संजय गुप्त

भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज की ताजा रपट भाजपा के साथ-साथ मोदी सरकार की शान बढ़ाने वाली है। 13 वर्ष बाद मूडीज ने भारत की आर्थिक सेहत में सुधार पर मुहर लगाई है। इसके साथ ही यह नए सिरे से प्रमाणित हो गया कि मोदी सरकार की ओर से किए जा रहे आर्थिक सुधार सही दिशा में भी हैं और फलदायी भी। यह रेटिंग एक ऐसे समय आई है जब अर्थव्यवस्था की हालत को लेकर कांग्रेस समेत कुछ अन्य विपक्षी दल मोदी सरकार पर हमले कर रहे थे। हालांकि उनकी आलोचना राजनीतिक ही अधिक थी, लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार कुछ दबाव का अनुभव कर रही थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली मई 2014 से ही अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता लाने और कारोबार का बेहतर माहौल कायम करने के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके लिए सबसे अधिक आवश्यक यह था कि काले धन के रूप में जो समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है उसे समाप्त किया जाए। यह काम नोटबंदी के फैसले ने बखूबी किया। इसके बाद वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी ने पूरे देश में टैक्स की समान प्रणाली का दशकों पुराना सपना साकार किया। हालांकि जीएसटी के ढांचे में अभी भी कुछ खामियां हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि उन्हें तत्परता के साथ दूर किया जा रहा है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के साथ आधार ने भी आर्थिक तस्वीर बदलने में अहम भूमिका निभाई है। आधार से न केवल अरबों रुपये की सब्सिडी की बर्बादी पर अंकुश लगा, बल्कि उसका लाभ सही लोगों तक पहुंचाने का उद्देश्य भी पूरा हुआ।


नोटबंदी और जीएसटी को लेकर व्यापारियों के एक वर्ग में कुछ नाराजगी और साथ ही भ्रांतियां रही हैं, लेकिन अब जब इन दोनों फैसलों पर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक विशेषज्ञ भी अपनी मुहर लगा रहे हैं तो उनके संदेह भी दूर हो रहे हैं। आम तौर पर इन दोनों फैसलों का विरोध उन्हीं व्यापारियों ने किया जिन्हें दो नंबर का लेन-देन रास आ रहा था। वे हमेशा व्यवस्था में पारदर्शिता का विरोध करते रहे, लेकिन मोदी ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मोदी सरकार ने नोटबंदी सरीखा कदम राजनीतिक जोखिम के बावजूद उठाया। उन्हें इस फैसले का राजनीतिक लाभ भी मिला। काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था किसी भी देश के लिए उचित नहीं होती। एक तो इससे सरकार को टैक्स के रूप में जो लाभ होना चाहिए वह नहीं होता और दूसरे, जनकल्याण के कार्य भी प्रभावित होते हैं। जब काले धन पर अंकुश लगता है तो इसका सीधा लाभ सरकार को टैक्स के रूप में मिलता है। इससे वह गरीबों के कल्याण वाली योजनाएं चला सकती है और विकास के कहीं अधिक काम करा सकती है। जब समाज के सभी वर्गों का उत्थान होता है तभी देश समृद्ध और शक्तिशाली बनता है। आखिर जब सभी इससे परिचित हैं कि समस्त आधारभूत ढांचा टैक्स के पैसों से ही खड़ा किया जाता है तब फिर टैक्स व्यवस्था को दुरुस्त करने वाले उपायों के विरोध का क्या औचित्य?
