृढ़ता की प्रतिमूर्ति बने पुजारा ने, जिन्होंने दूसरे बल्लेबाजों की ढाल बनकर शृंखला में करीब 1000 गेंदों का सामना करके गेंदबाजों को थकाया। उन्होंने बिना आह किए अपने शरीर पर हमलों को झेला और दिखाया कि भले ही उनमें करिश्मे का अभाव हो, लेकिन इसकी भरपाई वह अपनी तकनीक और विकेट पर टिके रहने की उस क्षमता से कर देते हैं जो टेस्ट क्रिकेट की सबसे बड़ी थाती मानी जाती है या फिर अनुभवी अश्विन और जडेजा का प्रशस्तिगान करें, जो शुरुआती मैचों में निखरकर सामने आए या फिर बुमराह की पैनी गेंदों को श्रेय दें, जो कुछ ही वर्षों में भारतीय गेंदबाजी की धार बनकर उभरे हैं। इन सबके बीच पदार्पण करने वाले शुभमन गिल, सिराज, शार्दुल ठाकुर और वाशिंगटन सुंदर की असंदिग्ध क्षमताओं और समर्पण पर क्या ही कहा जाए? यह पटकथा स्वप्न सरीखी लगती है। वहीं रिषभ पंत के साथ तो कोई विशेषण न्याय ही नहीं कर पाएगा? क्या इस युवा प्रतिभा को अपनी क्षमताओं का कोई और साक्ष्य देने की दरकार है?

युवा टीम ने अपने कौशल कौशल, लक्ष्य पर निगाहें और उसे हासिल करने की दिलेरी को दर्शाया

इसमें कई नामों का उल्लेख छूट गया, पर वे भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। किसी टीम की जीत वास्तव में इसी तरीके से होनी चाहिए। यह उस सितारा संस्कृति से उलट है जो ऐतिहासिक रूप से भारतीय क्रिकेट की पहचान रही है। इस युवा टीम ने अपने कौशल, लक्ष्य पर निगाहें और उसे हासिल करने की दिलेरी को दर्शाया। उसे सफलता के मुहाने पर पहुंचने और अंतिम बाधा पार करने के बीच का अंतर बखूबी मालूम था। क्या अतीत में यही हमारी दुखती रग नहीं थी? यह युवा जोश और परिपक्वता का अद्भुत मिश्रण है, जो युवाओं को लेकर तमाम वर्जनाओं को तोड़ता है।

अभी और मोर्चे फतह करने हैं

अभी हमें और मोर्चे फतह करने हैं। सेना (दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया) देशों में हमें अपने प्रदर्शन में निरंतरता कायम रखनी होगी ताकि टेस्ट क्रिकेट के सरताज का ताज हमारे सिर पर कायम रहे। फिलहाल इस लम्हे का लुत्फ उठाइए, क्योंकि खेलों की दुनिया में ऐसे पलों का अनुभव कभी-कभार ही होता है। यही वह भाव है जिसके लिए आप कोई खेल खेलते-देखते अथवा पढ़ते हैं और हम उसके विषय में लिखते हैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक हैं ]