लालजी जायसवाल। न्यायालयों के कार्यभार को कम करने के लिए विभिन्न प्रकार के टिब्यूनल यानी अधिकरणों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन देखा जा रहा है कि देशभर में अधिकरण धीरे-धीरे गैर-कार्यात्मक होते जा रहे हैं। अधिकरणों में रिक्तियों को भरने में विफलता का सीधा सा मतलब कम लोगों पर अधिक भार का होना है। एक लंबे अरसे से इस बात को महसूस किया जा रहा है कि न्यायाधिकरणों में पीठासीन अधिकारियों तथा न्यायिक और तकनीकी सदस्यों की भारी कमी रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल नवंबर में ही केंद्र सरकार को कहा था कि वह एक ‘नेशनल टिब्यूनल कमीशन’ बनाए जो न्यायाधिकरणों में नियुक्ति और उनके कामकाज के लिए एक स्वतंत्र संस्था के रूप में काम करे और उसकी प्रशासनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखे। लेकिन लगभग दस महीने बीत जाने के बाद भी इस मामले पर केंद्र सरकार की ओर से कुछ विशेष कार्य नहीं किया गया। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के अधिकरणों में खाली पड़े पदों को भरने के मामले में सरकार के प्रति नाराजगी जताई है।

देशभर में न केवल लाखों की संख्या में लंबित पड़े मामलों की वजह से, बल्कि न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में बढ़ती रिक्तियों के कारण सुप्रीम कोर्ट की चिंता का बढ़ना लाजमी है। गौरतलब है कि नियुक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की सिफारिशों को स्वीकार करने में भारत सरकार की देरी से स्थिति और बदतर होती जा रही है। उदारीकरण के बाद के कुछ दशकों में उच्च न्यायालयों के केस निपटान की सीमा को देखते हुए विशेष मामलों के लिए अधिकरण बनाए गए थे। लेकिन न तो उच्च न्यायालयों की लंबित समस्याओं का समाधान किया गया, और न ही न्यायाधिकरणों ने अपने लक्ष्य ही हासिल किए।

उच्चतम न्यायालय की पहल

उल्लेखनीय है कि आज देश की अदालतों में करीब 3.84 करोड़ से भी अधिक मुकदमे लंबित हैं। वर्तमान में देशभर में 19 न्यायाधिकरण काम कर रहे हैं। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी का कारण यह है कि पिछले चार वर्षो से किसी भी न्यायाधिकरण में नई न्यायिक नियुक्तियां नहीं हुई हैं। कई महत्वपूर्ण न्यायाधिकरणों और राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण, ऋण वसूली न्यायाधिकरण, दूरसंचार विवाद समाधान एवं अपील अधिकरण जैसे अपीलीय न्यायाधिकरणों में 250 से अधिक पद खाली पड़े हैं। नियुक्तियों में विलंब के कारण कंपनी कानूनों और आयकर से जुड़े मामले भी अदालत तक पहुंच रहे थे, जिससे न्यायालयों पर दबाव दोगुना बढ़ रहा था।

मालूम हो कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने पिछले दिनों नौ नए न्यायाधीशों को शपथ दिलाई थी। यह पहला मौका था, जब इतना बड़ा शपथ ग्रहण समारोह हुआ, जिसमें नौ नए न्यायाधीशों में तीन महिला न्यायाधीश शामिल थी। उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों के कुल स्वीकृत पदों की संख्या 34 है और नौ नए न्यायाधीशों के शपथ लेने के साथ ही प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों की संख्या अब 33 हो गई है। बहरहाल, शीर्ष न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति से न्यायिक प्रक्रिया को अब गति मिलेगी।

