नई दिल्ली [ राजकिशोर ]। इच्छामृत्यु को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में गैर सरकारी संगठन-'कॉमन कॉज' ने कहा था, 'किसी भी आदमी से यह कैसे कहा जा सकता है कि उसे अपने शरीर पर हो रहे या होने वाले अत्याचार को रोकने का अधिकार नहीं है? जीने के अधिकार में गौरव के साथ मरने का अधिकार शामिल है। किसी भी आदमी को वेंटिलेटर की सहायता से जीने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। किसी भी रोगी को उसकी इच्छा के विरुद्ध कृत्रिम साधनों से जीवित रखना उसके शरीर पर अत्याचार है।' यह जनहित याचिका 2005 में दाखिल की गई थी। इस 9 मार्च को फैसला आ गया, जिसमें इस याचिका को स्वीकार कर लिया गया। यह दुर्भाग्य की बात है कि उच्चतम न्यायालय को इस निर्णय पर पहुंचने में पूरे 12 साल लग गए। इस बीच कई लोगों ने पत्र लिख कर राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की अनुमति देने का आग्रह किया, लेकिन वे असहनीय कष्ट से गुजरते रहे और अपना जीवन समाप्त नहीं कर सके, क्योंकि राष्ट्रपति से उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला।

कष्टमय जीवन से मुक्ति पा सकते हैं

अब वे चाहेंगे तो अपने कष्टमय जीवन से मुक्ति पा सकेंगे। निश्चय ही मामला पेचीदा है, क्योंकि इसका संबंध जीवन और मरण से है, लेकिन उतना जटिल भी नहीं है, क्योंकि जब मृत्यु अपरिहार्य हो और शरीर बहुत कष्ट में हो तब जीते रहने का या किसी को जिलाए रखने का कोई औचित्य नहीं है। यह सही है कि मरना कोई नहीं चाहता। कई बार हम इतनी दर्द-भरी परिस्थितियों में आ जाते हैं कि पुकार उठते हैं, हे ईश्वर, मुङो उठा ले, लेकिन वास्तव में यह मरने की इच्छा नहीं है। यह कष्ट की पराकाष्ठा का परिणाम है, जिसे हम अक्सर सहन नहीं कर पाते। ऐसी परिस्थितियों में अनेक लोग आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगते हैं और कुछ लोग इसकी कोशिश भी करते हैं, लेकिन यह चरम हताशा की अभिव्यक्ति है और लोग जल्द ही इससे उबर भी जाते हैं और जीवन संघर्ष में लग जाते हैं।

जीवन और मृत्यु के बीच अनिवार्य संबंध है

'कॉमन कॉज' इस तरह की स्थितियों में आत्म-मृत्यु का समर्थन नहीं करता, लेकिन वह यह जरूर मानता है कि जब शरीर मेडिकल स्तर पर जवाब दे दे और आगे अपरिहार्य रूप से यंत्रणा ही यंत्रणा दिखे तो अपनी ओर से आगे बढ़कर मृत्यु का आलिंगन करने में ही मनुष्य की गरिमा है। जैसा कि इस मामले का निर्णय करने वाले पांच-सदस्यीय पीठ में से एक जज ने कहा, जीवन और मृत्यु के बीच अनिवार्य संबंध है और एक को छोड़कर दूसरे के बारे में सोचा नहीं जा सकता। इच्छामृत्यु की तुलना आत्महत्या से नहीं की जा सकती। आत्महत्या व्यक्ति द्वारा अपने जीवन का अंत है। अभी भी मान्यता यही है कि जीवन व्यक्ति का अपना नहीं है। वह प्रकृति या ईश्वर का वरदान है और मृत्यु भी प्रकृति या ईश्वर के अधीन होनी चाहिए, फिर कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं होता। उसके पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक संबंध होते हैं। इन क्षेत्रों में उसकी जिम्मेदारियां भी होती हैं।

