[ राजीव सचान ]: दुनिया के सबसे वहशी आतंकी अबू बकर अल बगदादी के मारे जाने पर दुनिया ने इसके बावजूद राहत की सांस ली कि न तो इस्लामिक स्टेट का खात्मा होने जा रहा है और न ही अन्य अनेक जिहादी संगठनों का। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि इस्लामिक स्टेट का सरगना अल बगदादी आधुनिक काल का सबसे घिनौना और बर्बर आतंकी था। उसने मध्ययुगीन बर्बरता को भी मात दे रखी थी।

बगदादी आधुनिक काल का सबसे घिनौना और बर्बर आतंकी था

उसने लोगों के बेरहमी से सिर तो कलम किए ही, उन्हें जलाकर, लोहे के पिंजरे में कैद करने के बाद पानी में डुबोकर, ऊंची इमारतों से फेंककर और बूचड़खानों में काट-काट कर भी मारा। इसी तरह उसने महिलाओं को यौन दासियों में तो तब्दील किया ही, उनकी नीलामी भी की और उनसे खुलेआम दुष्कर्म भी। उसकी बर्बरता के किस्से रोंगटे खड़े करने वाले थे, फिर भी दुनिया भर के तमाम देशों के युवक उसके संगठन में शामिल होने के लिए इराक-सीरिया चले आए। इनमें अच्छी-खासी संख्या उनकी थी जो पढ़े-लिखे और यूरोप-अमेरिका में सुविधा संपन्न जीवन जीने वाले थे।

बगदादी की नृशंसता का शिकार इराक गए 39 भारतीय भी बने

माना जाता है कि इसकी एक वजह उन्हें यौन दासियां उपलब्ध कराना और साथ ही खिलाफत को फिर से कायम करने का सपना दिखाना था। आश्चर्यजनक रूप से इस्लामिक स्टेट में शामिल होने वालों में युवतियां भी थीं। बगदादी की बर्बर विचारधारा से आकर्षित जो युवा इराक-सीरिया नहीं जा सके वे अपने-अपने देश में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने लगे। इसके चलते यूरोप, अमेरिका के साथ-साथ अन्य अनेक देशों में आतंकी हमले कर खौफ पैदा किया गया। बगदादी के उन्मादी आतंकियों की नृशंसता का शिकार इराक गए 39 भारतीय भी बने।

कट्टर मजहबी विद्वान अल बगदादी की 48 साल की उम्र में मौत: ‘वाशिंगटन पोस्ट’

बगदादी सरीखे महापातकी आतंकी के मारे जाने की खबर दुनिया भर में प्रमुखता पानी ही थी। उसने पाई भी, लेकिन एक खबर कुछ इस तरह से थी-कट्टर मजहबी विद्वान अल बगदादी की 48 साल की उम्र में मौत। यह खबर अमेरिका के बड़े अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की वेबसाइट पर आई तो सोशल मीडिया पर हंगामा खड़ा हो गया। अमेरिकी प्रशासन से जुड़े लोगों और पत्रकारों के अलावा अन्य अनेक लोगों ने इस खबर की जमकर खिंचाई की।

‘वाशिंगटन पोस्ट’ का शीर्षक पहले इस तरह था-इस्लामिक स्टेट के सरगना अल बगदादी की मौत

इसी के साथ वाशिंगटन पोस्ट का मजाक उड़ाने वाले ट्वीट किए जाने लगे, लेकिन क्या यह महज हास-परिहास का विषय था? यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि बगदादी को मजहबी विद्वान के तौर पर पेश करने का काम किसी गफलत के चलते नहीं हुआ। यह सोच-समझ कर ही किया गया होगा, क्योंकि पहले इस समाचार का शीर्षक कुछ इस तरह था-इस्लामिक स्टेट के सरगना अल बगदादी की मौत।

वाशिंगटन पोस्ट की हुई फजीहत

फिर कुछ सोचकर, पता नहीं क्या सोचकर, उसे मजहबी विद्वान बता दिया गया। जब इसे लेकर वाशिंगटन पोस्ट की फजीहत होने लगी तब फिर से शीर्षक बदल कर अल बगदादी को इस्लामिक स्टेट का सरगना कहा गया। इसके साथ ही यह सफाई भी पेश की गई कि उसे मजहबी विद्वान बताने वाली खबर का वह मतलब नहीं था जो समझा गया।

