गत सप्ताह शीर्ष नौकरशाही में हुए बड़े बदलाव से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब सरकारी कामकाज में शिथिलता बरतने वालों को छोड़ने के मूड में कतई नहीं है। 2016 के पहले महीने में ही मोदी ने दो बार विभिन्न मंत्रलयों व विभागों के सचिवों के साथ कामकाज की समीक्षा की है और उन्हें फ्लैगशिप कार्यक्रमों पर किसी भी तरह की कोताही को नजरअंदाज नहीं करने का स्पष्ट आदेश दिया है। संदेह नहीं कि नौकरशाहों के सशक्तीकरण के मोदी हमेशा हिमायती रहे हैं और कई बार उनके अपने मंत्रियों को भी यह नागवार सा लगा है।

कई बड़े स्तंभकार मोदी के इस शासन-प्रशासन के गुजराती मॉडल को भारत के लिए नुकसानदेह मानते हैं, बावजूद इसके कि जहां गुजरात में प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2005 में सिर्फ 31000 रुपये के आसपास थी वहीं वर्ष 2011 तक यह 71000 के ऊपर पहुंच गई थी। विकास के ऐसे कई मापदंड हैं जहां पर शासन-प्रशासन की ‘मोदी रणनीति’ गुजरात में कामयाब दिखती रही है और पूरे भारत में यह रणनीति कामयाब नहीं होगी, ऐसी सोच थोड़ी बेमानी सी लगती है। सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों का क्रियान्वयन नौकरशाहों के हाथों में ही है और अगर इसके लिए मोदी उन पर न सिर्फ भरोसा करते हैं, बल्कि उनका सशक्तीकरण भी करते हैं तो इसमें गलत क्या है?

नि:संदेह, सवाल यहां नौकरशाहों पर भरोसा करने का नहीं है, सवाल यहां नौकरशाहों की अपने कर्तव्य परायणता और मोदी सरकार द्वारा बनाई गई नीति को बिना किसी संशय के क्रियान्वित करने का है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ की रणनीति के साथ पिछले 20 महीनों में बनाई गई कई महत्वाकांक्षी योजनाओं के क्रियान्वयन में हो रही देरी से प्रधानमंत्री मोदी की निगाह टेढ़ी होती है तो यह काफी स्वाभाविक है। दूरसंचार विभाग ‘कॉलड्राप’ और ‘नेट न्यूटिलिटी’ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को सुलझा नहीं पा रहा है।

ऐसी सूचना मिल रही है कि दूरसंचार प्राधिकरण ‘डाटा सर्विसेज’ के ‘डिफरेंशियल प्राइसिंग (अंतर्मूल्य निर्धारण) अर्थात अलग-अलग डाटा के लिए अलग-अलग मूल्य के सिफारिशों को रद करेगा। इसका सीधा अर्थ है, फेसबुक द्वारा प्रस्तावित ‘फ्री-बेसिक’ या ‘एयरटेल जीरो’ जैसी योजनाओं पर प्रतिकूल असर। सड़क और परिवहन मंत्रलय, कृषि मंत्रलय, ग्रामीण विकास मंत्रलय, रेल मंत्रलय में भी ऐसे कई लोकहितकारी बड़े प्रस्ताव लंबित पड़े हैं।

इसके अलावा डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट सिटीज जैसी कई महत्वाकांक्षी योजनाओं के क्रियान्वयन को गति देने में नौकरशाहों के सकारात्मक रुख की आवश्यकता है।1मोदी के कड़े होते रुख का प्रभावी और सीधा-सीधा असर सरकार के कार्यो पर दिखेगा, इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री को अपने संभावित मंत्रिमंडलीय फेरबदल में भी ऐसे ही ठोस और बड़े निर्णय लेने होंगे।

उन्हें अपने प्रिय मित्र और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से कुछ सीख लेनी चाहिए। ओबामा की टीम में 15 टेक्नोक्रेट हैं। अमेरिका के रक्षा मंत्री एशटन बी. कार्टर हार्वड विश्वविद्यालय में प्राध्यायक थे। वित्तमंत्री जैक लियू सीटी समूह के मुख्य कार्यकारी थे। आंतरिक मामलों के मंत्री शैली ज्वैल इंजीनियर थीं और बैंक व ऑयल उद्योग में कार्यरत थीं।

इन तीनों में एक और समानता है, इन तीनों ने कभी चुनाव नहीं लड़ा है। सही है कि भारत की तुलना अमेरिका से नहीं की जा सकती। ओबामा की तरह 15 टेक्नोक्रेट को अपने आसपास रखना मोदी के लिए संभव भी नहीं है। लेकिन क्या कुछ मंत्रलय जहां विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है, की कमान विशेषज्ञों को नहीं सौंपी जा सकती है? विशेषज्ञ लीक से हटकर कदम उठा सकते हैं और लक्ष्य प्राप्ति की राह आसान हो सकती है।

नौकरशाही पर पकड़ विषय के ज्ञान से ही हो सकती है। ऐसे कई मंत्रलय हैं जिसे विशेषज्ञ मजबूती से संभाल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह के कदम पहले नहीं उठाए गए हैं। नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल किया था। हालांकि राव ही ऐसे पहले प्रधानमंत्री नहीं थे जिन्होंने ऐसा किया, बल्कि सबसे पहले भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने प्रख्यात अर्थशास्त्री जॉन मथाई को भारत का पहला रेलमंत्री बनाया था। उद्योगपति सीएच भाभा भारत के पहले वाणिज्य मंत्री बने थे।

प्रधानमंत्री कार्यालय मोदी द्वारा अपनाई गई जनहितकारी महत्वाकांक्षी योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर पूरी तरह प्रयत्नशील है, लेकिन उतनी ही प्रतिबद्धता कई अन्य मंत्रलयों में नहीं देखी जा रही है और ऐसे में अगर मोदी कोई विशेष निर्णय लेते हैं और कुछ विशेषज्ञों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं तो क्या इसकी प्रशंसा नहीं होनी चाहिए? क्या यह सही समय नहीं है? वैसे मंत्रलय या विभाग जिन्होंने पिछले 20 महीनों में कोई ज्यादा उल्लेखनीय या सराहनीय कार्य नहीं किया है उनसे बाकी के बचे 40 महीनों में क्या उम्मीद की जा सकती है?

प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का अहसास है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भारत की जनता ने उनसे काफी उम्मीद बांध रखी थी और अगले 40 महीनों में उन सारे वायदों को पूरा करना है जो उन्होने चुनाव के समय किए थे। अगर मोदी वायदा पूरा नहीं कर पाते हैं तो इसमें सिर्फ उनका व्यक्तिगत नुकसान नहीं, बल्कि सारे मुल्क के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी होगा।1अमित शाह अभी भाजपा संगठन में बदलाव करेंगे। मोदी के पास एक अच्छा मौका है।

वैसे मंत्री जिनकी मंत्रलय पर पकड़ कमजोर है, लेकिन राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण हैं, उन्हें संगठन में ‘एडजस्ट’ किया जा सकता है और अगर मोदी अपने मंत्रिमंडल में मनमाफिक फेरबदल कर पाते हैं तो यह निश्चित तौर पर उम्मीद की नई किरण लेकर आएगा और भारत का युवा वर्ग फिर उसी उत्साह और उमंग के साथ भविष्य की ओर देखेगा, जैसा प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के समय देख रहा था।

(लेखक राजीव मिश्र, बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी हैं और लोकसभा टीवी के सीईओ रह चुके हैं)