टिब्यूनल रिफार्म एक्ट

पिछले दिनों, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सर्वोच्च अदालत के फैसलों के विपरीत टिब्यूनल रिफार्म एक्ट का प्रविधान किए जाने को लेकर भी नाराजगी जाहिर की थी। गौरतलब है कि सरकार ने अधिकरणों में सुधार की प्रक्रिया तो 2015 में ही शुरू कर दी थी। पहले चरण में ऐसे अधिकरणों को खत्म भी किया गया था, जो आवश्यक नहीं थे। ऐसे कई अधिकरण को उनसे मिलते-जुलते काम वाले अधिकरण में मिला दिया गया था। इसी कड़ी में फाइनेंस एक्ट 2017 के जरिये सात अधिकरणों का अस्तित्व खत्म किया गया था। इन सभी का काम करीब-करीब एक जैसा ही था। इसके बाद ऐसे अधिकरणों की संख्या 26 से घटकर 19 हो गई थी।

अधिकरणों को खत्म करने के पीछे वजह बताते हुए सरकार ने कहा था कि पिछले तीन साल का विश्लेषण किया गया, जिनसे मिले आंकड़े ये दर्शाते थे कि ये अधिकरण न्याय प्रक्रिया में किसी तरह की तेजी नहीं ला रहे थे और खर्च भी बढ़ा रहे थे। लेकिन सरकार ने उनके खाली पड़े पदों का विश्लेषण शायद नहीं किया। क्योंकि अगर ऐसा किया गया होता तो पता चलता कि तमाम अधिकरण का निष्पादन कमजोर होने के पीछे मानव संसाधन की कमी होती है। खैर, अब सरकार अधिकरणों में भर्ती पर काम शुरू कर चुकी है। लेकिन उसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केंद्र सरकार ने चयन समिति की ओर से भेजे गए नियमों को नजरअंदाज करके प्रतीक्षा सूची के नामों से नियुक्तियां कीं, यह बहुत ही निराशाजनक है।

न्यायालय ने कहा कि हम कानून के शासन का पालन करने वाले लोकतांत्रिक देश हैं। हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र पर अधिकरण के सदस्यों के रूप में नियुक्ति के लिए मनमुताबिक व्यक्तियों को चुनने का आरोप भी लगाया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाले चयन पैनल द्वारा पर्याप्त संख्या में नामों की सिफारिश की गई थी। सरकार इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिफारिश किए गए लोगों को ही नियुक्त करे अथवा नहीं। लेकिन बात लोकतांत्रिक मूल्यों की है, और यही बात सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी कही जा रही है। उचित तो यही होगा कि सरकार न्यायालय द्वारा सुझाए गए लोगों की ही नियुक्ति करे, क्योंकि अदालत ने जो सूची जारी की है, उसे काफी जांच परख के बाद किया गया है। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों ने कोविड महामारी के दौरान नामों का चयन करने के लिए व्यापक प्रक्रिया का पालन किया, लेकिन सभी प्रयास व्यर्थ जा रहे हैं। सरकार द्वारा चुने गए नामों पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार अपने अनुसार ही उम्मीदवारों को चुनेगी तो फिर चयन समिति की क्या जरूरत है?

परिणामस्वरूप मानव संसाधन की कमी की वजह से यदि न्यायाधिकरणों का कामकाज सुचारु रूप से नहीं चल पाता तो इसके पीछे सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति को ही जिम्मेदार माना जाएगा। देशभर की अदालतों और अधिकरणों में खाली पदों को भरने के साथ-साथ लोगों को समय पर न्याय उपलब्ध कराने और लंबित मुकदमों के भारी-भरकम बोझ से छुटकारा पाने के लिए अब सरकार को त्वरित पहल करना जरूरी हो गया है। विदित हो कि न्यायाधिकरण अर्ध न्यायिक संस्था के रूप में काम करते हुए सेवा मामले, टैक्स, पर्यावरण संबंधी प्रशासनिक फैसलों अथवा वाणिज्यिक कानून आदि से जुड़े मामलों का निपटारा करते हैं।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार ने कई मामलों में न्यायाधिकरणों को मजबूत करने के साथ उन्हें महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थापित किया है। लेकिन पर्याप्त रूप से कर्मचारी-अधिकारी नहीं होने की वजह से इन निकायों का कमजोर पड़ना स्वाभाविक है। इसलिए, अगर हमें तय लक्ष्य में ही पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनना है, तो अधिकरणों में मानव संसाधन को बढ़ाना होगा। अधिकरणों या न्यायालयों में लंबित मामले हमारे निवेश को प्रभावित करते हैं। न्यायिक प्रक्रिया लचर होने से विदेशी निवेशक भी देश में निवेश करने से बचते हैं। इस प्रकार हमारी अर्थव्यवस्था को भारी चुनौतियों से गुजरना पड़ सकता है। अत: इस संबंध में सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाना चाहिए और लंबित पदों पर पारदर्शी और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ तीव्र गति से भर्ती सुनिश्चित करनी चाहिए।

