जगमोहन सिंह राजपूत

भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति निर्मित करने के लिए टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में जो समिति बनाई गई थी उसने बनारस से लेकर गाजीपुर तक की यात्रा कार से की थी। रास्ते में एक सरकारी स्कूल में समिति के सदस्यों ने औचक जाकर निरीक्षण किया और छात्रों एवं अध्यापकों से चर्चा की। स्कूल भवन में कई जगहों पर कुछ नाम लिखे थे; जैसे भास्कर खंड, पतंजलि खंड, आर्यभट्ट खंड, भास्कराचार्य खंड आदि। समिति के सदस्यों ने वहां से विदा लेते समय विज्ञान के एक अध्यापक से पूछा कि बच्चे आर्यभट्ट या भास्कराचार्य के बारे में उनसे किस प्रकार के प्रश्न करते हैं? सबसे पहले जो उत्तर मिला वह यह था कि बच्चे इन नामों के बारे में कभी कोई प्रश्न नहीं करते। दूसरे अध्यापक ने भी करीब-करीब ऐसा ही कहा। उनके ऐसे जवाब के बाद समिति के एक सदस्य ने उन दोनों शिक्षकों से कहा कि कोई बात नहीं, आप ही मुझे बता दीजिए कि आर्यभट्ट या भास्कराचार्य कौन थे और उनका नाम भवन पर क्यों लिखा है? दोनों अध्यापकों ने बिना हिचक वहां लिखे किसी भी नाम के बारे में कोई जानकारी होने से अनभिज्ञता प्रकट की। इसके बाद की यात्रा में समिति के सदस्य एक इंटरमीडिएट कॉलेज में गए। वहां रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला में पाया कि कक्षा 12 के विद्यार्थी तीन-चार के समूह में एक किताब से नकल कर रहे थे। बताया गया कि वे रसायन शास्त्र की यूपी बोर्ड की परीक्षा दे रहे हैं। प्रयोगशाला में प्रयोग कर सकने के लिए किसी प्रकार की कोई सामग्री थी ही नहीं! बाह्य परीक्षक आए नहीं थे और संस्था के वे अध्यापक महोदय भी कहीं अन्य व्यस्त थे जिनका उत्तरदायित्व साल भर प्रयोग कराने का था। यहां यह भी पता चला कि भौतिकी की प्रायोगिक बोर्ड परीक्षा कल संपन्न हो गई है। उस प्रयोगशाला में जाकर देखने पर दो भौतिक तुला और तीन-चार टूटे हुए पोटेंसियोमीटर ही दिखाई दिए। बताया गया कि अन्य उपकरण सुरक्षा कारणों से अलमारी में बंद हैं। अभी उसे खोला नहीं जा सकता। समिति के सदस्यों ने एक-दूसरे की ओर देखा। साथ में शिक्षा विभाग के कई बड़े अधिकारी भी थे। वे दूसरी ओर देखने लगे। किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा।


बनारस के उक्त अनुभव के कुछ दिन बाद बिल्कुल वैसा ही सब कुछ रायपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर एक स्कूल में देखने को मिला। दरअसल तथ्य यह है कि जिन स्कूलों विशेषकर बड़े नाम वाले निजी स्कूलों में प्रयोगशालाएं उचित स्तर पर साधन संपन्न हैं वहां भी ध्यान तो लिखित बोर्ड परीक्षा पर ही रहता है, जिसमें अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में ‘सारा समय लगाना पड़ता है।’ आज कई राज्यों में यही स्थिति है। विज्ञान में प्रयोग करने को पूरी तरह से निरस्त कर दिया गया है। बच्चों को प्रायोगिक विज्ञान में अधिक रुचि होती है। यदि अध्यापक थोड़ा उत्साहित करें तो वे प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। उनका उत्तर ढूंढ़ने में साथ देकर अध्यापक उनकी प्रतिभा को पंख दे सकते हैं। सृजनात्मकता के इस प्रकार के विकास में वही अध्यापक सहायता कर सकता है जिसने स्वयं अपनी जिज्ञासा को बचाए रखने में सफलता पाई हो और जिसकी अध्ययन एवं अध्यापन में रुचि हो। दुर्भाग्य यह है कि विज्ञान की पाठ्यपुस्तक पढ़ाते समय भी प्रश्न पूछने को उत्साहित करने के बारे में सवाल करने पर यही जवाब मिलता है कि ‘समय ही कहां होता है?’ वैसे अनेक स्थानों पर विज्ञान की स्तरीय शिक्षा दी भी जा रही है। अनेक अच्छे वैज्ञानिक विषम परिस्थितियों में भी स्वाध्याय के बलबूते पर आगे बढे़ हैं। देश और विदेश में हमारे वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है। देश को उन पर और अपने वैज्ञानिक संस्थानों के योगदान पर गर्व है। 21वीं शताब्दी में स्कूलों में विज्ञान शिक्षण का सार्वजनीकरण होना आवश्यक है और इसे राष्ट्रीय उत्तरदायित्व माना जाना चाहिए। केवल कंप्यूटर का उपयोग सीख लेने मात्र से या सरकारों द्वारा उनके वितरण से नई पीढ़ी से स्तरीय शोध, नवाचार और आविष्कारों की अपेक्षा करने की अपनी सीमाएं हैं।
1968 की शिक्षा नीति में पहली बार कक्षा 10 तक विज्ञान और गणित की पढ़ाई अनिवार्य की गई थी। उस समय भी अनेक राज्यों और विद्वानों को आशंकाएं थीं कि ऐसा करना संभव नहीं होगा, परंतु शैक्षिक परिवर्तन में अनेक बार आपको कड़े निर्णय लेने ही पड़ते हैं। डॉक्टर दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) ने इसकी संस्तुति की थी। दो वर्ष बाद यह नई नीति में परिवर्तित हुआ। इसे पूरी तरह सारे देश में लागू करने में करीब 20 वर्ष लगे, परंतु इसके परिणाम देश के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुए। आज भारत की जो सम्माननीय स्थिति विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान और सूचना एवं संचार तकनीकी के क्षेत्र में है, उसके लिए इस एक निर्णय को ही जिम्मेदार माना जाना चाहिए, लेकिन समय के साथ यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी है कि विज्ञान की पढ़ाई में गुणवत्ता बढ़ने के बजाय घटती जा रही है। शिक्षण संस्थानों में आज विज्ञान के जो पाठ पढ़ाए जा रहे हैं वे तीस-चालीस वर्ष पहले की विषयवस्तु पर आधारित हैं। आज विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देना और परीक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन की त्वरित आवश्यकता है। विज्ञान में प्रश्न न पूछे जाने के पीछे एक मुख्य कारण भाषा का अवरोध भी है।
विज्ञान पढ़ने और पढ़ाने का आनंद इसी में है कि जिज्ञासा बढ़ती जाए, सृजनात्मकता को गति मिलती रहे और नवाचारों का जन्म होता रहे। यदि स्कूलों में प्रयोग नहीं किए जाएंगे तो निश्चित रूप से हाथ से काम करने की प्रवृत्ति नहीं बढ़ेगी और कौशल विकास की ओर ध्यान नहीं जाएगा। साथ ही जो सपने इस देश ने सबसे बड़ी युवाओं की शक्ति वाले देश के रूप में देखे हैं उसे हासिल करना संभव नहीं होगा। इस समय जो संभावनाएं सूचना एवं संचार तकनीकी के उपयोग से बनी हैं उनसे स्कूलों में समानता के अवसर दे सकने की उचित स्थितियां निर्मित हो रही हैं। विज्ञान शिक्षा पर उचित ध्यान देने के लिए नीतिगत प्रावधान आवश्यक है। आशा करनी चाहिए कि शिक्षा नीति तैयार कर रही नई समिति यह उत्तरदायित्व निभा सकेगी। इसे सदा ध्यान में रखना होगा कि कोई भी बड़ा परिवर्तन अंतत: अध्यापकों द्वारा मिली स्वीकार्यता के आधार पर ही सफल हो पाता है।
[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]