[ जी पार्थसारथी ]: रविवार को श्रीलंका में हुए वीभत्स आतंकी हमले ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इस हमले में अब तक 290 से अधिक लोग मौत का निवाला बन चुके हैं और सैकड़ों घायल लोगों में से तमाम अभी भी जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। मृतकों में भारतीय भी शामिल हैं। समूचा श्रीलंका गमगीन है। वहां राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर दिया गया है। राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेन ने इन हमलों की जांच के लिए तीन सदस्यीय आयोग गठित कर दिया है। हालांकि अभी तक इस हमले से जुड़ी बहुत सी बातें स्पष्ट नहीं हुई हैं, लेकिन शुरुआती ब्योरे के अनुसार व्यापक रूप से इसे एक चरमपंथी हमला माना जा रहा है। इस हमले के बाद दक्षिण एशिया सहित समूची दुनिया में समीकरण बदल सकते हैं। अविश्वास, आशंका और असुरक्षा का भाव और बढ़ सकता है। चूंकि श्रीलंका भारत का निकट पड़ोसी देश है तो उसके लिए इस घटना के और भी गहरे निहितार्थ हैं। दक्षिण एशिया में अपनी भौगोलिक एवं भू-राजनीतिक स्थिति के कारण भी भारत इससे जुड़े खतरों की अनदेखी नहीं कर सकता।

सबसे पहले तो इस हमले से जुड़ी कड़ियों को जोड़ना होगा। रविवार को श्रीलंका में चर्चों और होटलों में सिलसिलेवार आत्मघाती हमलों को अंजाम दिया गया। अभी तक इन हमलों की जिम्मेदारी औपचारिक रूप से किसी संगठन ने नहीं ली है, लेकिर्न ंहसा के स्तर और उसके स्वरूप को देखते हुए इन्हें आतंकी हमला ही माना जा रहा है। इसके लिए ईसाइयों के त्योहार ईस्टर को चुनकर चर्चों और कुछ विशेष होटलों को निशाना बनाने से यह संदेह और गहरा जाता है। आतंकी इससे भलीभांति वाकिफ थे कि त्योहार की वजह से चर्चों में भारी भीड़ होने से वे अधिक से अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं। उन्होंने उन होटलों को निशाना बनाया जहां मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय सैलानी ही ठहरते हैं जिनमें अमेरिका और यूरोपीय देशों के नागरिकों की अच्छी खासी तादाद होती है। इस हमले में शक की सुई कई संगठनों की ओर मुड़ रही है, लेकिन मुख्य रूप से नेशनल तौहीद जमात का नाम ही सामने आ रहा है। श्रीलंका सरकार के प्रवक्ता ने भी इसकी पुष्टि की है। अगर ऐसा है तो यह और भी बड़ी चिंता की बात है, क्योंकि इस संगठन का एक धड़ा तमिलनाडु में भी सक्रिय बताया जा रहा है। ऐसे में भारत को और भी अधिक सतर्क रहने की जरूरत है। इन कड़ियों को जोड़ने की कवायद में हमें कैलेंडर को कुछ पीछे भी पलटना होगा।

कुछ दिन पहले न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में जुमे की नमाज के दौरान एक बंदूकधारी ने हमला किया था जिसमें पचास से अधिक मुसलमान मारे गए थे। उसके बाद जिस तरह यह हमला किया गया उसे एक तरह से क्राइस्टचर्च का जवाब ही माना जा रहा है। वैश्विक स्तर पर चल रही धार्मिक-वैचारिक खींचतान भी इसकी एक वजह हो सकती है। पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर बन रही धारणा से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनाव बढ़ा है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इस्लाम के नाम पर द्वंद्व और बढ़ा है। उधर सीरियाई संकट के बाद यूरोपीय देशों पर बढ़े शरणार्थियों के बोझ ने भी कई देशों में सामाजिक तानाबाना बिगाड़ने का काम किया है। इसे लेकर कई यूरोपीय देशों में आक्रोश है। संभव है कि अपने खिलाफ मुखर हो रही ऐसी आवाजों को जवाब देने की अभिव्यक्ति के रूप में यह हमला किया गया हो। अगर ऐसा है तब भी यह एक और गुत्थी उलझ जाती है कि आतंकियों ने अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए श्रीलंका का ही चुनाव क्यों किया?

