[ बैजयंत ‘जय’ पांडा ]: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी को प्रकाशित करने की मियाद और नहीं बढ़ाई जाएगी। एनआरसी को दोबारा कराने की अर्जी भी खारिज कर दी है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने 26 जुलाई के फैसले पर मुहर लगाते हुए 12 अगस्त को आदेश दिया कि 31 अगस्त तक दी गई समयसीमा में ही एनआरसी की अंतिम सूची जारी करनी होगी। अब इसमें पखवाड़े भर का समय शेष है।

लाखों लोगों का जीवन प्रभावित

शीर्ष अदालत की अगुआई में हो रही इस कवायद से राजनीतिक हलचल भी तेज हो गई है। पक्ष-विपक्ष भी इसमें एक दूसरे पर हमलावर हुए जा रहे हैं। कोर्ट का 26 जुलाई का निर्णय वास्तव में जनवरी 2018 में प्रकाशित प्रारूप सूची के बाद आया है जिसमें असम एनआरसी के 3.29 करोड़ आवेदकों में से लगभग 40 लाख नाम हटा दिए गए थे। यह मुद्दा न केवल नागरिकता और राष्ट्रवाद की अवधारणा से जुड़ा है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाला भी है। इसलिए इस मामले का व्यापक मूल्यांकन आवश्यक है।

नागरिकता और राष्ट्रवाद की बहस

नागरिकता की बहस अठारहवीं शताब्दी में उठी जब पाश्चात्य समाज पुनर्जागरण आंदोलन से प्रभावित था। उसी दौर में उदारवाद भी जन्म ले रहा था। नागरिकता और राष्ट्रवाद की बहस तब और तीव्र हुई जब यूरोपीय देश संविधान को चर्च से ज्यादा महत्व देने लगे। हालांकि उदारवादियों ने इन दिनों उदारवाद के मूल सिद्धांतों को भुलाकर वामपंथ की कई अवधारणाओं को अपना लिया है। इनमें एक विचित्र अवधारणा ओपन बॉर्डर यानी ‘खुली सीमा’ की भी है जिसे अपनाकर उदारवादी नागरिकता की संकल्पना को ही समाप्त कर देना चाहते हैं।

नागरिकता को लेकर राजनीतिक दलों के बीच बहस

नागरिकता को लेकर इन हालिया बहसों का वैश्विक संदर्भ भी है जहां यह तमाम देशों के राजनीतिक दलों के बीच बहस का प्रमुख मुद्दा बन जाती है। यह बहस अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी और राष्ट्रपति ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के बीच प्रमुख मुद्दों में से एक है। इस साल जून में पहली डेमोक्रेटिक प्रेसिडेंशियल बहस में तो एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई। उसमें सभी उम्मीदवारों ने अवैध प्रवासियों के लिए मुफ्त सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का समर्थन किया। इस पर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि डेमोक्रेटिक पार्टी को राष्ट्रपति चुनाव में इस घोषणा का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक भी अवैध प्रवासियों को मिल रहे ऐसे महत्व को लेकर संशय में हैं।

राष्ट्रवाद को प्रमुखता

उदारवाद की मूल विचारधारा में राष्ट्रवाद को प्रमुखता दी गई थी, लेकिन यह अमेरिकी उदाहरण दर्शाता है कि यह विचारधारा अपने मूल विचार से कितना भटक चुकी है। जब उदारवादी असम में एनआरसी की अवहेलना करते हैं तो वे व्यावहारिक रूप से ‘खुली सीमा’ की वकालत करते हैं। वे भूल जाते हैं कि पड़ोसी बांग्लादेश से अवैध रूप से आने वाले लोगों के चलते असम की स्थानीय आबादी का स्वरूप बिगड़ रहा है। राज्य के मूल निवासियों को इससे काफी परेशानी हो रही है।

विद्वेष फैलाने वाली मोदी सरकार

मोदी सरकार के विरोध में तर्क दिया जाता है कि यह विद्वेष फैलाने वाली सरकार है जिसके लिए वे 2016 में बने प्राथमिकता कानून का उदाहरण देते हैं। इस कानून के तहत पड़ोसी देशों के गैर-मुस्लिम शरणार्थिंयों (हिंदुओं, ईसाइयों और पारसियों आदि ) को प्राथमिकता दी जाती है। आलोचक भूल जाते हैं कि बांग्लादेश से प्रवासी मजदूर बेहतर वेतन और संसाधनों के लिए असम आते हैं, न कि अपने देश में हो रहे उत्पीड़न से बचने के लिए। अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों के अनुसार प्रत्येक देश में शरणार्थियों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, न कि अवैध प्रवासियों को जो केवल बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में अवैध रूप से किसी राज्य में घुस जाते हैं। भारत का इन अल्पसंख्यकों के प्रति एक विशेष दायित्व इसलिए भी है, क्योंकि हमारी साझा संस्कृति और विभाजन का इतिहास हमें एक साथ जोड़ता है।

एनआरसी प्रक्रिया पर विपक्षी दलों का विरोध

विपक्षी दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एनआरसी प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं, लेकिन वे भूल रहे हैं कि इस कवायद की निगरानी सीधे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है। वर्तमान प्रक्रिया की जड़ें भी असम समझौते में हैं, जो दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विरासत है। इससे कांग्रेस के लिए एनआरसी प्रक्रिया का विरोध करना और भी मुश्किल हो जाता है। एनआरसी के आलोचक यह क्यों नहीं देख पा रहे हैं हैं कि तीन दशकों की अकर्मण्यता के बाद आखिर इस मामले में एक सही पहल हुई है। असम समझौते के बाद राज्य दशकों तक गतिरोध की स्थिति में फंसा हुआ था और उसमें बनी सहमति के आधार पर फैसलों को लागू करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं हो रहे थे।

एनआरसी की गिनती में खामियां

इसमें संदेह नहीं कि एनआरसी की गिनती में भी कुछ गलतियां हुई हैं। हालांकि इतनी व्यापक कवायद में कुछ खामियां स्वाभाविक ही हैं। वर्तनी की गलती के कारण एक महिला की गलत पहचान के एक मामले को स्वीकार कर उसे राहत दी जा चुकी है। एक पूर्व भारतीय सैनिक को हिरासत में लिया गया, लेकिन बाद में जमानत दे दी गई। हालांकि उनकी नागरिकता के मामले में अभी सुनवाई शेष है। इन छिटपुट मामलों को उछालकर आलोचक पूरी प्रक्रिया को ही संदिग्ध बताने के अभियान में जुटे हैं। वे इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि नागरिकता के महत्वपूर्ण सवाल को निर्धारित करने के लिए सक्रिय कदम उठाने वाला राज्य ही अपने नागरिकों की जरूरतों को बेहतर ढंग से लक्षित कर उनकी पूर्ति कर सकता है।

तंत्र को और प्रभावी बनाना होगा

नि:संदेह इन गलतियों की अनदेखी नहीं की जा सकती, क्योंकि एक भी नागरिक को गलत तरीके से अयोग्य घोषित करना एक गंभीर चिंता का विषय है। इससे बचने के लिए तंत्र को और प्रभावी बनाना होगा और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इसे संभव बनाया जा सकता है। हालांकि इसके लिए कदम पीछे नहीं खींचे जा सकते। सरकारी कार्यप्रणाली और दस्तावेजीकरण को सुधारने के लिए अन्य उपायों पर भी हमें भविष्य में बहस शुरू करनी होगी।

नए भारत की कल्पना

आखिर हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना होगा कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं? विपक्ष बुनियादी रूप से जिस काल्पनिक संकट का हौवा खड़ा कर रहा है उसमें तथ्यों, आंकड़ों और ऐतिहासिक दस्तावेजों को नकारा जा रहा है। अब हमें एक नए भारत की कल्पना करनी होगी जहां प्रत्येक भारतीय नागरिक के अधिकार सुरक्षित होंगे और सरकारी कार्यप्रणाली भी सक्षम होगी।

( लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं )