[ योगेंद्र नारायण ]: जब भी कोई जनप्रतिनिधि चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा के प्रांगण में प्रवेश करता है तो उसके दिमाग में कई नए विचार कौंधते हैं। वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के साथ-साथ राष्ट्र के लिए भी कुछ करना चाहता है। वह ‘विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा एवं निष्ठा रखने’ की शपथ लेता है। वह भारत की प्रभुता एवं अखंडता को अक्षुण्ण रखने और अपने दायित्व का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करने का प्रतिज्ञान करता है। हालांकि कुछ समय बाद ही वह स्वयं को कई विरोधाभासी मांगों और दबावों के आगे लाचार पाता है।

नागरिकों के प्रति उत्तरदायी

सदन में किसी विषय पर विचार व्यक्त करने या मतदान करने के दौरान वह सबसे पहले अपने निर्वाचन क्षेत्र के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी है, क्योंकि वही लोग उसे चुनकर संबंधित सदन में भेजते हैं। इसके बाद वह उस राजनीतिक दल के प्रति जवाबदेह है जिसके टिकट पर वह चुनाव जीतकर आता है और आखिर में वह अपनी अंतरात्मा के प्रति उत्तरदायी होता है। आखिर उसे इनमें से किसे प्राथमिकता देनी चाहिए? हमारा संविधान चुनाव प्रक्रिया, निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन, मतदाताओं और चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी की अर्हता को तो परिभाषित करता है, मगर संविधान के मूल स्वरूप में राजनीतिक दलों और उनकी भूमिका का कोई उल्लेख नहीं है।

दलबदल विधेयक: 52वां संविधान संशोधन

1985 में 52वें संविधान संशोधन के बाद दसवीं अनुसूची को जोड़ने के साथ संविधान में पहली बार राजनीतिक दलों का संदर्भ जोड़ा गया। यह संविधान संशोधन राजनीतिक दलबदल के आधार पर जनप्रतिनिधि को अयोग्य ठहराने के लिए किया गया था। इस अनुसूची के तहत अगर किसी राजनीतिक दल से संबद्ध किसी सदन का कोई सदस्य अपने दल से इतर मतदान करता है या उस दल की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देता है तो उसकी सदन की सदस्यता स्वत: समाप्त हो जाती है।

राजनीतिक दल के प्रति जिम्मेदारी

दसवीं सूची के प्रवर्तन से पहले कोई राजनीतिक दल अपने किसी सदस्य को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए पार्टी के संविधान के दायरे में ही उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई के जरिये निलंबित करता था, मगर दलबदल कानून के चलते अब ऐसे सदस्य को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के साथ उसकी सदन की सदस्यता भी समाप्त हो जाती है। आज स्थिति यह है कि जनप्रतिनिधि की पहली और सर्वप्रमुख जिम्मेदारी उसके राजनीतिक दल के प्रति है।

पिंजरे में बंद तोता

अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति उसकी जवाबदेही दूसरे पायदान पर पहुंच गई है। वह पिंजरे में बंद तोता बन गया है। यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी खराबी है। हमारे देश के संस्थापकों ने कभी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि चुने हुए जनप्रतिनिधि किसी ऐसे बाहरी संगठन की कठपुतली बन जाएंगे जिसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं। दलबदल विरोधी कानून लाने की मंशा जरूर भली थी, लेकिन इसने जनप्रतिनिधियों की आवाज को कुंद किया है। न तो वे अपनी अंतरात्मा की आवाज पर मतदान कर सकते हैं और न ही किसी मुद्दे पर मुखर होकर अपनी बात रख सकते हैं। उन्होंने अपने-अपने राजनीतिक दल के आगे पूरी तरह समर्पण कर दिया है।

पार्टी की रीति-नीति पर चलना होता है

संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संसद के सदस्यों को न केवल सदन में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता हासिल है, बल्कि इसके लिए उन पर किसी अदालत में कोई कार्रवाई भी नहीं की जा सकती। हालांकि दसवीं अनुसूची वाक् स्वतंत्रता और मतदान की आजादी में अवरोध उत्पन्न करती है। किसी राजनीतिक दल से संबद्ध सदस्य किसी विधेयक पर खुलकर अपनी बात या मतदान नहीं कर सकता। उसे अपनी पार्टी की रीति-नीति पर ही चलना होगा। यदि किसी विधेयक पर मतदान के लिए पार्टी की ओर से कोई व्हिप जारी हुआ है तो वह उसके खिलाफ मतदान नहीं कर सकता। वह अंतरात्मा की आवाज के साथ नहीं जा सकता। इस तरह वह अपने अंत:करण के प्रति भी ईमानदार नहीं रह पाता।

