[संजय गुप्त]। 28 साल की देरी के बाद लखनऊ की सीबीआइ अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि अयोध्या ढांचे का ध्वंस किसी साजिश का हिस्सा नहीं था। अदालत ने सभी 32 लोगों को बरी करते हुए यह भी कहा कि सीबीआइ साजिश को सही साबित करने वाले कोई प्रमाण पेश नहीं कर सकी। इस फैसले के बाद भाजपा, संघ और विश्व हिंदू परिषद की ओर से खुद को बेगुनाह बताना स्वाभाविक है। इसलिए और भी, क्योंकि सीबीआइ अदालत ने कहा है कि यह स्वत: स्फूर्त घटना थी।

ढांचे के ध्वंस ने भारतीय समाज और राजनीति को कहीं गहरे तक प्रभावित किया। इसका पता तब चला जब सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के पक्ष में फैसला दिया। यह फैसला सदियों पुरानी इस मान्यता के अनुरूप ही था कि अयोध्या में राम जन्मस्थान मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। हिंदू समाज के लिए अयोध्या और राम एक-दूसरे के पर्याय हैं। बाबर या फिर उसके सेनापति का अयोध्या से कोई लेनादेना नहीं था, फिर भी संकीर्ण राजनीतिक कारणों से राम मंदिर के स्थान पर बनाई गई मस्जिद की पैरवी की जाती रही। इस क्रम में इस सच से जानबूझकर मुंह मोड़ा जाता रहा कि इससे हिंदू समाज की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना पर चोट पहुंच रही थी।

आजादी के बाद भी इस विवाद को हल करने की नहीं दिखाई गई कोई दिलचस्पी

हिंदू समाज ने कभी भी मंदिर के स्थान पर बनाई गई मस्जिद को स्वीकार नहीं किया, फिर भी अंग्रेजों ने मुगल शासकों के अन्याय का प्रतिकार करने के बजाय इस विवाद का इस्तेमाल हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने के लिए किया। अफसोस की बात यह रही कि आजादी के बाद भी इस विवाद को हल करने की वैसी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई, जैसी सोमनाथ मंदिर के मामले में दिखाई गई। ऐसा शायद सरदार पटेल के निधन के कारण हुआ, जिन्होंने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार की पहल की थी। नेहरू सरकार ने अयोध्या की तरह काशी और मथुरा विवाद की अनदेखी इस सच से परिचित होने के बाद भी की कि मुगलों के शासन के दौरान अयोध्या, काशी और मथुरा के साथ-साथ अन्य सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा गया था। जिस कांग्रेस ने अयोध्या विवाद हल करने की पहल नहीं की उसी ने इस विवाद की ओर तब देश का ध्यान आकर्षित किया, जब राजीव गांधी सरकार के समय विवादित स्थल का ताला खोले जाने की पहल हुई।

लालकृष्ण अाडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए निकाली रथयात्रा

इसके बाद हिंदू संगठनों और खासकर विश्व हिंदू परिषद ने यह मांग तेज की कि इस स्थल पर भव्य राम मंदिर बनना चाहिए। इस मांग को भाजपा ने अपना समर्थन दिया और लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा शुरू की। राजनीतिक लक्ष्यों वाली इस रथयात्रा का एक उद्देश्य हिंदू अस्मिता को सम्मान दिलाना भी था। इस यात्रा के अंतिम चरण में अयोध्या में कारसेवा के दौरान ही छह दिसंबर 1992 को ऐसा माहौल बना कि विवादित ढांचा ढहा दिया गया। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी, क्योंकि इसके बाद देश के अनेक हिस्सों में भयावर्ह हिंसा हुई और उसके चलते हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास और बढ़ा। आम धारणा है कि कारसेवकों के आक्रोश के चलते विवादित ढांचा ढहा।

