[मनीष खेमका]। मोदी सरकार के टैक्स एमनेस्टी, नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों के बाद करदाताओं का कुनबा तेजी से बढ़ रहा है। ताजा आंकड़ा आठ करोड़ रिटर्न को पार करने वाला है। वित्त वर्ष 2016-17 में 5.43 करोड़ रिटर्न दाखिल हुए थे। नोटबंदी के बाद यह संख्या अप्रत्याशित रूप से एक करोड़ से ज्यादा बढ़ कर 6.84 करोड़ हो गई। मोदी सरकार के प्रयासों से करदाता बढ़े हैं और इसी के साथ उन्हें मिलने वाली सहूलियतें भी। हाल में कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने आयकर विभाग और करदाताओं के बीच विवाद को कम करने और आम करदाताओं को राहत देने के लिए एक बड़ा फैसला लिया, जिससे 5600 करोड़ के टैक्स विवाद एक झटके में समाप्त हो गए।

इस फैसले के तहत आयकर विभाग अब 20 लाख रुपये अथवा इससे अधिक के कर विवादों को ही अपीलीय न्यायाधिकरणों में ले जा सकेगा। पहले यह राशि 10 लाख रुपये थी। साथ ही हाईकोर्ट में अपील की सीमा 20 लाख से बढ़ाकर एक करोड़ कर दी गई। सीबीडीटी चेयरमैन ने भी सरकार की मंशा के अनुरूप आयकर विभाग के सभी क्षेत्रीय प्रमुखों को पत्र लिखकर करदाताओं की शिकायतों के शीघ्र निवारण की हिदायत दी। आज दुनिया में आयकर की सबसे कम प्राथमिक दर भारत में है। ढाई लाख रुपये तक सालाना आयकर से मुक्त और पांच लाख रुपये तक सिर्फ दस प्रतिशत आयकर है। करदाताओं की तेजी से बढ़ती संख्या के मद्देनजर केंद्र सरकार उन्हें तकनीकी सहूलियतें देने और भ्रष्ट तंत्र के उत्पीड़न से बचाने के ईमानदार प्रयास कर रही है। इसके बावजूद करदाताओं से जुड़े मूल मुद्दों का सुलझना शेष है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेता करदाताओं को मतदाताओं जितना भी राजनीतिक महत्व नहीं देते। यह शायद इसलिए है, क्योंकि अपने देश में नारेबाजी की राजनीति से प्रेरित सरकारी नीतियां गरीबों को नहीं गरीबी को प्रोत्साहित करती हैं। करदाताओं के पैसों से कर्ज माफी, सब्सिडी और मुफ्त उपहार जैसे राजनीतिक प्रलोभन देकर सत्ता हासिल करना भारत में भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आता। कोई कुछ न करता हो तो उसके लिए दो-तीन रुपये में अनाज उपलब्ध है और शिक्षा, स्वास्थ्य, शौचालय आदि कई सुविधाएं मुफ्त। बेराजगारी भत्ते समेत अनेक अनुदान और सब्सिडी तो हैं ही, चुनावी घोषणापत्रों से बंटने वाली रेवड़ियां भी हैं। करदाताओं को प्रोत्साहित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं दिखता।

बिना सरकारी मदद के अपनी पूंजी, मेहनत और जोखिम से कोई काम करना चाहे, करदाता बनना चाहे तो उसे हतोत्साहित करने के लिए ढेरों विभाग और कानून हैं। ऐसी स्थिति में स्वेच्छा से करदाता बनकर देश को देना भला कौन करना चाहेगा? सिंगापुर, ब्रिटेन, अमेरिका और न्यूजीलैंड जैसे देशों में करदाताओं की संख्या 30 से 70 प्रतिशत तक है, जबकि भारत में यही संख्या 5-6 प्रतिशत पर ही अटकी हुई है। नोटबंदी से पहले मोदी सरकार ने देश में टैक्स एमनेस्टी स्कीम लागू की थी। इसके तहत कहा गया था कि 45 प्रतिशत टैक्स दीजिए और अपनी कमाई को वैध बना लीजिए। करीब उसी समय इंडोनेशिया ने भी अपने यहां एक टैक्स एमनेस्टी स्कीम लागू की। टैक्स की दर थी मात्र दो से दस प्रतिशत। जल्दी घोषणा कीजिए तो दो प्रतिशत और देर से आइए तो दस प्रतिशत अधिकतम।

