ब्रह्मा चेलानी : अमेरिकी नौसेना प्रमुख एडमिरल माइक गिल्डे ने हाल में कहा कि भारत ने चीन के समक्ष दो मोर्चों पर चुनौतियां उत्पन्न कर दी हैं। उनके अनुसार भारत ने चीन को न केवल दक्षिण चीन सागर से पूरब की ओर देखने पर बाध्य किया है, बल्कि उसे संदेश भी दिया है कि भारत की ओर से करारा जवाब मिलेगा। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए ताइवान पर चीनी हमले का खतरा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है।

अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने गत वर्ष अमेरिकी संसद को बताया था कि 2027 तक चीन ताइवान पर हमला बोल सकता है, लेकिन अमेरिकी खुफिया विभाग को अब लगता है कि चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग उससे पहले ही ऐसा दांव चल देंगे। उसे आशंका है कि इस साल नवंबर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस और 2024 में अगले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बीच में कभी भी ऐसा हो सकता है। यानी जो बाइडन के कार्यकाल में ही चीन ऐसा दुस्साहस दिखा सकता है।

अफगानिस्तान में एक आतंकी संगठन के आगे समर्पण और फिर यूक्रेन को रूसी हमले से बचाने में बाइडन की नाकामी और इस युद्ध में उलझने के कारण अमेरिका की स्थिति कमजोर हो गई है। साथ ही रूसी सेनाओं को पीछे हटने के लिए मजबूर करने के मकसद से रूस पर लगाए गए पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों की असफलता भी ताइवान पर शिकंजा कसने से जुड़ी शी चिनफिंग की हसरतों को परवान चढ़ा रही है।

ताइवान के दुर्ग का दरकना एशिया में चीनी आक्रामकता को नए तेवर देगा। इससे हिंद-प्रशांत में शक्ति संतुलन बिगड़ेगा। कई देशों की सामरिक चुनौतियां बढ़ जाएंगी। विशेषकर जापान के लिए, जिसके नेताओं को लगता है कि ताइवान के बाद चीन का अगला निशाना उनका ओकिनावा प्रांत हो सकता है।

चीन की ऐसी आक्रामकता भारत की सुरक्षा के लिए भी शुभ संकेत नहीं। एशिया में चीन की जिस सबसे बड़े हिस्से पर नीयत खराब है, वह भारत का अरुणाचल प्रदेश है। अरुणाचल ताइवान से तीन गुना बड़ा है। चीन पहले ही उसे अपने नक्शे में दिखाता आया है। पिछले साल जब बीजिंग ने भारतीय इलाकों का अपने हिसाब से नामकरण किया तो भारत के विदेश मंत्रालय ने इसे हास्यास्पद बताते हुए उसे ऐसी हरकतों से बाज आने के लिए कहा। अगर चीन ताइवान पर काबिज हो जाता है तो अरुणाचल उसके लिए-नया ताइवान-बन जाएगा। ऐसे में ताइवान की सुरक्षा का मुद्दा भारत के लिए कहीं ज्यादा महत्व का हो गया है।

चीन का कोई सैन्य अभ्यास भी सहज नहीं होता। 2020 में चीन की सैन्य टुकड़ी ने भारतीय सीमा के आसपास जो अभ्यास किया, वह दोनों देशों के बीच कई मोर्चों पर टकराव का बिंदु बना, जिसकी चिंगारी दुर्गम बर्फीले हिमालयी क्षेत्र में भड़कती रही। इसीलिए ताइवान के इर्दगिर्द चीनी सैन्य परीक्षणों को हल्के में नहीं लिया जा सकता। उनमें उसे हड़पने के शी चिनफिंग के-ऐतिहासिक मिशन-की झलक मिलती है। ऐसी परख में ताइवान की आर्थिक नाकेबंदी या उसे अलग-थलग करने की थाह ली गई, जो दर्शाता है कि शी चिनफिंग ताइवान पर ऐसा शिकंजा कसने की रणनीति अपना सकते हैं, जिसमें यह देश चीन के साथ विलय को बाध्य हो जाए। इस दौरान चीन ने जापान के धैर्य की भी परीक्षा ली, क्योंकि दागी गई कुछ मिसाइलें जापानी सामुद्रिक सीमा के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में जाकर गिरीं।

क्या ताइवान पर चीनी आक्रामकता भारत की बेचैनी बढ़ा सकती है? याद रहे कि हिमालय की ऊंची बर्फीली चोटियों पर चीनी और भारतीय सैन्य बल करीब ढाई वर्ष से उलझे हुए हैं। ऐसी ही एक झड़प में चीन को अपने सैनिक भी गंवाने पड़े, जो कि 1979 में वियतनाम हमले के बाद चीनी सैनिकों के हताहत होने का पहला मामला था। हालांकि पिछले कुछ समय में यह तल्खी और तनातनी शायद कुछ घटी है, लेकिन जरा सा गलत आकलन भारी पड़ सकता है।

ताइवान को लेकर शी ने जैसी घेराबंदी के प्रयास किए हैं, उसे देखते हुए अगले माह भारत-अमेरिका संयुक्त सैन्य अभ्यास की महत्ता और बढ़ गई है। दोनों देशों के बीच यह प्रस्तावित अभ्यास हिमालयी क्षेत्र में समुद्र तल से 3,000 मीटर की ऊंचाई पर होगा। पूर्व में किसी भी सैन्य अभ्यास के मुकाबले चीनी सीमा के ज्यादा नजदीक होने वाला यह अभ्यास शायद बीजिंग को यही संदेश दे कि ताइवान के साथ युद्ध छेड़ने की सूरत में उसके लिए दूसरा संभावित मोर्चा भी खुल सकता है। युद्ध अभ्यास, कोडनेम वाली यह कवायद चीनी सीमा से मुश्किल से सौ किमी के दायरे में होने जा रही है।

सकल घरेलू उत्पाद के पैमाने पर ताइवान दुनिया की 22वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अप्रत्यक्ष रूप में ही सही, लेकिन एशिया की सुरक्षा में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। उसका स्वायत्त अस्तित्व है। उसकी सेना का अमेरिका और जापान के साथ मजबूत गठजोड़ है। चीनी थियेटर बल को उलझाकर भारत भी ताइवान की अपनी तरह से मदद कर रहा है, अन्यथा उसका उपयोग ताइवान के विरुद्ध ही हो सकता था। ऐसे परिदृश्य में भारत और जापान के लिए आवश्यक हो गया है कि वे परस्पर परामर्श के साथ ही ताइपे और वाशिंगटन को भी साथ जोड़कर सहमति बनाएं कि ताइवान पर चीनी हमले की स्थिति में उसकी रक्षा के लिए वे किस प्रकार योगदान कर सकते हैं।

किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत अमेरिका के साथ सबसे ज्यादा वार्षिक युद्ध अभ्यास करता है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के साथ ही सबसे बड़े सामरिक सहयोगी के रूप में भी उभर रहा है। इसके बावजूद भारत के विरुद्ध चीनी आक्रामकता पर बाइडन के मुंह से एक बोल तक नहीं फूटा। न ही बाइडन प्रशासन ने ताइवान का रक्षा कवच मजबूत करने में कोई तत्परता दिखाई है। जो भी हो, ताइवान के स्वायत्त अस्तित्व में अमेरिका की केंद्रीय भूमिका है। अगर अमेरिका-जापान, भारत और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर ताइवान की रक्षा के लिए कारगर समन्वय बनाता है तो संभव है कि इस द्वीपीय देश को लेकर यथास्थिति बनी रहे। चीन को ताइवान पर हमला करने से केवल यही तथ्य रोक सकता है कि इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)