इसके लिए श्रीलंका की आंतरिक स्थिति पर गौर भी करना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की ही तरह श्रीलंकाई समाज में भी कई विभाजक रेखाएं हैं। यह द्वीपीय देश कई धार्मिक और सामजिक पहचानों पर विभाजित है। श्रीलंका से बहुसंख्यक बौद्धों की दबंगई की खबरें रह-रहकर आती रहती हैं। उनके दूसरे लोगों के साथ संघर्ष होते रहे हैं, लेकिन धार्मिक आधार पर ऐसा भीषण रक्तपात नहीं हुआ जैसा रविवार को देखने को मिला। यहां मुस्लिम आबादी बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन फिर भी कुल आबादी में उनकी संख्या दस प्रतिशत है। हिंदुओं (तमिलों) की करीब 12 फीसद और ईसाइयों की लगभग सात फीसद। शेष सिंहल हैैं जो बौद्ध मत के अनुयायी हैैं। इन हमलों को जिस तरह अंजाम दिया गया उनसे साफ है कि आतंकियों को स्थानीय मदद जरूर मिली होगी। जिन लोगों के नाम सामने आ रहे हैं उनसे भी यह स्पष्ट है कि हमलों में स्थानीय लोगों की मिलीभगत रही। ऐसे में यह पड़ताल भी करनी होगी कि आखिर किन कारणों से उन्होंने ऐसा किया? क्या उन्हें धर्म के नाम पर बरगलाया गया या फिर आर्थिक लोभ के चलते उन्होंने ऐसा किया?

राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे श्रीलंका से बीते कुछ समय में मिले संकेत शुभ नहीं कहे जा सकते। बीते दिसंबर में यर्हां ंहसक वारदातें हुई थीं। जहां तक इस्लामिक पहचान के आधार पर संघर्ष की बात है तो हाल में थाईलैंड और म्यांमार में भी ऐसा देखने को मिला। म्यांमार में तो मुसलमानों को खदेड़ने से पड़ोसी देशों में शरणार्थियों की एक नई समस्या पैदा हो गई। श्रीलंका के भयावह घटनाक्रम ने नए संघर्षों की एक जमीन तैयार की है जो दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं हैं। इस इलाके से भारत के रिश्ते न केवल अहम हैं, बल्कि उनसे पुराना सांस्कृतिक जुड़ाव भी है। इस रूह कंपा देने वाले आतंकी हमले के तार विदेशों से भी जुड़ते दिख रहे हैं। श्रीलंका सरकार ने हमलों की साजिश का तानाबाना विदेश में बुने जाने की बात कही है। इससे आतंक को पालने-पोसने वाले देशों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक है।

आतंक के मामले में पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका से पूरी दुनिया परिचित है। श्रीलंका में कुछ लोगों को यह आशंका सताती रही है कि पाकिस्तानी तत्व स्थानीय मुसलमानों को भड़काते हैं। पाकिस्तान तत्वों से आशय डीप स्टेट यानी फौज और आइएसआइ की जुगलबंदी से है। जाहिर है कि इस जघन्य हमले के बाद पाकिस्तान पर पहरेदारी और कड़ी होगी। हालांकि पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर शिकंजा कसा है जिसे पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समर्थन भी मिला है। इसमें कई देशों ने न केवल भारत का समर्थन किया, बल्कि पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद में घेरने का व्यूह भी रचा। अगर श्रीलंका की घटना से आतंकियों के पस्त पड़े हौसले को बल मिलता है तो ये सभी प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे और इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता को बड़ा झटका लग सकता है।

संकट की इस घड़ी में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी श्रीलंका के साथ खड़ी है। भारत सरकार ने भी अपने पड़ोसी देश को हरसंभव मदद का आश्वासन दिया है। खुद दशकों से आतंक का दंश झेल रहा भारत अपने मित्र देश की पीड़ा को बखूबी समझ सकता है। अब समय आ गया है कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जगत एकजुट होकर निर्णायक प्रहार करे, अन्यथा ऐसे हमलों की पुनरावृत्ति होती रहेगी।

( लेखक पूर्व राजनयिक एवं जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के चांसलर हैं )