भारत में यह चर्चा का विषय रहता है कि यहां की काली कमाई लोगों ने स्विट्जरलैंड में जमा कर रखी है। ठीक इसी तरह इंडोनेशिया की जनता का मानना है कि वहां की अवैध कमाई सिंगापुर के बैंकों में जमा है। इंडोनेशिया सरकार की टैक्स एमनेस्टी स्कीम के नतीजे हैरान करने वाले रहे। यह दुनिया में सबसे सफलतम स्कीम साबित हुई। भारत में जहां सिर्फ साठ हजार करोड़ रुपये घोषित हुए वहीं इंडोनेशिया के नागरिकों ने करीब 21 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति स्वेच्छा से घोषित की। नौबत यह आई कि सिंगापुर सरकार को जमा रकम पर प्रोत्साहन स्कीम की घोषणा करनी पड़ी। इंडोनेशिया में एक तरह से इतनी रकम घोषित हुई जितना भारत का सालाना केंद्रीय बजट होता है। भारत में इंडोनेशिया जैसे कदम से 50 लाख करोड़ से ज्यादा जुटाए जा सकते थे, जो अंतत: देश की गरीब जनता के ही काम आते। इंडोनेशिया के आम लोगों ने अपनी सरकार की एमनेस्टी स्कीम को खूब सराहा। भारत में शायद इसकी आलोचना की जाती। सरकार इतनी नरम एमनेस्टी स्कीम लाती तो विपक्ष उसे अमीरों का हितैषी करार देकर हंगामा मचाता। जो भी हो, यह एक तथ्य है कि तमाम कोशिश के बाद भी हमारी सरकारें काले धन को वापस लाने में विफल रही हैं। भारत में काले धन का हौव्वा है, लेकिन काले धन की सही परिभाषा आज तक तय नहीं की गई।

काले धन और कर अपवंचित धन में जो बड़ा फर्क है उसे हमें समझना चाहिए। रिश्वतखोरी, गबन, हथियारड्रग्स के अवैध कारोबार और ऐसी ही अन्य आपराधिक गतिविधियों से अर्जित रकम ही वास्तव में काला धन है। क्या सरकार टैक्स लेकर इसे वैध करार दे सकती है? इसे तो पूरा ही जब्त किया जाना चाहिए। यदि कर अपवंचित आय को काला धन माना जाए तो आज देश में ढाई लाख रुपये सालाना से ज्यादा कमाने वाला हर व्यक्ति काले धन के दायरे में आ सकता है। प्रधानमंत्री मोदी विपक्षी दलों के 70 सालों के कुशासन का जिक्र करते हैं। इस दौरान वे भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा और मूलभूत सुविधाओं का अभाव बताते हैं। क्या इसका भुक्तभोगी करदाता भी नहीं रहा है? अभी तक उसे अपने दिए कर के बदले मिला ही क्या है? मूलभूत सुविधाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा या सम्मान कुछ भी तो नहीं।

महाराष्ट्र में एक जज ने एक बार खिन्न होकर अपने फैसले में लिखा कि यदि जनता को मूलभूत सुविधाएं न मिलें तो वे टैक्स देना बंद कर दें। कोई शहरी अगर 25 हजार रुपया कमाने के बाद भी आयकर देकर देश के प्रति जिम्मेदारी निभाता है तो क्या वह सम्मान के योग्य नहीं? विडंबना यह है कि नेताओं की नजर में करदाता का अर्थ अमीर व्यक्ति होता है। इसी कारण करदाताओं के सरोकार अमीर-गरीब की बहस में फंसकर दम तोड़ देते हैं। कर अपवंचना को किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि सरकारें नक्सलियों और आतंकियों को माफ कर सकती हैं, कश्मीरी पत्थरबाजों के केस वापस ले सकती हैं तो फिर अपनी मेहनत की कमाई से टैक्स देने वाले करदाता क्या इनसे भी बुरे हैं? वास्तव में करदाता ही देश के असली आर्थिक नेता और भारत के भाग्यविधाता हैं। इन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है। नहीं तो देश में 15-15 लाख मांगने वाले ही बचेंगे।

(लेखक ग्लोबल टैक्सपेयर्स ट्रस्ट के प्रमुख हैं)