[ अंशुमान राव ]: नरेंद्र मोदी ने 2014 में जब केंद्र की सत्ता संभाली थी तब भाजपा सिर्फ सात राज्यों में शासन कर रही थी, लेकिन चार साल में वह 20 राज्यों में पहुंच गई। एक समय भाजपा के समक्ष विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ दिख रहा था। भाजपा भी कांग्रेस मुक्त भारत सरीखे अहंकारी नारे उछाल रही थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को विपक्षी दल कुत्ते-बिल्ली नजर आ रहे थे और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सांप-छछूंदर। पहले लोकसभा और फिर विधानसभा में जिस उत्तर प्रदेश ने भाजपा के लिए पुख्ता जमीन तैयार की थी वहां हालिया उपचुनावों में हार ने उसके लिए खतरे की घंटी बजा दी है।

गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में भाजपा की हार ने साबित कर दिया कि विपक्षी दलों ने भाजपा की उस सफल रणनीति की काट खोज ली है जो पिछड़े-दलित वोटरों के अंदरूनी टकराव पर टिकी है। उप चुनावों मेंं पिछड़ों और दलित वोटरों के बीच अद्भुत एकता दिखी। अपने-अपने सामाजिक हितों के टकराव के बावजूद उन्होंने वोट ट्रांसफर की रणनीति को बड़े ही सधे अंदाज में अंजाम दिया। भाजपा की पिछड़े-दलितों के बीच बंटवारे की रणनीति भी नाकाम होती नजर आई।

राष्ट्रपति चुनाव में जब रामनाथ कोविंद को पार्टी लाइन से हटकर वोट मिले तो लगा था कि विपक्षी एकता की बात बेमानी है, लेकिन 2014 के बाद से हुए लोकसभा के 23 उपचुनावों में भाजपा को सिर्फ चार सीटों पर जीत मिली है। यह भाजपा और मोदी के घटते हुए ग्राफ का ही संकेत है। 2015 तक मोदी महाबली नजर आ रहे थे। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के वादे, स्वच्छ भारत अभियान और पूरी दुनिया को भारत के कदमों में ला खड़ा करने के उनके नारों से ऐसा लग रहा था कि विपक्ष का वजूद ही खत्म हो जाएगा। तब लग रहा था कि देश के हर सामाजिक वर्ग का समर्थन मोदी को हासिल है।

2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या ने दलितों के प्रति भाजपा की सियासी सोच का पर्दा हटा दिया। फिर ऊना में दलितों की कोड़े से पिटाई, दादरी में घर में गोमांस रखने के आरोप में अखलाक अहमद को पीट-पीट कर मार डालने और गोवध बंद कराने के नाम कथित गोरक्षकों के हमलों ने दलितों और मुस्लिमों को इसका अहसास करा दिया कि भाजपा की रहनुमाई में उनकी सुरक्षा को खतरा है।

दलित संगठन भीम आर्मी केनेता के खिलाफ कार्रवाई ने भी दलितों का मोहभंग किया है। 2014 के चुनाव में बड़ी तादाद में दलितों ने भाजपा को वोट दिए थे। नोटबंदी की वजह से अनौपचारिक क्षेत्र में लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा और जीएसटी से कारोबारियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। जब किसानों का आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा था तब आरक्षण के खिलाफ संघ के नेताओं के बयानों और फिर एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून में गिरफ्तारी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार की शिथिलता ने मोदी समर्थक पिछड़े और दलित वोटरों को नाराज कर दिया। सरकार के इन कदमों से लोगों के बीच जो नाराजगी पैदा हुई उसने अब विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस के लिए वैकल्पिक राजनीति में पैर टिकाने की जमीन तैयार कर दी है।

वहीं राजग के भीतर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की वर्चस्ववादी नीतियों की वजह से सहयोगी दलों में असंतोष झलक रहा है। चंद्रबाबू नायडू का गठबंधन से अलग होना और भाजपा के साथ शिवसेना का टकराव भाजपा के बिग ब्रदर वाले रवैये का नतीजा माना जा रहा है। शायद यह बदलती सियासी हवा का ही नतीजा है कि भाजपा को अब सहयोगी दलों को नाराजगी दूर करने की चिंता सताने लगी है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट विपक्ष 2019 में भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकेगा। कर्नाटक में विपक्षी नेताओं के जमावड़े ने भाजपा नेतृत्व के माथे पर भी चिंता की लकीरें खींच दी हैं। उसे यह अहसास हुआ है कि अगर पुराने साथियों की नाराजगी दूर नहीं की गई तो मोर्चा फतह करना आसान नहीं होगा।

कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में अखिलेश, मायावती के अलावा तेजस्वी यादव ने संकेत दिए कि वे कांग्रेस के साथ आने को तैयार हैं। तेलुगुु देसम पार्टी और टीआरएस भी विपक्षी खेमे में आने को तैयार दिख रही हैं। यह भी ध्यान रहे कि पिछले आम चुनाव की तुलना में तस्वीर काफी बदल चुकी है। 2014 में राजग को 38.8 फीसदी वोट मिले थे और उसने लोकसभा की 336 सीटें जीती थीं। वहीं संप्रग ने 23.3 फीसदी वोट हासिल किए थे और उसे सिर्फ 59 सीटें मिली थीं।

गैर-राजग और गैर-संप्रग दलों ने 37.9 फीसदी वोट हासिल किए थे और उन्होंने 148 सीटें हासिल की थीं। इन आंकड़ों से इतर अगर जमीन पर विपक्षी एकता की तस्वीर पर नजर दौड़ाएं तो साफ दिख रहा है कि इसकी शुरुआती बुनियाद रखी जा चुकी है। कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए जिस तरह जद-एस की सरकार बनवाई उससे साफ है कि उसका लक्ष्य यही है कि भाजपा को सत्ता से दूर रखा जाए। भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के दुस्साहसी नारे ने ही कांग्रेस को अपनी कीमत पर भी सहयोगी दलों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है। कांग्रेस को अहसास है कि भाजपा से टक्कर लेने के लिए उसे साथी दलों को अधिक अहमियत देनी होगी।

2019 के चुनाव में अब एक साल से भी कम वक्त बचा है। सबसे ज्यादा सांसद देने वाले उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता लगभग तय है। महाराष्ट्र में शिवसेना ने अकेले चुनाव लड़ने का एलान किया है। तेलुगुु देसम पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और टीआरएस ने संकेत दिया है कि वे विपक्षी मोर्चे में जाना पसंद करेंगे। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी केउपेंद्र कुशवाहा भी राजग में सहज नहीं दिखाई पड रहे। शिवसेना और तेदेपा के साथ भाजपा के व्यवहार ने उसके सहयोगी दलों को बेचैन किया है। मौजूदा लोकसभा में 24 पार्टियां ऐसी हैं जिनके एक से लेकर पांच सांसद हैं। वहीं 26 दलों का कोई सांसद नहीं है, लेकिन उनके उम्मीदवार ढाई-ढाई लाख वोट पाने में कामयाब रहे हैं। यह किसी भी सीट पर जीत के अंतर से ज्यादा है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में एक चीज साफ है कि देश में मोदी लहर चलनी बंद हो चुकी है और कांग्रेस मुक्त भारत का भाजपा का सपना भी बिखर रहा है।

[ कांग्रेस से संबंद्ध लेखक आंध्र प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष हैं ]