[ संतोष त्रिवेदी ]: आजकल जिसे देखो वही संघर्ष में लगा है। सबके संघर्ष अलग-अलग हैं। जिसका जैसा कद, वैसा संघर्ष। कुछ का संघर्ष महज पेट भरने के लिए होता है। वे जीवन भर यही करते हुए खर्च हो जाते हैं। किसी को प्रेरित नहीं कर पाते। जो सालोंसाल सत्ता-संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं, वही प्रेरित करते हैं। हर हाल में कुर्सी पाने-बचाने का संघर्ष उच्च कोटि का माना गया है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है। पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी तक आते-आते संघर्ष बहुत बदल गया है।

नई पीढ़ी के चेहरों की फर्जी चमक

हाल में एक वरिष्ठ सत्ता-सेवक ने इसका रहस्य खोला, ‘नई पीढ़ी के सुदर्शन चेहरों की ढंग से ‘रगड़ाई’ नहीं हुई। वे बस फर्जी चमक बनाए घूमते रहते हैं। इससे वे निकम्मे और नाकारा हो गए। बड़ों की भूख का लिहाज भी नहीं करते। सत्ता की महक पाकर उनसे रहा नहीं जाता। सही बात तो यह है कि चेहरा चिकना भर होने से आदमी चिकनी-चुपड़ी भाषा नहीं बोलने लगता। इसके लिए पर्याप्त तेल-मालिश की जरूरत होती है। ‘रगड़ाई’ की एक लंबी प्रक्रिया है जिसे पूरा किए बिना सियासत में सफलता नहीं मिल सकती। अगर ऐसे लोग शुरुआत से ही ‘रगड़े’ जाते तो आलाकमान को जगह-जगह ‘पर्यटन-स्थल’ नहीं खोलने पड़ते।

नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के संघर्ष से सबक लेना चाहिए

इस पीढ़ी को यह तक नहीं पता कि ‘राजपथ’ का रास्ता ‘जनपथ’ से होकर जाता है। कांटों भरी पगडंडियों पर नंगे पांव चलना होता है। नई पीढ़ी को ठीक से शीर्षासन तक नहीं करना आता। हमारी पीढ़ी के संघर्ष से इन्हें सबक लेना चाहिए। तब कार्यकर्ता चप्पल उठाने से लेकर सब्जी भी आलाकमान तक पहुंचाते थे। सियासत में ऐसी ही सेवा से ‘वैभव’ बढ़ता है, जादू से नहीं, पर नई पीढ़ी ‘फास्ट फूड’ की तरह सत्ता पाना चाहती है। उसे कौड़ी भर की जनसेवा के बदले करोड़ों की ‘डील’ चाहिए। अपनी नहीं तो कम से कम हमारे स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए।’

जब जनसेवक की बातें व्यावहारिक लगीं, लेखन में पहचान यूं ही नहीं बनती

पहली बार मुझे किसी जनसेवक की बातें व्यावहारिक लगीं। साहित्य को लेकर मेरी चिंता बढ़ने लगी। मैंने तुरंत सोशल मीडिया में विमर्श झोंक दिया, ‘साहित्य में रगड़वाद की संभावनाएं।’ विमर्श शुरू होते ही दो गुट बन गए। एक पुरानी पीढ़ी का, दूसरा नई पीढ़ी का। नई पीढ़ी के लेखक ज्यादा मुखर थे। एक नवोदित लेखक ने तो यहां तक कह दिया कि आजकल साहित्य में मुंह देखकर आलोचना की जाती है। इस पर प्रसिद्ध आलोचक भड़क उठे। उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा, ‘भाषा का शऊर नहीं तो कम से कम गरिमा का खयाल रखें। नई पीढ़ी को संघर्ष का धेला ज्ञान नहीं। लेखन में पहचान यूं ही नहीं बनती। पहले मैं लेखक ही था पर किसी ने नहीं माना। फिर मैंने वरिष्ठों की ‘रगड़ाई’ की। इससे आलोचक तो बना ही लेखक के रूप में भी स्थापित हो गया। इसमें भले कई साल लगे पर अब कोई भी मेरे लेखन पर सवाल नहीं उठाता है।’

पहले मैं संपादक बना, फिर लेखक

इसके बाद एक चर्चित लेखक कूद पड़े। वह नई पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं। उन्होंने कहा, ‘हम लिखने को लेकर बिल्कुल सहज हैं। कुछ लोग लेखन में बेवजह गंभीर हो रहे हैं। मेरे लिए लिखना ‘नित्यक्रिया’ जैसा है। पहले मैं संपादक बना, फिर लेखक। अगर किसी को लेखक बनना है तो सबसे पहले उसे उसे आधुनिक तौर-तरीकों से परिचित होना चाहिए। नई पीढ़ी के लिए मैं प्रेरणोस्रोत हूं।’

बुजुर्ग बुद्धिजीवी ने कहा- आज का साहित्य नकली संघर्ष में उलझा हुआ है

उनकी ‘नित्यक्रिया’ वाली टिप्पणी पर हल्ला मचता, इसके पहले ही एक बुजुर्ग बुद्धिजीवी आ गए। उन्होंने समस्त साहित्य को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। कहने लगे, ‘आज का साहित्य नकली संघर्ष में उलझा हुआ है।

सत्ता का संघर्ष अब लोकतंत्र का संघर्ष बन गया

देश में रोज लोकतंत्र ‘रगड़ा’ जा रहा है। सत्य को परेशान किया जा रहा है। उसकी कई दिनों से कोई खबर नहीं है। प्राण रक्षा के लिए लोकतंत्र को बार-बार अपनी ‘लोकेशन’ बदलनी पड़ रही है। इसकी चिंता करने के बजाय लेखक साहित्य में ही ‘रगड़वाद’ लाने पर आमादा हैं। हम समस्त बुद्धिजीवी इसकी निंदा करते हैं।’ इसके साथ ही विमर्श का सुखद अंत हुआ। सत्ता का संघर्ष अब लोकतंत्र का संघर्ष बन गया।

[ लेखक हास्य-व्यंकार हैं ]