[ रसाल सिंह ]: जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मुखिया महबूबा मुफ्ती का विवादित बयानों से पुराना नाता रहा है, लेकिन हाल में उन्होंने दुस्साहस की सभी सीमाएं तोड़ दीं। अफगानिस्तान में तालिबान के हालिया कब्जे की मिसाल देते हुए उन्होंने भारत सरकार को खुली धमकी दी कि वह कश्मीरियों के सब्र का और इम्तिहान न ले और अमेरिका से सबक सीखे कि उसे कैसे अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर भागना पड़ा। उनके बयान से प्रतीत होता है कि वह स्वयं को तालिबान और भारत को अमेरिका मान रही हैं। ऐसे मुगालते के साथ वह यह भूल रही हैं कि कश्मीर अफगानिस्तान की तरह कोई आजाद मुल्क नहीं, बल्कि भारत का अभिन्न अंग है। इससे दुनिया को दिखा होगा कि कश्मीर की स्वयंभू लोकतंत्रवादी और मानवाधिकारवादी दरअसल तालिबान की हिमायती और हमदर्द हैं। महबूबा चाहें तो अपनी अलगाववादी ढपली पर तालिबानी राग गाएं, लेकिन कश्मीर के तालिबानीकरण का उनका मंसूबा कभी कामयाब नहीं होगा। इस बयान ने उनकी तालिबानी मानसिकता का ही परिचय दिया है। उनके बयान पहले भी अलगाववाद की आग में घी डालने का काम करते हैं, लेकिन एक महिला होने के बावजूद तालिबान की वकालत करने वाली महबूबा क्या यह चाहती हैं कि कश्मीर में भी बहन-बेटियों के पढ़ने-लिखने और कामकाज पर पाबंदी लग जाए। तालिबान द्वारा महिलाओं को ‘यौन दासी’ बनाने जैसी कुप्रथा पर उनका क्या मत है? क्या वह चाहती हैं कि सवालों के जवाब जुबान के बजाय गोलियों से मिलने लगें।

तालिबान की असलियत जगजाहिर है। वह मध्यकालीन मानसिकता वाला महिला और लोकतंत्र विरोधी क्रूर आतंकी संगठन है। कश्मीर में उसकी आमद की कामना करना महबूबा के वास्तविक मंसूबों और बिगड़ते मानसिक संतुलन को उजागर करता है। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को धमकाने के फेर में वह संभल से सपा के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क और शायर मुनव्वर राना से भी दो कदम आगे निकल गई हैं। वह यह भी भूल गईं कि सत्ता की जिस भूख और भाजपा से नफरत ने उनके विवेक पर आघात किया है उसी के साथ वह और उनके पिता गठबंधन सरकार चला चुके हैं। क्या इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि सत्ता प्राप्ति के लिए वह भाजपा, कांग्रेस और यहां तक कि तालिबान का भी सहारा ले सकती हैं। अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी नेशनल कांफ्रेंस के साथ गुपकार गठजोड़ बनाना भी उनके सत्तालोलुप चरित्र और अवसरवाद की एक और नायाब मिसाल है।

अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे की मिसाल के माध्यम से उन्होंने एक तरह से कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकी संगठनों के हमदर्द होने और उनके तार तालिबान से जुड़े होने का भी सुबूत दिया है। यह किसी से छिपा नहीं रहा कि जम्मू-कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे दुर्दांत आतंकी संगठनों ने अफगानिस्तान में तालिबान का साथ देकर वहां की लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कराने में अपनी भूमिका निभाई है। उसी से उत्साहित होकर उन्होंने केंद्र सरकार को धमकी देने की हिमाकत की है। उल्लेखनीय है कि जेल में बंद पीडीपी के तथाकथित युवा नेता वहीद-उर-रहमान परा के आतंकी जुड़ाव की पुष्टि हो चुकी है। फिर भी पीडीपी ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की। तालिबान की धमकी देना पृथ्वीराज चौहान को नीचा दिखाने के लिए जयचंद द्वारा मुहम्मद गोरी को दिए गए न्योते की याद दिलाता है। महबूबा को खुद तय करना है कि क्या वह भारतीय इतिहास में एक और जयचंद के रूप में अपनी जगह बनाना चाहती हैं। यह अलग बात है कि 21वीं सदी के संगठित और सशक्त भारत में मुहम्मद गोरी अर्थात तालिबान का हश्र बहुत भयानक होगा।

केंद्र सरकार को महबूबा मुफ्ती द्वारा लगातार दिए जा रहे भड़काऊ बयानों का संज्ञान लेना चाहिए। नजरबंदी से निकलने के बाद वह एक के बाद एक ऐसे बयान देकर राष्ट्रविरोधी विमर्श को हवा दे रही हैं। पत्थर और बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हुए कश्मीरी युवाओं को वह फिर भड़काने की फिराक में हैं। दरअसल हिंसा, आतंक और अलगाववाद उनकी राजनीति का आधार रहा है। वह किसी भी कीमत पर उसके परित्याग को तैयार नहीं दिख रहीं। उनके ऐसे रवैये से आतंकियों एवं बिगड़ैल पड़ोसी के हौसले और बढ़ते हैं। इसलिए उन पर सख्त कार्रवाई जरूरी हो गई है। उन्हें यह समझाना आवश्यक है कि कश्मीर के मसलों का समाधान पड़ोसी देशों और भाड़े के आतंकियों के हमदर्द और हिमायती बनने से नहीं, बल्कि भारत की संवैधानिक प्रक्रियाओं में आस्था रखने और उनका सम्मान करने से निकलेगा।

जहां तक पाकिस्तान की बात है तो अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत आने से उसकी बांछें खिली हुई हैं। आइएसआइ को कश्मीर अंतिम सांसें गिन रही आतंकी जड़ों में नई जान आने की उम्मीद बंधी है। इसीलिए भारत सरकार बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था को और चाकचौबंद करे। अन्यथा अनुच्छेद 370 के बाद आतंक की कमर तोड़ने का जो रणनीतिक लाभ हासिल हुआ था वह जाता रहेगा। साथ ही राज्य में परिसीमन प्रक्रिया को जल्द संपन्न कर विधानसभा चुनाव कराने चाहिए। फिर पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली की दिशा में कदम उठाए जाएं। इससे न केवल कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय दुष्प्रचार पर प्रहार होगा, बल्कि जनादेश के आधार पर गठित लोकतांत्रिक सरकार के सत्तारूढ़ होने से तालिबानी मानसिकता को भी मुंहतोड़ जवाब मिलेगा। जम्मू-कश्मीर की जनता अब शांति के साथ समृद्धि चाहती है। इसलिए केंद्र सरकार ने इस दिशा में जो प्रयास किए हैं उनकी गति और तेज की जानी चाहिए।

( लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता-छात्र कल्याण हैं )