आंतरिक लोकतंत्र का अभाव

राजनीतिक दलों के संविधान भी ऐसे हैं कि वहां निर्णय प्रक्रिया एक विशिष्ट वर्ग तक सीमित है। अधिकांश राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। नीतिगत निर्णय आम सदस्यों द्वारा नहीं लिए जाते। ऐसे फैसले पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही तय करता है। जनप्रतिनिधि को अक्सर अपनी बात कहने का अवसर भी नहीं मिलता, क्योंकि यह भी पार्टी व्हिप द्वारा तय होता है कि संबंधित विषय पर कौन बोलेगा। पार्टी व्हिप में ही वे नाम दिए जाते हैं कि उसकी ओर से बोलने के लिए किसे अधिकृत किया गया है। पीठासीन अधिकारी फिर उन्हें क्रमानुसार अवसर देते हैं। हालांकि यदि राजनीतिक दल को आवंटित समय में से कुछ वक्त शेष बचता है तब सभापति के आसन की ओर से गैर-सूचीबद्ध सदस्यों को बोलने का मौका दिया जा सकता है। यहां तक कि निर्वाचन क्षेत्र से संबंधित मुद्दों पर भी सदस्य को पार्टी लाइन पर ही चलना होता है।

पार्टी के रुख का समर्थन

केरल में सबरीमाला मुद्दे पर यह स्पष्ट रूप से देखने को मिला। उसमें जनप्रतिनिधियों ने पार्टी के रुख का ही समर्थन किया। इसमें राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के भीतर तमाम विरोधाभास और उतार-चढ़ाव देखने को मिले। जब केरल में सत्तारूढ़ दल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने का फैसला किया तो फिर कार्यकर्ता भी पार्टी के सुर में सुर मिलाने लगे। इससे पहले दोनों के स्वर अलग-अलग थे।

जनप्रतिनिधि एक दुविधाग्रस्त प्राणी

इसी तरह तत्काल तीन तलाक के मसले पर भी तमाम जनप्रतिनिधि अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की भाषा बोल रहे थे। इस तरह जनप्रतिनिधि आज एक दुविधाग्रस्त प्राणी बन गया है। वह न तो अपने मन की बात कर सकता है और न ही मनमुताबिक वोट कर सकता है। अदालती आदेश यहां तक कह चुके हैं कि संसद से बाहर जनप्रतिनिधि का आचरण भी दलबदल विरोधी कानून के दायरे में आ सकता है। इस प्रकार देखा जाए तो जनप्रतिनिधियों की वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो आम नागरिकों से भी गई-गुजरी है।

अमेरिका में सांसद पार्टी की नीतियों से परे हैं

अमेरिका में कोई सांसद, वह चाहे रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, अपनी इच्छानुसार मतदान करने के लिए स्वतंत्र है-भले ही यह उसके राजनीतिक दल के रुख से मेल न खाता हो। यहां तक कि अगर वह सत्तारूढ़ दल से जुड़ा है तब भी राष्ट्रपति और उनके प्रशासन की आलोचना कर सकता है। ब्रिटेन इस मामले में एक और मिसाल है जहां विपक्ष के साथ सत्तारूढ़ दल के सदस्य भी अपने-अपने दलों की नीतियों के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र हैं।

अंतरात्मा के आधार पर निर्णय करने की आजादी

ब्रेक्सिट पर हालिया मतदान इसका उदाहरण है। वहां जनप्रतिनिधियों ने अपनी अंतरात्मा या फिर अपने निर्वाचन क्षेत्रों में बहुसंख्यक लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप मतदान किया। आयाराम-गयाराम यानी दलबदल को रोकने के अलावा अगर राजनीतिक दल व्हिप को केवल अविश्वास प्रस्ताव और धन विधेयक या बजट तक सीमित कर दें तो बेहतर होगा। इससे सरकारों का स्थायित्व सुनिश्चित होगा। सामान्य मामलों और नीतियों के मुद्दे पर जनप्रतिनिधि को अपनी अंतरात्मा के आधार पर निर्णय करने की आजादी मिलनी चाहिए। ऐसा तंत्र सरकार के स्थायित्व को सुनिश्चित करते हुए जनप्रतिनिधि को यह महसूस करने का अवसर देगा कि देश के शासन-संचालन में उसका भी अहम योगदान है।

( लेखक पूर्व आइएएस अधिकारी एवं राज्यसभा के पूर्व महासचिव हैं ) 

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