बगदादी को खूंखार आतंकी बताने में पश्चिमी मीडिया ने किया परहेज

पता नहीं इस स्पष्टीकरण के जरिये क्या स्पष्ट करने की कोशिश की गई, लेकिन बगदादी के मारे जाने पर उसे खूंखार आतंकी बताने में वाशिंगटन पोस्ट के अलावा अन्य अनेक पश्चिमी मीडिया संस्थानों ने भी परहेज किया। यह परहेज उन मीडिया संस्थानों की ओर से किया गया जो लिबरल या लेफ्ट लिबरल के तौर पर जाने जाते हैैं। लिबरल यानी उदारवादी, लेकिन आम जनता के लिए यह समझना कठिन है कि आखिर किसी बर्बर आतंकी को मजहबी विद्वान बताने वाले खुद को लिबरल या उदारवादी कैसे कह सकते हैैं? वास्तव में इन्हें कुदारवादी या ऐसे ही किसी अन्य शब्द से परिभाषित किया जाना बेहतर होगा। बेहतर यह भी होगा कि उस सोच-समझ की तह तक जाया जाए जिसके चलते बगदादी को मजहबी विद्वान बताया गया।

ट्रंप को बगदादी के मारे जाने का राजनीतिक लाभ न मिले

नि:संदेह ऐसा नहीं हो सकता कि बगदादी को मजहबी विद्वान बताने वाले यह न जानते हों कि वह कितना घृणास्पद था। यह जानते हुए भी उन्होंने उसके प्रति नरमी दिखाई तो शायद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को नापसंद करने के कारण ही। संभवत: वे यह नहीं चाहते होंगे कि ट्रंप को बगदादी के मारे जाने का किसी तरह का राजनीतिक लाभ मिले।

ट्रंप का दावा सही नहीं कि बगदादी की मौत एक कायर की तरह हुई: ‘वाशिंगटन पोस्ट’

यह तब और स्पष्ट हुआ जब वाशिंगटन पोस्ट में ही इस आशय का एक लेख आया कि ट्रंप का यह दावा सही नहीं कि बगदादी की मौत एक कायर की तरह हुई, क्योंकि उसने तो अमेरिकी सैनिकों की गिरफ्त में जाने के बजाय खुद को विस्फोट के जरिये उड़ाने का फैसला किया। इसके जरिये यही कहने की कोशिश की गई कि बगदादी ने बहादुरी दिखाई।

अमेरिकी स्तंभकार ने की आलोचना

एक अमेरिकी थिंक टैैंक से जुड़े नीति विश्लेषक और स्तंभकार मैक्स बूट के इस लेख की भी तीखी आलोचना हुई। जब आलोचना ज्यादा तीखी हुई तब इस लेख की उस पंक्ति में हेरफेर किया गया और यह हास्यास्पद सफाई दी गई कि उससे यह प्रतीति हो रही थी कि बगदादी साहसी था। इन दिनों अमेरिकी मीडिया में ऐसे विचारों की भरमार है जिनके जरिये यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि ट्रंप को बगदादी के मरने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला। यह आकलन एक बड़ी हद तक सही जान पड़ता है।

बगदादी मरा, लेकिन उसकी विचारधारा नहीं

वैसे भी यह एक तथ्य है कि बगदादी मरा है, लेकिन उसकी विचारधारा नहीं। बावजूद इसके इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि ट्रंप के प्रति अपनी नापसंदगी प्रकट करने के लिए एक खूंखार आतंकी के प्रति नरमी बरती गई। लिबरल यानी उदारवादियों और वस्तुत: कुदारवादियों का यह व्यवहार अमेरिका तक ही सीमित नहीं है।

क्या कोई ‘एंड दे हैैंग्ड याकूब’ शीर्षक को भूल सकता है

क्या कोई ‘एंड दे हैैंग्ड याकूब’ शीर्षक को भूल सकता है जो मुंबई बम धमाकों के लिए जिम्मेदार आतंकी याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के बाद एक अंग्रेजी दैनिक की पहली खबर बना था। यह महज अपवाद नहीं, क्योंकि पुलवामा हमले के बाद एक अन्य अंग्रेजी दैनिक की खबर इस शीर्षक से थी-‘कार बांबर किल्स 37 ट्रूपर्स।’ यह तो याद ही होगा कि आतंकी बुरहान वानी को किस तरह स्कूल हेडमास्टर का बेटा बताया गया था।

आतंकियों के प्रति हमदर्दी प्रकट करना उदारवादियों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता

नि:संदेह उदारवादियों उर्फ कुदारवादियों को निवार्चित शासकों को नापसंद करने और उनकी निंदा-भर्त्सना करने का अधिकार है, लेकिन इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि वे अपने इस अधिकार का इस्तेमाल आतंकियों के प्रति हमदर्दी प्रकट करने या फिर उनकी कुत्सित हरकतों की अनदेखी करने में करें।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )