विराग गुप्ता। न्यायाधीशों को इसलिए पंच परमेश्वर कहा जाता है, क्योंकि वे न्याय केवल करते ही नहीं, बल्कि करते हुए दिखते भी हैं। न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद कहा था कि मृत्युदंड जैसे जरूरी मामलों पर ही त्वरित सुनवाई होनी चाहिए, लेकिन उन्होंने अपने मामले में, जिसमें एक महिला ने उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है, छुट्टी के दिन शनिवार को विशेष न्यायिक सुनवाई का फैसला किया। इसके चलते यह सवाल उठा कि उन्होंने महासचिव से स्पष्टीकरण दिलाने के बजाय उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की बैठक क्यों नहीं बुलाई?

सच तो यह है कि ऐसे एक नहीं अनेक सवाल तभी से उठ रहे हैं जबसे मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों का सनसनीखेज मामला सामने आया। सबसे प्रमुख सवाल यही है कि जस्टिस रंजन गोगोई ने अपने ऊपर लगे आरोपों पर व्यक्तिगत सफाई देने के बजाय खुद ही सुनवाई करने का फैसला क्यों लिया? करीब एक साल पहले जस्टिस गोगोई समेत चार जजों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर मनमानी रवैये का आरोप लगाया था। उन आरोपों के तहत यह कहने की कोशिश की गई थी कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश स्थापित न्याय प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहे हैं, पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए आरोपों को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से निपटाने के बजाय मुख्य न्यायाधीश ने अवकाश के दिन न्यायिक सुनवाई करके क्या संदेश देने की कोशिश की?

हालांकि सुनवाई में शामिल होने के बावजूद न्यायिक फैसले में जस्टिस गोगोई का नाम नहीं था, लेकिन इससे विवाद कम नहीं हुआ। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आम जनता के मामलों और साथ ही कुछ अहम मसलों पर तो तारीख पर तारीख लगती रहती है, लेकिन इस मामले को आनन-फानन निपटाने की कोशिश क्यों हो रही है? हालांकि विशाखा गाइडलाइन के अनुसार कार्यक्षेत्र में महिलाओं के उत्पीड़न की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय में भी 11 सदस्यीय आंतरिक जांच समिति बनी हुई है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक मुखिया भी हैं इसलिए यह समिति उनकी जांच नहीं कर सकती। विवाद बढ़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस बोबड़े की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की जांच समिति बनाई गई।

इस पर विवाद भी उठा खड़ा हुआ, क्योंकि महिला ने कहा कि जस्टिस रमन्ना तो जस्टिस गोगोई के करीबी मित्र हैं। इसके बाद जस्टिस रमन्ना ने खुद को इस समिति से अलग कर लिया। वैसे इसके पहले ही न्यायिक जगत में यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि कनिष्ठ न्यायाधीशों की जांच समिति मुख्य न्यायाधीश पर कोई कार्रवाई कैसे कर सकती है? इसका जवाब जो भी हो। कोर्ट को अब यौन उत्पीड़न के आरोपों के साथ न्यायपालिका में फिक्सिंग के आरोपों की भी जांच करनी है, क्योंकि एक वकील ने यह दावा किया है कि जस्टिस गोगोई पर लगे आरोप साजिश का हिस्सा हैं। जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ ने न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद, बेंच फिक्सिंग आदि को जड़ से मिटाने की बात कहते हुए पूर्व न्यायाधीश एके पटनायक को उक्त वकील के दावों की जांच के लिए नियुक्त किया है, लेकिन ऐसा लगता है कि न्यायिक आदेश से बनी जस्टिस पटनायक समिति और प्रशासनिक आदेश से बनी जस्टिस बोबड़े समिति के सीमाधिकार पर तार्किक विमर्श नहीं हुआ।

जो भी हो, यह ठीक नहीं कि देशभर में व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए तत्पर उच्चतम न्यायालय की प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था इनगंभीर मामलों की जांच सही तरीके से करने में असमर्थ नजर आए। सवाल केवल न्याय का नहीं, न्याय के तरीके का भी है। उम्मीद है कि दोनों मामलों-महिला के आरोपों और साथ ही न्यायपालिका में फिक्सिंग के आरोपों की जांच जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंचेगी। जांच का नतीजा जो भी हो, अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसलिए और भी नहीं कि जहां महिला के आरोप सनसनीखेज हैं वहीं खुद उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। उस पर आरोप है कि उसने मुख्य न्यायाधीश से नजदीकियों का हवाला दे सुप्रीम कोर्ट में गु्रप-डी में भर्ती कराने के लिए किसी से पैसे लिए। जब उसने नौकरी न मिलने पर अपने पैसे मांगे तो उसे धमकाया गया। इस मामले में एफआईआर दर्ज होने के बाद दिल्ली पुलिस जांच कर रही है।

महिला के आरोप सामने आने पर आहत मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि इन घिनौने आरोपों के बाद अच्छे लोग जज बनना पसंद नहीं करेंगे, लेकिन यह बात तो अक्सर उठती है कि कुछ चुनिंदा परिवारों से जुड़े लोग न्यायपालिका पर हावी हैं। इसी तरह यह बात तो बहुत पुरानी है कि आखिर न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे कर देते हैं? यह भी ध्यान रहे कि देश में आज तक एक भी न्यायाधीश महाभियोग की प्रक्रिया के तहत हटाया नहीं जा सका है। नेता, अफसर, सरकार और एनजीओ के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश को लोकपाल बना दिया गया, पर न्यायाधीशों के गलत आचरण पर लगाम लगाने के लिए सक्षम शिकायत निवारण तंत्र भी नहीं बनाया गया है। आखिर ऐसा क्यों है?

न्यायाधीशों को नि:शुल्क आवास, पानी, बिजली, फोन, चपरासी, वाहन, मेडिकल, विदेश यात्रा, पेंशन समेत वेतन भी मिलता है। ऐसे में उनकी भी जवाबदेही बनती है। ताजा विवाद के बाद एक बार फिर से न्यायाधीशों के बच्चों और रिश्तेदारों पर सवाल उठ रहे हैं, जो वकालत करते हैं। आज जब आम चुनावों के चलते नेताओं और राजनीतिक दलों पर आचार संहिता लागू है तब संविधान के संरक्षक के नाते न्यायाधीशों और उनके परिवारजनों के लिए भी न्यायिक आचार संहिता बनना समय की मांग है।

संविधान के तहत देश में सभी नागरिक बराबर हैं। न्यायाधीश भय और पक्षपात के बगैर सही न्याय कर सकें इसलिए उन्हें अनेक विशेषाधिकार दिए गए हैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर सरकार और संसद को तो न्यायाधीशों द्वारा धता बता दिया गया, लेकिन कोलेजियम व्यवस्था जस की तस लागू है। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक महिला के यौन उत्पीड़न और एक वकील के फिक्सिंग संबंधी आरोपों के मामलों में सच सामने लाना एक बड़ी चुनौती है। उच्चतम न्यायालय को इस चुनौती का सामना करना ही होगा। उसे यह भी देखना होगा कि न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही कैसे बढ़े? ऐसा होने पर ही उच्चतम न्यायालय की साख का संकट दूर होगा।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)