खुफिया सूचना की नहीं की गई जांच

सच जो भी हो, सीबीआइ अदालत ने यह रेखांकित किया है कि जांच एजेंसी ने ढांचे के ध्वंस में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी से जुड़ी इस खुफिया सूचना की जांच नहीं की कि इस एजेंसी के लोग विवादित ढांचे में घुसकर उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं। ऐसी भी खुफिया सूचना थी कि पाकिस्तान से मंगाए गए विस्फोटक अयोध्या पहुंचे हैं। एक अन्य खुफिया रपट में चेतावनी दी गई थी कि कुछ असामाजिक तत्व कारसेवकों के वेश में अयोध्या आ रहे हैं। सीबीआइ ने जिन भी कारणों से इन खुफिया सूचनाओं की पड़ताल न की हो, लेकिन यह अंदेशा तो है ही कि कहीं ये खुफिया सूचनाएं सही तो नहीं थी?

राजनीति में आया नया मोड़

जो भी हो, विवादित ढांचा गिरने के बाद देश की राजनीति में नया मोड़ आया और पहले से ही समस्याग्रस्त हिंदू-मुस्लिम रिश्ते और बिगड़े। इस घटना के बाद जहां भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर की मांग को अपना समर्थन देना जारी रखा, वहीं अन्य दलों ने मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति को और धार दी। कई दल खुद को मुस्लिम समाज का मसीहा बनाने की होड़ में शामिल हो गए। इससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई और चौड़ी हुई। कांग्रेस भी इस होड़ में शामिल हुई, पर विवादित ढांचे की रक्षा करने में नाकाम रहने के आरोप के कारण उसे राजनीतिक रूप से नुकसान हुआ। मुस्लिम वोट बैंक उससे छिटक गया और वह लालू एवं मुलायम जैसे नेताओं के पास चला गया।

सद्भाव का  माहौल बनता  और हिंदू- मुस्लिम के बीच की पट जाती खाई

सीबीआइ अदालत के फैसले की आड़ में जो नेता मुस्लिम समाज की भावनाओं का दोहन करने में लगे हुए हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि अयोध्या विवाद बातचीत से हल हो सकता था, यदि बाबर को राम के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश न की जाती। होना तो यह चाहिए था कि मस्जिद के पैरोकारों द्वारा अयोध्या की विवादित जमीन हिंदुओं को सौंप दी जाती। इससे सद्भाव का माहौल बनता और हिंदू- मुस्लिम के बीच की खाई पटती। ऐसा इस सच से परिचित होने के बाद भी नहीं हुआ कि मुगल काल में तमाम मंदिरों का ध्वंस हुआ था।अयोध्या के विवादित ढांचे को यदि मस्जिद मान भी लिया जाए तो यह एक तथ्य है कि वहां 1949 के बाद कभी नमाज नहीं हुई। खुद कुरान यह कहती है कि जहां नमाज न पढ़ी जा रही हो और जो झगड़े की जमीन हो, वह जगह मस्जिद नहीं हो सकती। विवादित ढांचे से मंदिर के अवशेष मिलने और ऐसे ही अन्य तथ्यों की अनदेखी की गई तो इसीलिए कि मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति की जा सके।

सीबीआइ अदालत के फैसले के बाद भी कुछ लोग यह मानने को तैयार ही नहीं कि ढांचा बिना किसी सुनियोजित साजिश के गिरा होगा। ऐसे लोगों में बुद्धिजीवियों के साथ देसी-विदेशी मीडिया के भी लोग हैं। वे यह समझने को तैयार ही नहीं कि हिंदू समाज राम के जन्म स्थान पर बनाई गई मस्जिद को कभी स्वीकार नहीं कर सकता था। नि:संदेह इस मुद्दे से भाजपा को राजनीतिक लाभ मिला, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बाबरी मस्जिद की पैरवी भी राजनीतिक लाभ लेने के लिए की गई और यह लाभ कुछ दलों को मिला भी। चूंकि ऐसे दल नए सिरे से सक्रिय होते दिख रहे हैं इसलिए भाजपा और हिंदू समाज को यह देखना होगा कि सीबीआइ अदालत का फैसला देश की अंतरराष्ट्रीय छवि बिगाड़ने का जरिया न बनने पाए। 

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं।)