दिव्य कुमार सोती: भारत में केवल कश्मीरी हिंदू ही इकलौते नहीं, जिन्हें अपनी धार्मिक पहचान के चलते अपना सर्वस्व छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने को विवश होना पड़ा। पिछली सदी के अंतिम दशक में ऐसे ही एक पलायन की त्रासदी ईसाई बाहुल्य मिजोरम के रियांग हिंदुओं को भी झेलनी पड़ी। रियांग हिंदुओं पर 1997 में टूटी इस त्रासदी को राष्ट्रीय विमर्श में शायद ही कोई जगह मिली हो, क्योंकि उन दिनों पूर्वोत्तर को दिल्ली में दूरस्थ अंचल की तरह देखा जाता था कि वहां कुछ न कुछ उथल-पुथल चलती ही रहती है, जिसका प्रबंधन स्थानीय दलों द्वारा जोड़तोड़ के माध्यम से किया जा सकता है।

पूर्वोत्तर को अनदेखा करने का यह सिलसिला मोदी सरकार के दौर में टूटा। मोदी सरकार ने 2017 में एक राजनीतिक समझौते के अंतर्गत मिजोरम में हिंदुओं के पुनर्वास का प्रविधान किया। जो कुछ मिजोरम में रियांग हिंदुओं के साथ हुआ, कुछ वैसा ही इस समय मणिपुर में मैती समुदाय के साथ हो रहा है। मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग स्वीकार करने के बाद मैती समुदाय निशाने पर आ गया और बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गई। सेना की तैनाती के बाद भी करीब 35,000 से अधिक लोग विस्थापित हो गए।

कहने को तो मैती हिंदू मणिपुर में बहुसंख्यक हैं, मगर वे सिर्फ इंफाल घाटी में रहने को मजबूर हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन पर उनके ही प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में संपत्ति खरीदने और खेती करने आदि पर कानूनी रोक है। इन पहाड़ी इलाकों में ईसाई बन चुके कुकी और नगा रहते हैं। यानी मैती अपने ही राज्य में वैसी स्थिति से जूझ रहे हैं, जैसी स्थिति जम्मू-कश्मीर में एक समय अनुच्छेद 370 के कारण बनी रही।

मणिपुर में 53 प्रतिशत जनसंख्या वाला मैती हिंदू समुदाय अपने प्रदेश के मात्र आठ प्रतिशत भूभाग में रहने को अभिशप्त है। जबकि कुकी या नगा समुदाय के इंफाल घाटी में बसने पर कोई कानूनी बंदिश नहीं। स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में शासन व्यवस्था उसी अनकहे सिद्धांत पर आधारित रही कि हिंदू चाहे बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक, शांति बनाए रखने के लिए सारे बलिदान उन्हें ही करने होते हैं। इसके ही परिणामस्वरूप कुकी और नगा समुदायों को तो जनजाति का दर्जा दे दिया गया, लेकिन मैती हिंदू समुदाय को जनजाति होने पर भी जनजाति का दर्जा नहीं मिला। यह तो भारत के भाग्य-विधाता ही बता सकते हैं कि ऐसा क्यों किया गया?

जिस इंफाल घाटी तक मैती समुदाय सीमित है वह लगभग 700 वर्ग मील में फैली है। जबकि मणिपुर राज्य का भाग रही काबो घाटी 7000 वर्ग मील में हुआ करती थी। ब्रिटिशकालीन नक्शों से इसकी पुष्टि होती है। अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह पूरा क्षेत्र 1834 में बर्मा को पट्टे पर दे दिया। इससे जुड़ी संधि में लिखा गया कि इस हस्तांतरण के बदले कंपनी प्रति वर्ष मणिपुर राज्य को एक धनराशि देगी, जो तभी बंद की जा सकेगी, यदि काबो घाटी फिर मणिपुर के पास वापस आ जाती है। अर्थात इस घाटी का मूल स्वामी मणिपुर है और इस घाटी को बर्मा से वापस भी ले सकता है। इस तथ्य को ब्रिटिश राज भी स्वीकार करता रहा।

