[ ए. सूर्यप्रकाश  ]: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बीते दिनों दिल्ली में तीन दिनों तक विभिन्न विषयों पर अपना नजरिया सामने रखा। दिल्ली में संभ्रांत श्रोताओं के लिए सुनियोजित तरीके से आयोजित इस कार्यक्रम से वे भ्रांतियां दूर होनी चाहिए जो कुछ लोग लंबे अर्से से संघ को लेकर पाले हुए थे। इस दौरान मोहन भागवत ने संघ विरोधियों को कई मुद्दों पर आड़े हाथों लिया और उन्हें सुनकर मुझे यही महसूस हुआ कि उनके कई विरोधी निरुत्तर हो गए होंगे। उन्होंने सेक्युलरिज्म, बहुलतावाद, विविधता, अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकार, समलैंगिक अधिकार, हमारे संविधान के मूल विचार, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान जैसे तमाम मुद्दों पर बात की जो हमारे राष्ट्रीय विमर्श से जुड़े हैं।

संघ की आलोचना करने वालों और देश के अधिकांश नागरिकों की वास्तविक धर्मनिरपेक्ष आकांक्षाओं को सही आईना दिखाने के लिहाज से अगर उनकी बातों के लिए क्रिकेटीय भाषा का इस्तेमाल करें तो उन्होंने अपने जवाबों से विपक्षियों की गेंद को सीमा रेखा से भी पार मैदान के बाहर का रास्ता दिखाया। जहां उनकी ये सभी बातें इस व्याख्यान शृंखला की अहम कड़ियां साबित हुईं वहीं गुरु गोलवलकर की पुस्तक ‘द बंच ऑफ थॉट्स’ के बारे में भागवत के विचारों ने भारत के लोकतंत्र एवं विविधता और उदारवादी मूल्यों को लेकर संघ की समरसता को दर्शाया। संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्टों को भारत का शत्रु माना, लेकिन भागवत ने संकेत दिए कि संघ गोलवलकर के रुख से इतर राय रखता है।

उन्होंने कहा कि कुछ बातें कुछ विशेष संदर्भों में ही कही गईं। इसी कड़ी में संघ ने अब गोलवलकर के विचारों को ‘सदा काल के लिए उपयुक्त विचार’ के रूप में नए सिरे से प्रकाशित किया है। इसका अर्थ है कि अल्पसंख्यकों पर गोलवलकर के उन विचारों को संपादित किया गया है जो भारत की मौजूदा वास्तविकताओं से मेल नहीं खाते। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का हवाला देते हुए भागवत ने कहा कि संघ कोई कूपमंडूक संगठन नहीं है और बदलते वक्त के साथ कदमताल करना उसका दायित्व है। उन्होंने तमाम अलहदा मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट किया।

संविधान को लेकर भागवत ने कहा कि संघ भारतीय संविधान के प्रति पूरी तरह समर्पित है और यह राष्ट्रीय सर्वानुमति को व्यक्त करता है। संविधान का सम्मान एवं पालन प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। इसे महान हस्तियों ने तैयार किया जिन्होंने इसकी रचना के दौरान भारत से जुड़े विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखा। गहन विचार-विमर्श के बाद ही इसमें एक-एक शब्द जोड़ा गया जिनमें राज्य के नीति निदेशक तत्व और मूल अधिकार भी शामिल हैं। भागवत ने इसी बात पर जोर दिया कि सभी को संविधान से आबद्ध रहना चाहिए। संविधान की उद्देशिका के संदर्भ में उन्होंने व्यक्ति की बंधुता और गरिमा एवं राष्ट्र की एकता और अखंडता का विशेष रूप से उल्लेख किया। बंधुता की भावना विविधता में एकता के भाव को ही बढ़ाती है। सभी को साथ लेकर चलने वाली संविधान की संकल्पना इसे एक उदारवादी दस्तावेज बनाती है जो सार्वभौम मूल्यों को ही पोषित करता है। संविधान की अहमियत को लेकर भागवत की ऐसी टिप्पणियों से उन लोगों के मुंह बंद हो जाने चाहिए जो संघ को संविधान विरोधी मानते हैं।