वर्तमान में किसी भी देश में निवेश की इच्छा रखने वाली विदेशी कंपनियां यह चाहती हैं कि वहां अर्थव्यवस्था का संचालन पारदर्शी तरीके से हो। इसके प्रति आश्वस्त होने के बाद ही वे अपने कदम बढ़ाती हैं। इसे देखते हुए मोदी सरकार ने बड़े और साहसिक आर्थिक सुधारों का बीड़ा उठाया। अब जब इन सुधारों पर एक स्वतंत्र और अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाली रेटिंग एजेंसी ने अपनी मुहर लगा दी है तब उन सभी लोगों को दुष्प्रचार से बचना चाहिए जो देश की आर्थिक हालत पर आधारहीन तर्कों के सहारे राजनीतिक रोटियां सेंक रहे थे। यह गौर करने लायक है कि आर्थिक स्थिति की आलोचना विपक्षी दलों के साथ-साथ भाजपा के भी कुछ पूर्व नेता कर रहे थे। इनमें सबसे प्रमुख नाम यशवंत सिन्हा का है, जो खुद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्तमंत्री थे। यह संयोग ही है कि 2004 में वाजपेयी सरकार के समय ही मूडीज ने भारत की रेटिंग बढ़ाई थी। यशवंत सिन्हा को बताना चाहिए कि तब उन्होंने उसका स्वागत किया था या नहीं?
मूडीज की रेटिंग आने के बाद मोदी सरकार का उत्साहित होना स्वाभाविक है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात विधानसभा चुनाव मोदी के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं। नोटबंदी और जीएसटी को मुददा बनाकर कांग्रेस मोदी सरकार पर हमले कर रही है। इस हमले की अगुआई खुद राहुल गांधी कर रहे हैं। वह शायद इसलिए मुखर और आक्रामक हैं, क्योंकि ऐसी दलीलें देना शुरू कर दी गई हैैं कि जीएसटी के अमल में गड़बड़ियों के चलते भाजपा को गुजरात में नुकसान उठाना पड़ सकता है। आम तौर पर ऐसी दलीलें उन्हीं लोगों द्वारा दी जा रही हैैंं जो गुजरात की प्रकृति से परिचित नहीं हैं। गुजरात में चुनावी समीकरण एकदम अलग होते हैं। वहां गुजरात की अस्मिता का सवाल सबसे अधिक अहम होता है। इस मामले में भाजपा स्वाभाविक रूप से कांग्रेस से आगे है। यह भी स्पष्ट है कि मूडीज की रेटिंग के कुछ त्वरित लाभ दिखने लगे हैं, जैसे रुपया मजबूत हुआ है। इसका असर गुजरात के चुनाव पर पड़ना चाहिए। वैसे भी भाजपा अपनी इस उपलब्धि को चुनाव में भुनाना चाहेगी।
तीन सालों से लगातार एक के बाद एक हार का सामना करने के साथ अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस को गुजरात में अपनी रणनीति फिर से निर्धारित करनी चाहिए, क्योंकि उसके लिए आर्थिक मोर्चे पर सरकार की तार्किक आलोचना करना मुश्किल हो गया है। फिलहाल कांग्रेस के पास कोई वैकल्पिक एजेंडा नजर नहीं आ रहा है। वह अब तक राहुल गांधी के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकी है कि उन्हें कांग्रेस की कमान कब सौंपनी है? कांग्रेस ने गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर देने और इसी आधार पर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह फिर से बनाने की योजना बनाई थी, लेकिन लगता है कि मूडीज की रेटिंग ने उसका खेल भी खराब कर दिया। इस रेटिंग पर सवाल उठाने से पहले कांग्रेस को खुद इसका जवाब देना होगा कि उसके नेतृत्व में दस साल चली सरकार के समय भारत की आर्थिक साख क्यों नहीं सुधर सकी थी? कांग्रेस को यह भी बताना होगा कि संप्रग के दस साल के शासनकाल में घपले-घोटालों के साथ-साथ जो नीतिगत निष्क्रियता आई उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? यह इस निष्क्रियता का ही परिणाम रहा कि मूडीज समेत कई रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रैंकिंग गिरा दी।
संप्रग के पूरे शासनकाल में भारत की रेटिंग में कोई सुधार नहीं हो सका तो इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि संप्रग सरकार से जिन आर्थिक सुधारों की अपेक्षा थी वे नहीं किए जा सके। मोदी ने सत्ता संभालने के बाद अपनी प्राथमिकताओं में आर्थिक सुधारों को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा। यह सही है कि मूडीज ने 2015 में मोदी सरकार की रीति-नीति से असहमति जाहिर की थी, लेकिन आखिरकार वह भारत की प्रगति को स्वीकार करने के लिए विवश हुई। इसका श्रेय मोदी सरकार की सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता को ही जाता है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]