[ कृपाशंकर चौबे ]: फिल्मकार मृणाल सेन के निधन के साथ ही समानांतर सिनेमा के एक युग का अवसान हो गया है। चालू सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है जो सपनों के जाल में हमें भरमाती नहीं, बल्कि जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ से हमारा साक्षात्कार कराती है। सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के शिल्पकारों में एक थे मृणाल सेन। वह सत्यजित रे और ऋत्विक घटक के समकालीन सहयात्री थे। भारत में कला फिल्मों की शुरुआत बांग्ला फिल्म ‘पथेर पांचाली’ (1955) से मानी जाती है जिसके निर्देशक सत्यजित रे थे। इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत ‘भुवन शोम’ (1969) से मानी जाती है जिसका निर्देशन सेन ने किया था। सेन की पहली फिल्म ‘रातभोर’ 1956 में आई थी और आखिरी फिल्म ‘आमार भुवन’ पंद्रह साल पहले 2003 में आई थी।

सेन भाषा बंधन की अनूठी मिसाल पेश करने वाले फिल्मकार थे। उन्होंने अपनी मातृ भाषा बांग्ला के अलावा उड़िया, तेलुगु और हिंदी में भी फिल्में बनाईं। उन्होंने महादेवी वर्मा की कहानी ‘चीनी फेरीवाला’ पर 1958 में बांग्ला में ‘नील आकाशेर नीचे’ शीर्षक से फिल्म बनाई थी तो 1966 में कालिंदीचरण पाणिग्रही के उपन्यास ‘माटीर मनीश’ पर इसी शीर्षक से उड़िया में फिल्म बनाई और 1977 में प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर तेलुगु में ‘ओका ओरि कथा’ बनाई थी। कुल 28 फीचर फिल्मों का निर्देशन करने वाले मृणाल दा के खाते में ‘एक अधूरी कहानी’, ‘मृगया’, ‘खंडहर’, ‘जेनेसिस’ और ‘एक दिन अचानक’ जैसी श्रेष्ठ हिंदी फिल्में भी हैं।

दिलचस्प यह है कि सेन को हिंदी नहीं आती थी। फिर भी फिल्म निर्देशन में उनके समक्ष भाषा की समस्या कभी आड़े नहीं आई। जिस भाषा में उन्होंने फिल्म बनाई तो उसकी लोकोक्तियों का बखूबी उपयोग किया। जिस भाषा में मृणाल दा फिल्म बनाते थे तो सबसे पहले वहां के मुहावरे और लोक व्यवहार में ढल जाते थे। वैसे यदि एक भाषा की लोकोक्तियां दूसरी भाषा में आएं तो जाहिर है कि दूसरी भाषा को भी वे समृद्ध करेंगी।

स्थानीय लोक व्यवहार पर जोर देने के अलावा वह हमेशा अपनी हर फिल्म को तीन कसौटियों पर कसते थे। एक जनोन्मुख पटकथा, जिस पर फिल्म आधारित होती थी। दूसरी कला और शैली-जिनमें अभिनय कौशल और दृश्य पर ध्यान दिया जाता था और तीसरा-समय। सेन अपनी हर फिल्म को वर्तमान से जोड़ते थे। फिल्म जब अपने समय से जुड़ती है तभी प्रासंगिक बनती है। कदाचित इन कसौटियों पर कसने के कारण ही उनकी हर फिल्म शाश्वत फिल्म बन गई। उसमें शिल्प और कथ्य का तो योगदान था ही, उसके अलावा मोहक छायांकन, विलक्षण रंगबोध और दृश्य संयोजन को वह अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से समृद्ध कर देते थे। सेन की फिल्मों, तीन वृत्त चित्रों और दो टेली फिल्मों पर यह बात मुफीद बैठती है।

मृणाल दा की फिल्में हिंसा-प्रर्तिंहसा के भयावह वर्तमान परिवेश में मनुष्य को बचाने की चिंता शिद्दत से अहसास कराती हैं। यही चिंता उनकी राजनीतिक फिल्मों ‘इंटरव्यू’, ‘कलकत्ता-71’ और ‘पदातिक’ में मुखर होती है। यह चिंता उनकी आखिरी फिल्म ‘आमार भुवन’ में तो एक मूल्य ही बन गई। ‘आमार भुवन’ के आरंभ में ही युद्ध, दंगे और असहाय बच्चे की तस्वीर आंखों के सामने तैर जाती है। यह दृश्य सिर्फ दो मिनट का है, किंतु विचारणीय है कि क्या यह आज के समय की सबसे बड़ी वैश्विक सच्चाई नहीं है?