मणिपुर के भारत गणराज्य में विलय होने पर स्वाभाविक रूप से यह अधिकार भारत के पास आ गया, लेकिन 1954 में नेहरू सरकार ने बर्मा से मैत्री की खातिर इस घाटी पर भारतीय दावा छोड़ दिया। इस कारण इन घाटियों में रहते आए मैती हिंदू सीमित क्षेत्र में रहने को विवश कर दिए गए। पहाड़ी और वन क्षेत्रों को एक ही मतांतरित समुदाय के हवाले कर देने और उन्हें तमाम संवैधानिक विशेषाधिकार देने का परिणाम यह हुआ कि इन क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप और निगरानी शिथिल पड़ गई। इसके चलते मणिपुर के ये ईसाई बहुल क्षेत्र पूर्वोत्तर के विभिन्न हथियारबंद आतंकी संगठनों, अफीम की खेती करने वालों और म्यांमार से आने वाले अवैध प्रवासियों से भरते गए।

मौजूदा हिंसा की चिंगारी के मूल में केवल अदालती फैसला ही नहीं, बल्कि राज्य में बीरेन सिंह सरकार की सख्ती भी है। बीरेन सिंह सरकार ने इन पर्वतीय क्षेत्रों में अवैध प्रवासियों द्वारा वन भूमि पर किए गए अवैध कब्जों पर कार्रवाई और अफीम की खेती पर शिकंजा कसा है। पूर्वोत्तर के आतंकी संगठनों को इनसे ही खाद-पानी मिलता रहा और उनके द्वारा ही अंतरराष्ट्रीय तस्कर नेटवर्क संचालित होता आया है। मौजूदा हिंसा में कुकी समुदाय भी निशाना बना है, लेकिन हिंसक प्रदर्शनों की शुरुआत भी इसी वर्ग के लोगों द्वारा की गई। जबकि अदालती फैसले के विरोध के लिए अन्य शांतिपूर्ण विकल्प भी अपनाए जा सकते थे।

दरअसल यह मामला इसकी मिसाल है कि अब्राहमिक एकेश्वरवाद राजनीतिक सोच को किस तरह अपने समुदाय तक सीमित कर देता है। इसका जीवंत उदाहरण यह है कि राज्य के सभी कुकी विधायक, चाहे वे जिस भी पार्टी के हों, अब मणिपुर से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं। वह भी तब जबकि राज्य में उनका ही एकाधिकार है। उनके उलट प्राचीन भारतीय सभ्यता को सहेजकर रखने वाला मैती समुदाय है, जो अपने ही क्षेत्र में हाशिये पर पहुंचाए जाने के बावजूद मणिपुर को बांटने के विरुद्ध है, क्योंकि यह वर्ग इस भूमि से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है।

इस पूरे विवाद के बीच चर्च अपनी रोटियां सेंकने में लगा है। ईसाई एकता के नाम पर नगालिम चर्च ने कुकी समुदाय के पक्ष में बयान जारी किया। मिजोरम के ईसाई नेता मणिपुर के विभाजन के जरिये ग्रेटर मिजोरम के सपने को पुनर्जीवित करने में लगे हैं, जिसमें ईसाई बहुल मिजो-कुकी-चिन क्षेत्र शामिल होंगे, जिससे एक वृहत्तर ईसाई प्रदेश स्थापित किया जा सके। इसीलिए म्यांमार से चिन जनजाति की भी मणिपुर में घुसपैठ कराई जा रही है ताकि जनसांख्यिकीय परिवर्तन हो सके। ऐसे में मणिपुर में हिंसा और अवैध घुसपैठ को सख्ती से काबू में करना बहुत आवश्यक है। अन्यथा पूर्वोत्तर में विभिन्न अलगाववादी समूहों से केंद्र सरकार द्वारा किए गए समझौतों पर भी खतरा मंडरा सकता है, क्योंकि ये समूह एक बार फिर से नई मांगें उठाकर हिंसा को बढ़ावा दे सकते हैं।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)