वह एक बड़े लेखक-कम-संपादक हैं। इसका विन्यास करके आप यह कतई अंदाजा न लगा लें कि वह एक कमतर संपादक हैं, बल्कि यूं कहिए कि वह संपादन की चौसठ कलाओं से युक्त होकर ही लेखन में लगातार अपनी बत्तीसी निकाले हुए हैं। खांटी भारतीय नेता की तरह वह सर्वसुलभ भी हैं और दुर्लभ भी। सौभाग्य से अपन के अंशकालिक मित्र भी हैं। अंशकालिक यूं कि घोर मित्रता के पलों में कई बार अर्ध-विराम लग जाता है पर अंतरंग मित्रता अभी तक अटूट है। उनसे जब बात नहीं होती है तब भी उनकी ही बात होती है। वह भी अपने संपर्को से लगातार हमारी खोज-खबर रखते हैं। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह होता है कि कहीं उनके विरोधी गुट से हमारे तार तो नहीं जुड़ गए! उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि जनसंपर्क का इस समय सबसे बड़ा साधन बेतार का तार है, जो 24 घंटे ‘मोबाइल’ रहता है। कई दिनों के बाद उन्हें फोन मिलाया। हालचाल का आदान-प्रदान होता, इससे पहले कहने लगे-‘फोन कर लिया करो भाई। मित्रता में इतना लंबा अंतराल ठीक नहीं। नियत समय पर इसे रीचार्ज करना जरूरी होता है। समय और साहित्य किसी का इंतजार नहीं करते। मैं तो लेखक हूं। इसी रूप में अवतरित हुआ हूं। ईश्वर ने इसी काम के लिए हमें यहां भेजा है। हम तो निमित्त मात्र हैं।

अपने मिशन में हम किसी को बाधक नहीं बनने देते। तुम भी मत बनो। तुम्हें भी कहीं न कहीं अब तक खपा देता पर तुममें आसक्ति की कमी है। लेखन में यह सबसे जरूरी चीज है। तुमसे हमारा विशेष स्नेह है, सो बता रहा हूं। रसों का अध्ययन करिए, रसीले बनिए और साहित्य को उसी तरह बनाइए जैसे हम ‘बना’ रहे हैं।’1मेरे गले से आवाज उसी तरह नहीं निकल पा रही थी जैसे नोटबंदी के वक्त एटीएम से रुपये नहीं निकल रहे थे। फिर भी कालेधन सी चपलता दिखाते हुए मैंने आशा का आंचल नहीं छोड़ा। उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला-‘मुङो साहित्य के छूटने का दु:ख नहीं है। यह साहित्य का दुर्भाग्य है कि वह मुझसे अभी तक वंचित है। मेरे लिए तो आप ही साहित्य हैं। मैं आपके पिछले संग्रह पर शोधकार्य में जुटा था। वह काम लगभग तैयार भी हो गया है। यह तो बीच में नोटबंदी ने मार दिया। इसी सब में मैं कब साहित्य-विमुख हो गया, पता ही नहीं चला। मालूम नहीं मुझे इसका कितना दंड भुगतना पड़ेगा, परंतु इसकी चिंता नहीं है।

साहित्य-विमुख होकर तो केवल यश-हानि होती, लेकिन आपसे विमुख होकर मेरा सर्वनाश निश्चित है। यकीन मानिए, मेरे पास कोई चकमक पत्थर नहीं है पर मैं रोज सोते समय आपकी किताब सिरहाने रखकर सोता हूं। पता नहीं कब उसमें लिखे पन्नों पर मेरे भाग जाग जाएं!’ लेखक बड़े हैं, इसलिए पर्याप्त मात्र में भले भी हैं और दयालु भी। तुरंत द्रवित हो उठे। कहने लगे-किताबों का क्या है! कहो तो पुस्तक-मेले में एक साथ दस की दस उतार दूं! पर इससे तुम्हारी सेहत बिगड़ सकती है। साहित्य का इतना ‘अटैक’ तुम सह नहीं पाओगे। तुम्हें सदमा लग सकता है। फिर भी तुम अपना बजट देख लो, मैं विमोचन करवा दूंगा। तुम तो हमारे अनुज भी हो। हमेशा मेरे पीछे चलते हो। स्वजन तो हो ही। राजनीति और साहित्य में स्वजन ही सज्जनता धारण करते हैं। इसीलिए तुम सभी तरह से सुपात्र हो।

जो पुस्तकें प्रेस में चली गई हैं, कहो तो उन्हें भी रुकवा दूं। इसके लिए बस एक ‘दुर्जन’ साहित्यकार को निपटाना पड़ेगा। पर इससे साहित्य का ही भला होगा। वह पहले भी कई बार छपकर साहित्य को घेर चुका है। इससे समाज में कौन-सी क्रांति आ गई! तुम छपोगे तो साहित्य को एक उदीयमान लेखक मिलेगा। वरिष्ठ आलोचकों को साहित्य में संभावनाओं की झलक दिखाई देगी। आलोचना को भी संबल मिलेगा। जिस संग्रह में तुम आओगे, वह आने से पहले ही विवादित कर दूंगा। ऐसी-ऐसी जगह तुम्हें ‘हिट’ करूंगा कि प्रकाशित होने से पहले ही किताब ‘हिट’ हो जाएगी। विमोचन के बाद तो साहित्य भी आतंकित होगा। मेरा क्या, मैं तो लेखक हूं।’ उनसे इतनी भावुकता की अपेक्षा नहीं थी। पर महान लोग वही हैं जो अपेक्षा से बढ़कर काम करें। गेंद उन्होंने मेरे पाले में फेंक दी थी, मुङो सिर्फ लपकना भर था। मैंने अंगार बनने की पुष्टि करते हुए दो-चार वरिष्ठों के माता-पिता को सादर याद किया और ख़ुद को साहित्य के सुनहरे भाड़ में झोंकने का संकल्प ले डाला।

अगली शाम हम दोनों कॉफी-हाउस में टकराए। साहित्य के फलने-फूलने का ‘फुल’ इंतजाम था। हमने दो-दो जाम गटककर साहित्य की जड़ता पर जमकर प्रहार किया। चलते समय मित्र से गले मिलकर रोने लगा। वह दोबारा भावुक हो गए। कहने लगे-‘आज तुम्हें एक मंत्र दे रहा हूं। दिमाग में बांध लो। जब भी तुम पर साहित्य से विमुख होने का अश्लील आरोप लगे, बस यही दोहराना कि मैं तो लेखक हूं। तुम्हारे सात ख़ून माफ हो जाएंगे। साहित्य निखर उठेगा। अब इससे ज्यादा मुझसे उम्मीद मत करो। मैं स्वयं एक लेखक हूं।’ बस तभी से हम यह जाप कर रहे हैं और साहित्य की सीढ़ियां लगातार चढ़ रहे हैं। उनकी ‘निर्मल-किरपा’ से अब मैं भी लेखक हूं।