कहना न होगा कि यही सच्चाई ही मनुष्य से उसकी पहचान छीन रही है, उसके बचे रहने की संभावना को क्षीण कर रही है। और तो और उसे मानव बम बना रही है। विध्वंस के दृश्यों के बीच पर्दे पर मोटे-मोटे अक्षरों में एक पंक्ति उभरती है-‘पृथ्वी भांगछे, पुड़छे, छिन्न-भिन्न होच्छे। तबू मानुष बेंचे थाके ममत्वे, भालोबासाय, सहमर्मिताय।’ यानी ‘पृथ्वी टूट रही है, जल रही है, छिन्न-भिन्न हो रही है। तब भी मनुष्य बचा रहता है, ममत्व, प्यार और संवेदना के कारण।’ टूटती-जलती छिन्न-भिन्न होती पृथ्वी के दृश्य दिखाने के बाद फिल्म दर्शकों को उस लोक में ले जाती है, जहां हिंसा नहीं है, प्रति हिंसा नहीं है, विद्वेष नहीं है, वातावरण विषाक्त नहीं है। उस लोक में गरीबी के बावजूद ममत्व है, प्यार है, संवेदना है और एक-दूसरे को समझने की इच्छा बची हुई है।

बंगाल में हम रोज किसी न किसी माता-पिता के मुंह से सुनते हैं-‘छेले-मे के मानुष कोरते होबे।’ यानी सिर्फ पढ़ाना-लिखाना पर्याप्त नहीं, मानुष बनाना जरूरी है। इसी दृष्टि को आत्मसात करने के कारण सेन के यहां समानांतर सिनेमा एक नई चमक से आलोकित हुआ। हर तरह के शोषण, दरिद्रता और वैषम्य को आमूलचूल खत्म करने की आतुरता उनकी फिल्मों में है।

अपनी फिल्मों में हर गंभीर प्रश्न पर सुचिंतित ढंग से विचार करते हुए सेन एक तार्किक परिणति पर पहुंचते थे। अपने अनूठे कौशल, विशिष्ट कला मुद्राओं और मौलिक चिंतन से उन्होंने संसार-भर के फिल्म समालोचकों और दर्शकों को चमत्कृत किया। सेन अपनी फिल्मों में जीवन, समाज और राजनीति की पृष्ठभूमि में मनुष्य की समस्याओं को पकड़ते थे। किसी समस्या को छोटा कर नहीं देखते। उनकी फिल्मों में जीवन और समाज का जटिल विन्यास बार-बार घूम-फिर कर आता है। मनुष्य के जीवन में आने वाली समस्याओं, घटनाओं, दुर्घटनाओं, पारिवारिक और सामाजिक प्रश्नों के जरिये वह तह तक पहुंचते थे और दर्शकों को भी विभिन्न प्रतीकों, बिंबों, संवादों, दृश्यों और चरित्रों के जरिये जरूरी सवालों के भीतर प्रवेश करने, सोचने-विचारने और कुछ करने को प्रेरित करते थे। उनमें बेचैनी पैदा करते थे और कई बार उकसाते भी थे।

उनकी सामाजिक संदर्भों को तलाशती फिल्में हों या राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में, वे अपने समय के सवालों से टकराती हैं, साथ ही समय की सीमा पार कर आगे बढ़ जाती हैं। कहना न होगा कि मनुष्य के सामाजिक, मानवीय और सांस्कृतिक संदर्भों में सिनेमा को गूंथकर सेन ने जता दिया कि भविष्य के लिए दृष्टि और दिशा देने में ही सिनेमा की सार्थकता है। उनकी प्रत्येक फिल्म सच्चाई की प्रतिकृति है और फॉर्मूला फिल्मों के विरुद्ध रचनात्मक प्रतिरोध भी। मुनाफे और शोहरत की धारा में भी वह नहीं बहे, तभी सिनेमा को सृजनात्मक समृद्धि दे सके। लंबे समय तक सार्थक फिल्में बनाते जाना काफी कठिन काम है। और हम जानते हैं, यह काम मृणाल सेन ने बखूबी किया। सिनेमा को विश्वसनीय पहचान देने का काम उन्होंने उस कालखंड में किया, जब मनुष्य की चेतना को ठूंठ बनाने के लिए लोकप्रिय सिनेमा आकुल-व्याकुल था। यह भाव अब भी है, इसलिए सार्थक सिनेमा की आवश्यकता बनी हुई है, वह हमेशा रहेगी। मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों की प्रासंगिकता का यह सबसे बड़ा प्रमाण है।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के अधिष्ठाता हैं )