विविधता के प्रश्न पर संघ को अक्सर घेरा जाता है। संघ विरोधी लगातार उसे एक हिंदू सांप्रदायिक संगठन साबित करने पर तुले होते हैं जो देश के विविधता भरे ढांचे के खिलाफ है। इस मामले में भागवत का स्पष्टता भरा दृष्टिकोण इन आरोपों का राष्ट्रीय स्तर पर जवाब देने की शायद पहली गंभीर कोशिश है। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि विविधता तो उत्सव मनाने की वजह है। किसी को भी विविधता से खौफ नहीं खाना चाहिए। हमें विविधता का गुणगान करने के साथ ही उसका सम्मान करना चाहिए। हिंदुत्व का भी यही सरोकार है। आपके कल्याण पर ही मेरा कल्याण निर्भर है, यही हिंदुत्व के दर्शन का आधार है। संघ के लिए कोई भी पराया नहीं है। हमारा लक्ष्य ही संपूर्ण समाज को जोड़ना है। हमें भेद रहित समाज निर्माण के लिए काम करना होगा। संघ को लेकर मुस्लिमों में डर को लेकर उन्होंने मुसलमानों को संघ के कार्यक्रमों में शामिल होने का आमंत्रण दिया कि वे आएं और संघ को करीब से देखें कि यह कैसा संगठन है। इस दौरान उनका एक बयान यादगार बन गया कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हिंदुत्व में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं, जिस दिन ऐसा हुआ तो समझिए कि हिंदुत्व, हिंदुत्व नहीं रहेगा।

हिंसक भीड़ जैसे मामलों पर भी उन्होंने कहा कि गोरक्षा के नाम पर ऐसी घटनाएं अपराध हैं जो किसी भी लिहाज से स्वीकार्य नहीं हैं। साथ ही उन्होंने गाय तस्करी के खिलाफ आवाज उठाने की भी बात कही, क्योंकि संविधान गो संरक्षण का समर्थन करता है। समलैंगिकों के मुद्दे पर भी उन्होंने कहा कि वे भी समाज का हिस्सा हैं और उन्हें खुद को अलग-थलग महसूस नहीं करना चाहिए। वहीं समान नागरिक संहिता पर भागवत ने कहा कि संघ ‘एक देश-एक कानून’ में विश्वास करता है, लेकिन साथ ही हम इस बात से भी वाकिफ हों कि हमारा समाज कितना विविधतापूर्ण है। यहां तक कि इस मामले में हिंदुओं के बीच ही तमाम मान्यताएं हैं। ऐसे में आवश्यक है कि इस मुद्दे पर कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए।

अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण पर उन्होंने कहा कि वहां एक भव्य राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए। भगवान राम भारतीय मर्यादा के प्रतिनिधि हैं। यहां तक कि भागवत ने भगवान राम को इमाम-एर्-ंहद बताते हुए कहा कि उस स्थान पर पहले एक मंदिर ही था। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा मसला है। इसे इतना लंबा नहीं खींचा जाना चाहिए। वहां मंदिर बनाया जाना चाहिए और जब वहां मंदिर बन जाएगा तब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद की एक बड़ी वजह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। आरक्षण के प्रश्न पर उन्होंने कहा कि संघ इससे संबंधित सभी संवैधानिक पहलुओं का समर्थन करता है। उनके मुताबिक आरक्षण में कोई समस्या नहीं, लेकिन असल दिक्कत उस पर होने वाली राजनीति को लेकर है। उन्होंने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए बने कानून सख्ती से लागू करने की बात भी कही। साथ ही यह भी सुनिश्चित करने को कहा कि इन कानूनों का दुरुपयोग भी न हो।

उनकी इन बातों में अयोध्या मुद्दे को लेकर जरूर लोगों के कुछ आग्रह हो सकते हैं, लेकिन अधिकांश बातें सभी राजनीतिक हलकों में स्वीकार्य होनी चाहिए। दिलचस्प बात यही रही कि उन्होंने सभागार में बैठे लोगों से कहा कि उनकी मंशा यह नहीं कि वह सभी लोगों को संघ के मूल आदर्शों के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करें या उसे संघ कार्यकर्ता में परिणत कर दें। उन्होंने कहा कि वह तो यहां उस खुले आमंत्रण का संदेश देने आए हैं जो संघ और उसकी शाखाओं में आने के इच्छुक हैं और वे अपने अनुभवों से ही संघ के बारे में कोई राय कायम करें। संघ को संदेह की दृष्टि से देखने वाले नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों को बिना देरी किए इस अवसर को लपकना चाहिए कि वे संघ को भीतर से देखकर खुद आकलन कर सकें। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें खुद अपनी ‘बंच ऑफ थॉट्स’ की समीक्षा करनी चाहिए।

[ लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]