समावेशी आर्थिक विकास के लिए बुनियादी ढांचे की तरह ही अदालतें और न्यायाधिकरण भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। व्यापार में सुगमता के लिए मुकदमेबाजी के निपटारे की गति व न्याय की गुणवत्ता का बहुत महत्व है। नतीजन, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच विवादों को समाप्त कर, न्याय की गति में तेजी लाई जानी चाहिए।

सवाल उठता है कि आखिर विवाद कैसा? बता दें कि विवाद अधिकरण के सदस्यों और अध्यक्ष के कार्यकाल और उम्र के साथ नियुक्ति में विलंब को लेकर है। बहरहाल, इस संदर्भ में परिस्थितियां ऐसी हैं कि अधिकरणों के निर्णय की गुणवत्ता ज्यादातर मामलों में खराब रहे हैं, इसके साथ ही अंतिम निर्णय आने में भी बहुत देरी होती है, क्योंकि सरकार इनमें सक्षम व्यक्तियों को नियुक्त नहीं कर पाती है। इन सब कारणों से न्याय पाना भी आज महंगा हो गया है। इसलिए उभरते आर्थिक महाशक्ति के रूप में देश के लिए ये तमाम समस्याएं बहुत ही घातक हैं। इस पर जल्द विचार किया जाना चाहिए और सुधार की दिशा में त्वरित कदम उठाए जाने चाहिए।

न्यायिक प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाने में सक्षम अधिकरण

अधिकरण एक अर्ध न्यायिक संस्था होती है, जिसे प्रशासनिक या कर संबंधी विवादों को हल करने के लिए स्थापित किया जाता है। यह विवादों के निर्णयन, संघर्षरत पक्षों के बीच अधिकारों के निर्धारण, प्रशासनिक निर्णयन, किसी विद्यमान प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा जैसे विभिन्न कार्यो का पूरा करते हैं।

विदित हो कि अधिकरण न्याय तंत्र में एक विशिष्ट भूमिका निभाते हैं। वे लंबित मामलों के बोझ से दबे न्यायालयों के बोझ को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देश में तमाम अधिकरण स्थापित किए गए हैं, जो पर्यावरण, सशस्त्र बलों, कराधान और प्रशासनिक मुद्दों आदि से संबंधित विवादों की सुनवाई करते हैं। संविधान में भी अधिकरणों का उल्लेख है। संविधान का अनुच्छेद 323 (क) प्रशासनिक अधिकरणों से संबंधित है, तो वहीं अनुच्छेद 323 (ख) अन्य मामलों के लिए अधिकरणों से संबंधित है। अनुच्छेद 323 (ख) के तहत संसद और राज्य विधानमंडल संबंधित विवादों के निर्णयन के लिए अधिकरणों की स्थापना कर सकते हैं। देश में अधिकरणों के द्वारा कराधान, विदेशी मुद्रा, आयात व निर्यात, औद्योगिक एवं श्रम विवाद, भूमि सुधार, खाद्य सामग्री, किराया और किराएदारी अधिकार आदि से संबंधित मामले सुने जाते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि अधिकरणों में वर्षो से नियुक्तियां लंबित होने की वजह से न्यायालयों पर बोझ के साथ दबाव भी बढ़ रहा है। हम जानते हैं कि कोरोना आपातकाल के दौरान न्यायालयों में सुनवाई पर भरपूर प्रभाव पड़ा था। लेकिन अधिकरणों में खाली पड़े पदों से समस्या और भी गहरी होती जा रही है।

(लेखक- अध्येता, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)