नई दिल्ली, जेएनएन। आज से कई दशक पहले इन्हीं दिनों ढाका में पाकिस्तानी सेनाओं का आत्मसमर्पण आजाद भारत की महानतम घटनाओं में से एक है। इस महान विजय ने बांग्लादेश को तो आजाद किया, पर कश्मीर की गुलामी पर स्थाई मोहर लगा दी। यह हमारे लिए एक बड़ी त्रासदी से कम नही हैं। आखिर कश्मीर की वापसी इस युद्ध की प्राथमिकताओं में क्यों नहीं थी? लोकतंत्र में सेनाएं स्वयं अपने लक्ष्य नियत नहीं करतीं, बल्कि यह दायित्व देश की उच्चतम राजनीतिक सत्ता का है। सेना उसके मुताबिक अपनी रणनीतियां निर्धारित करती है।

29 अप्रैल 1971 की कैबिनेट मीटिंग में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से जनरल मानेक शॉ को तत्काल पूर्वी पाकिस्तान पर हमला करने का निर्देश दिया गया। बंगाली शरणार्थियों की समस्या भीषण रूप लेती जा रही थी। मानेक शॉ ने तैयारियों के लिए छह माह के समय की मांग की। नदी-नालों से भरे पूर्वी बंगाल में मानसून का मौसम सैन्य कार्रवाई के लिय उपयुक्त नहीं होगा। चीन के दखल की आशंका न हो इसलिए हिमालय पर बर्फ पड़ने तक इंतजार करना जरूरी था। उन्होंने यहां तक कह डाला कि इन तैयारियों के बगैर उन्हें ऑपरेशन लॉच करने को कहा जाएगा तो वह अपना त्यागपत्र दे देंगे।

पूर्वी पाकिस्तान पर हमारी रणनीति आक्रामक थी ताकि बांग्लादेश की आजादी एवं शरणार्थियों की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सके। दूसरी ओर पश्चिमी पाकिस्तान में आक्रामक-रक्षात्मक रणनीति तय की गई ताकि यदि आवश्यक हो तो पाकिस्तानी क्षेत्र में प्रवेश किया जा सके। एक दिसंबर 1971 को अचानक राजनीतिक स्तर से पश्चिम में पूर्णतया रक्षात्मक रणनीति के निर्देश दिए गए। मानेक शॉ ने इसका विरोध किया तो इंदिरा ने कहा कि वह दुनिया के सामने पश्चिम में आक्रामक कार्रवाई को तर्कसंगत सिद्ध नहीं कर पाएंगी। सेना की रणनीति में इस राजनीतिक दखल के दूरगामी परिणाम हुए। जब तीन दिसंबर को पाकिस्तान ने छंब इलाके में जबरदस्त हमला किया तो वहां का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। इसके जवाब में हम मात्र कारगिल में कुछ पहाड़ियों को ही अपने कब्जे में ले सके।

भारत की इस महान विजय के परिणामस्वरूप बांग्लादेश तो बन गया, पर जो मूल पाकिस्तान था वहां पर मुकाबला ड्रा पर छूटा तो इसीलिए कि हमने पश्चिम में विजय की रणनीति नहीं अपनाई। बांग्लादेश की आजादी हमारा मुख्य लक्ष्य बन गया। बांग्लादेश की आजादी मात्र समय का हेरफेर थी। यदि हम पूरी शक्ति से पश्चिमी पाकिस्तान में पाक अधिकृत कश्मीर, लाहौर, स्यालकोट, कसूर और सिंध के मैदानों को कब्जे में लेने को लक्ष्य बनाते तो बेहतर होता। पश्चिम में पाक की पराजय का सीधा प्रभाव बांग्लादेश में पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व के मनोबल पर स्वत: ही पड़ता। यदि बांग्लादेश 16 दिसंबर के स्थान पर 25 दिसंबर या एक जनवरी को आजाद हुआ होता तो कोई पहाड़ नहीं टूटना था, पर कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान हो जाता। पश्चिम में कमजोर रणनीति के फलस्वरूप सेनाओं ने हाजीपीर के लिए भी कोई बड़ा हमला नहीं किया, न ही गिलगिट-बाल्टिस्तान वापस लेने की सोच बनी। इतिहास बार-बार अवसर नहीं देता।

आज भी हमारे सामने पाकिस्तान की समस्या जस की तस बरकरार है। यह विजय पाकिस्तान को नियंत्रित कर सकने में असफल रही। इतना ही नहीं उसके सिर से पूर्वी बंगाल का बोझ और हट गया। एक गलत राजनीतिक निर्देशन ने एक महान विजय को एक हद तक अर्थहीन कर दिया। दुर्भाग्यवश अपने यहां प्रधानमंत्री का कोई सैन्य सलाहकार नहीं होता। परिणामत: नेतृत्व में रणनीतिक समझ का अभाव रहता है।

उस दौर के अमेरिकी और चीनी नेताओं के बयानों और सीआइए के दस्तावेजों से स्पष्ट है कि वे चिंतित थे कि पूर्व में फतह के बाद भारत पश्चिमी पाकिस्तान पर निर्णायक हमला करेगा। अमेरिकी विदेश मंत्री कीसिंजर ने तो यहां तक कहा कि ये भारतीय पूर्वी पाकिस्तान को भूटान, फिर पश्चिमी पाकिस्तान को तोड़कर अगला नेपाल बना देंगे। छह दिसंबर को दिल्ली से किसी ने सीआइए को खबर भेजी थी कि पश्चिम में भारत का लक्ष्य दक्षिणी कश्मीर को आजाद कराना एवं पाकिस्तान की युद्ध क्षमता को ध्वस्त करना है।

गजब है कि जो आशंका अमेरिका और यूरोप के रणनीतिकारों को हमसे थी वह हमारी सोच में ही शामिल नहीं थी। कभी-कभी ऐसा लगता है कि 1971 का युद्ध जैसे विश्वशांति के लिए लड़ा गया था और उसका हमारे व्यापक राष्ट्रीय हितों से कोई सीधा सरोकार नहीं था। बांग्लादेश आजाद हुआ, कश्मीर पाकिस्तान का गुलाम बना रहा।कश्मीर कितना निकट आकर फिर बहुत दूर चला गया। यदि तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व की राजनीतिक इच्छाशक्ति दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों के प्रति समर्पित रही होती तो दिसंबर की इन्हीं तारीखों में हम बांग्लादेश की आजादी से पहले कश्मीर की वापसी का जश्न मना रहे होते।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)