अच्छा जीवन जीने वाला ही अच्छी मृत्यु की कामना कर सकता है

अगर कोई आदमी किसी निर्जन टापू में रहता है और वह अपने जीवन का अंत कर लेता है तो इससे दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन समाज में रहने वाले व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के अनेक अवांछित परिणाम हो सकते हैं। आत्महत्या के निर्णय से उबर जाने वाला व्यक्ति फिर सार्थक जीवन जी सकता है और पछता सकता है कि उसने कभी मरने के बारे में सोचा था। इसके विपरीत इच्छामृत्यु की जरूरत तब पड़ती है जब चिकित्सक इस निर्णय पर पहुंच गए हों कि रोगी का बचना असंभव है और मृत्यु ही उसे असह्य शारीरिक कष्ट से छुटकारा दिला सकती है। यह दौड़कर मौत को गले लगाना नहीं है, बल्कि होश में रहते हुए ही यह फैसला कर लेना है कि अचेतावस्था में और कृत्रिम साधनों की सहायता से कुछ और महीनों या वषों तक जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं है। वास्तव में इस तरह के निर्णय से मनुष्य के जीवन में गरिमा आती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अच्छा जीवन जीने वाला ही अच्छी मृत्यु की कामना कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु को व्यक्ति के अधिकार के रूप में स्वीकार किया है

अच्छे ढंग से मरना अच्छे जीवन का एक आवश्यक अंग है, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इच्छामृत्यु को व्यक्ति के अधिकार के रूप में स्वीकार किया है, सार्वजनिक नीति के रूप में नहीं। अर्थात अभी भी आदर्श यही रहेगा कि मृत्यु से बचाने के लिए तमाम चिकित्सकीय उपाय किए जाएं और दवा या सेवा-सुश्रषा के अभाव में किसी को मरने के लिए न छोड़ दिया जाए। ऐसा करना मानवता के प्रति अपराध होगा। प्रत्येक मनुष्य जीना चाहता है। कह सकते हैं, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जीना चाहता है। साधनों के अभाव में उसे मरना पड़े, यह एक विकृत स्थिति है। किसी भी समाज में ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होनी चाहिए, बल्कि कहिए कि यह एक अच्छे समाज की अनिवार्य पहचान है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी अंतिम सांस तक जिलाए रखने का प्रयास करता है।

इच्छामृत्यु का प्रावधान अनिच्छित मृत्यु के लिए नहीं है

इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इच्छामृत्यु का प्रावधान अनिच्छित मृत्यु के लिए नहीं है यानी यह नहीं होना चाहिए कि कोई मरणासन्न रोगी अपने खर्चे से इलाज नहीं कर सकता या उसके परिवार के लोग उसके उपचार का खर्च वहन नहीं कर सकते तो उसका इलाज नहीं किया जाए और उसे मरने के लिए छोड़ दिया जाए। उसके इलाज का खर्च सामाजिक संस्थाओं या सरकार को उठाना चाहिए, लेकिन ऐसी भी परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं जब कोई साल-दर-साल कोमा में पड़ा रहे। आखिर ऐसे उदाहरण हैं कि 10-10, 15-15 वर्षो तक कोमा में रहने के बाद लोग होश में आए हैं और स्वस्थ जीवन जी सकने में सक्षम हुए हैं। ऐसे मामलों में क्या किया जाए, यह एक नैतिक दुविधा का मामला है। अगर उसके परिवार के लोग या वारिस अनंत काल तक इंतजार कर सकते हैं और ऐसे व्यक्ति को जीवित रखने का खर्च वहन कर सकते हैं तो इसकी अनुमति अवश्य मिलनी चाहिए, लेकिन जब मामला सरकारी खर्च का हो तब व्यावहारिकता की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। किसी भी सरकार के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए अनंत राशि नहीं होती। अत: उसे तय करना ही पड़ेगा कि कुछ रोगियों को अनिश्चित समय तक वेंटिलेटर पर रखने का खर्च वहन किया जाए या एक तय अवधि के बाद 'होपलेस केस' मान कर पैसा बचाया जाए ताकि अन्य ऐसे रोगियों का इलाज किया जा सके, जिनका जीवन बचाया जा सकता है। यह अवधि क्या हो, यह एक कठिन प्रश्न है, क्योंकि रोज नई-नई जीवनरक्षक दवाओं का आविष्कार हो रहा है।

[ लेखक साहित्यकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]