[ धर्मकीर्ति जोशी ]: इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार ने बेहद चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में यह बजट पेश किया है। एक ओर मांग सुस्त है तो दूसरी ओर मुद्रास्फीति की चुनौती मुंह बाएं खड़ी है। राजकोषीय मोर्चे पर भी मुश्किलें हैं। वित्तीय क्षेत्र भी दबाव में है। ऐसी स्थिति में बजट से अपेक्षाएं भी बहुत लगी थीं।

रियायतों की दिशा में उठाए गए कदमों को यदि मूर्त रूप दिया गया तो सुखद परिणाम आएंगे

पस्त पड़ी मांग के बावजूद तमाम जानकार सरकारी प्रोत्साहन पैकेज को लेकर दोफाड़ ही थे। ऐसे में बेहतर यही होता कि बीच का रास्ता तलाश संतुलन साधने की कवायद की जाती। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में वृद्धि दर में आई भारी गिरावट को देखते हुए सरकार ने मुख्य रूप से आपूर्ति शृंखला के मोर्चे को साधना ज्यादा मुनासिब समझा। वहीं कुछ कर रियायतों से जहां कर विभाग पर बोझ कम होगा तो आयकरदाताओं की माथापच्ची भी कम होगी। इसी तरह वित्तीय क्षेत्र, बुनियादी ढांचा और कृषि बाजार पर ध्यान देने की बहुत दरकार थी। इस दिशा में कदम भी उठाए गए हैं। यदि इन्हें सही तरह से मूर्त रूप दिया जा सका तो आने वाले वर्षों में उसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे।

बजट के व्यापक विश्लेषण के लिए दो पहलू

बहरहाल बजट के व्यापक विश्लेषण के लिए हमें दो पहलुओं पर गौर करना होगा। एक तो बजटीय आकलन एवं राजकोषीय अंकगणित और दूसरा बजट के बाद वृद्धि का परिदृश्य। चालू वित्त वर्ष में ये दो पहलू ही सबसे बड़ी चिंता का विषय बने हुए हैं।

बजट में राजकोषीय दायरे की दिशा में सरकार ने दो दांव आजमाए

पहले राजकोषीय गुणा-गणित पर ही गौर किया जाए। जैसा कि व्यापक रूप से अनुमान लगाया जा रहा था कि राजकोषीय घाटे का संशोधित आंकड़ा राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन यानी एफआरबीएम एक्ट के अनुरूप नहीं रहा। चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 प्रतिशत के बराबर अनुमानित किया गया था, लेकिन यह अंतत: 3.8 प्रतिशत रहा। इससे सरकार के पास खुले हाथ से खर्च करने की गुंजाइश खत्म हो गई। वहीं वित्त वर्ष 2020-21 के लिए राजकोषीय दायरे की दिशा में सरकार ने दो दांव आजमाए हैं।

पहला- घाटे के लक्ष्य को संशोधित किया, दूसरा- निजीकरण के जरिये राजस्व की तलाश

एक तो उसने पिछले बजट में घोषित किए गए घाटे के लक्ष्य को संशोधित किया और दूसरा यही कि वह अपनी संपत्तियों की बिक्री एवं निजीकरण के जरिये आक्रामक रूप से राजस्व तलाशने में लगेगी। वैसे भी वृद्धि को सहारा देने के लिए कुछ रियायत की दरकार भी थी। यह कहीं ज्यादा व्यावहारिक रवैया है। इसी सिलसिले में अब वित्त वर्ष 2023 के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को तीन के बजाय 3.1 प्रतिशत कर दिया गया है। चूंकि बीते तीन दशकों में यह लक्ष्य एक बार ही हासिल हो पाया है तब क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इससे जुड़ा वास्तविक लक्ष्य तय किया जाए। यहां कहने का अर्थ यह नहीं है कि अनुशासित लक्ष्य महत्वपूर्ण नहीं हैं, परंतु राजकोषीय विश्वसनीयता के लिहाज से वास्तविक लक्ष्य कहीं बेहतर होंगे।

राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.5 प्रतिशत तय किया गया

अब दूसरे पहलू की बात कि आगामी वित्त वर्ष के लिए बजट में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.5 प्रतिशत तय किया गया है जबकि पिछले बजट में तीन वर्षों के लिए तय की गई सीमा तीन प्रतिशत की थी। ऐसे में कुछ तात्कालिक खर्चों की पूर्ति के लिए राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को कुछ आगे खिसका दिया गया है।

राजस्व व्यय में कटौती करके राजकोषीय फिसलन से बचने का उपाय किया गया

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि क्या खर्च में कटौती किए बिना इस साल के घाटे का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? बीते दो बजट में राजस्व संग्रह का लक्ष्य कोसों दूर रह गया। चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों के अनुसार कर संग्रह तीन प्रतिशत के लक्ष्य से पीछे रह गया। ऐसे में राजस्व व्यय में कटौती करके ही राजकोषीय फिसलन से बचने का उपाय किया गया, क्योंकि पूंजीगत व्यय तो बजट अनुमान से ऊपर जा सकता है और अगले साल के लिए भी यही रणनीति अपनाना सही होगा।

सरकार को कर राजस्व के मोर्चे पर एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा

ऐसी स्थिति में नॉमिनल जीडीपी में 10 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान संभव लगता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अर्थव्यवस्था कुछ सुधार की ओर अग्रसर है और मुद्रास्फीति के भी चार प्रतिशत आसपास रहने के आसार हैं। हालांकि इसके लिए सरकार को कर राजस्व के मोर्चे पर कुछ अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। हालांकि इसमें सबसे टेढ़ी खीर विनिवेश का 2.1 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य हासिल करना होगा। अगर सरकार ने इसके लिए एड़ी-चोटी के जोर नहीं लगाए तो इसे हासिल करना बेहद मुश्किल होगा। यह इसलिए और महत्वपूर्ण है, क्योंकि चालू वित्त वर्ष में शेयर बाजार में बहार के बावजूद सरकार विनिवेश के लक्ष्य से 38 प्रतिशत पीछे रह गई। अगर इसकी पुनरावृत्ति होती है तब समझिए कि राजकोषीय घाटे में 0.35 फीसद की वृद्धि और हो जाएगी।

छह फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान

जहां तक बजट के बाद के परिदृश्य की बात है तो मौजूदा परिवेश को देखते हुए तमाम लोगों को छह प्रतिशत की विकास दर ही बहुत दूर की कौड़ी लग रही है। वैसे बीते एक दशक के अनुभव को देखें तो हमारे नीति निर्माता और निजी क्षेत्र के दिग्गज यह अनुमान लगाने में अमूमन नाकाम ही रहे हैं कि हालात में सुधार कब और कितनी तेजी से हो सकते हैं। असल में वृद्धि का अनुमान मुख्य रूप से उन वृहद आर्थिक परिवेश पर ही निर्भर करता है जिसमें उनका खाका खींचा जाता है। इस लिहाज से अगर मानसून सामान्य रहा और कच्चे तेल की कीमतें 60 से 65 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में रहती हैं तो हम अभी भी छह प्रतिशत की वृद्धि दर की उम्मीद कर सकते हैं। इसमें मौद्रिक नीति भी कुछ योगदान करेगी बशर्ते नीतिगत दरों का लाभ अपेक्षित तरीके से रूपांतरित हो सके।

पीएम-किसान और मनरेगा में खर्चा यथावत रखा गया

तमाम अन्य प्रोत्साहनों के साथ ही बजट में पीएम-किसान और मनरेगा जैसी योजनाओं में खर्चा यथावत रखा गया है जिनमें उपभोग को बढ़ाने की क्षमता है। ग्रामीण सड़कों के लिए 39 प्रतिशत अधिक आवंटन किया गया है। इससे ग्रामीण घरेलू उपभोग में तेजी आएगी। जहां तक मुद्रास्फीति के मोर्चे की बात है तो चालू वित्त वर्ष में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआइ का अंतिम स्तर 4.5 प्रतिशत रहेगा।

मुद्रास्फीति चार प्रतिशत के दायरे में रह सकती है

दिसंबर में महंगाई ने भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा खींची गई छह प्रतिशत की लक्ष्मण रेखा को लांघकर 7.4 प्रतिशत का स्तर छू लिया था जिसमें मुख्य भूमिका कुछ खाद्य उत्पादों की कीमतों में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी की थी। हालांकि इस दौरान समग्र मुद्रास्फीति 3.8 प्रतिशत के दायरे में ही रही। ऐसे में सब्जियों जैसी वस्तुओं की कीमतों में आई तेजी के तात्कालिक प्रभाव को छोड़ दें तो हम आगामी वित्त वर्ष में मुद्रास्फीति के औसतन चार प्रतिशत स्तर की उम्मीद कर सकते हैं। हालांकि बजट में महंगाई बढ़ाने वाला कोई पहलू नहीं है।

निजी निवेश बुरी तरह पस्त होने से खर्च की कमान खुद सरकार को संभालनी पड़ी

चूंकि निजी निवेश बुरी तरह पस्त है तो खर्च की कमान खुद सरकार को संभालनी पड़ी है। ऐसे में आगामी वित्त वर्ष में सुधार को कमजोर बेस प्रभाव का भी लाभ मिलेगा। वैसे भी अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए राजकोषीय एवं मौद्रिक सीमाओं, वित्तीय क्षेत्र में जोखिम और मंद पड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था जैसी चुनौतियों का तोड़ एक झटके में निकाला भी नहीं जा सकता।

( लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं )