प्रणव सिरोही। अब इसमें शायद ही कोई संदेह रह गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। तमाम आंकड़े इसकी पुष्टि कर ही रहे हैं, बीते सप्ताह आइएमएफ यानी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी इस आर्थिक फिसलन को रोकने के लिए सरकार से अविलंब कुछ कदम उठाने के लिए कहा है। इससे पहले 12 दिसंबर की देर रात क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स (एसएंडपी) के एक नोट ने वित्त मंत्रालय के अधिकारियों की नींद जरूर उड़ा दी होगी जिसमें एजेंसी ने कहा कि यदि समय रहते सरकार ने उचित कवायद नहीं की तो उसे भारत की रेटिंग घटाने से गुरेज नहीं होगा। मौजूदा माहौल में किसी भी रेटिंग एजेंसी की ऐसी कार्रवाई बुरे हालात को और बदतर बनाने का ही काम करेगा, क्योंकि तमाम निवेशक संस्थाएं इन्हीं एजेंसियों की रेटिंग के आधार पर अपने निवेश का निर्णय करती हैं।

समझना होगा आर्थिक सुस्ती का स्वरूप 

चूंकि किसी भी मर्ज के उपचार के लिए पहले-पहल उसकी पड़ताल अपरिहार्य हो जाती है यानी इस आर्थिक सुस्ती के स्वरूप को समझना होगा। बीमारी के संकेत बताने वाले मुद्रा कोष और एसएंडपी की नसीहतों पर गौर करते हैं। वैसे उनका निचोड़ कुछ राहत देने वाला है। उनका मानना है कि भारत की आर्थिक सुस्ती ढांचागत नहीं, बल्कि चक्रीय है और उसकी बुनियाद इतनी मजबूत है कि वह जल्द ही जोरदार वापसी करने में पूरी तरह सक्षम भी है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो अर्थव्यवस्था किसी मौसमी संक्रामक बीमारी से जूझ रही है और उसमें किसी असाध्य बीमारी के लक्षण नहीं दिख रहे।

आंकड़े करते पुष्टि 

आंकड़े खुद इसकी पुष्टि करते हैं। मसलन वाहन, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और हाउसिंग जैसे क्षेत्रों के आंकड़े बताते हैं कि ये मांग की भारी कमी से जूझ रहे हैं। यानी मंदी मांग जनित अधिक है। अब जब मांग का मुद्दा उठता है तो हमें चार पहलुओं- निजी उपभोग व्यय, सरकारी उपभोग, सकल पूंजी निर्माण और निर्यात पर गौर करना होगा। इनमें केवल सरकारी उपभोग को छोड़ दिया जाए तो तीनों पहलू फिलहाल पस्त पड़े दिखाई देंगे। वर्ष 2011-12 में जिस पूंजी निर्माण की दर 34.3 प्रतिशत थी वह चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में सिकुड़कर 27.8 प्रतिशत रह गई। केवल यही पहलू जीडीपी वृद्धि दर को तकरीबन डेढ़ प्रतिशत तक प्रभावित करने की क्षमता रखता है। वैश्विक बाजारों में मंदी और भारतीय उद्योगों की अपेक्षाकृत कमजोर प्रतिस्पर्धा क्षमता के चलते निर्यात से भी ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाई जा सकतीं।

सरकारी उपभोग के भरोसे अर्थव्यवस्था 

अभी अर्थव्यवस्था सरकारी उपभोग के भरोसे चल रही है, लेकिन उसकी एक सीमा है जिसे जरूरत से ज्यादा बढ़ाना राजकोषीय घाटे की सूरत बिगाड़ेगा। हालांकि अनेक अर्थशास्त्री सरकारी खर्च को बढ़ाने की बात कर रहे हैं और इसके लिए 2008 की आर्थिक मंदी से निपटने के उपायों की ओर भी ध्यान दिलाया जा रहा है, लेकिन मनमोहन सरकार के दौरान लिए गए उन फैसलों का असर ऐसा हुआ था कि राजकोषीय घाटा 2009-10 के दौरान बढ़कर जीडीपी के 6.6 प्रतिशत तक पहुंच गया था जो राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजट प्रबंधन अधिनियम में निर्धारित सीमा के दोगुने से भी अधिक था। वैसे भी सरकारी हस्तक्षेप गड्ढे में पड़ी गाड़ी को निकाल जरूर सकता है, पर रफ्तार केवल निजी निवेश से प्रेरित आर्थिक गतिविधियों के ईंधन से ही दी जा सकती है।

आरबीआई पर लगी नजर

ऐसे में निजी निवेश के लिए सस्ते कर्ज की उम्मीद से निगाहें रिजर्व बैंक की ओर टिकती हैं, लेकिन महंगाई ने इस मामले में केंद्रीय बैंक के हाथ और बांध दिए हैं। हालांकि आरबीआइ इस वर्ष फरवरी से अब तक नीतिगत दरों में 135 आधार अंकों की कटौती कर चुका है, मगर उसका फायदा भी अभी तक जमीनी स्तर पर मिलता नहीं दिख रहा। एक हालिया रपट के अनुसार साल की पहली छमाही में कंपनियों को मिलने वाले कर्ज में लगभग 60 फीसद की कमी दर्ज की गई। असल में गैर निष्पादित आस्तियों यानी एनपीए से कराह रहे बैंक इस कारण नए कर्ज देने को लेकर शंकालु बने हुए हैं। संकट से जूझ रहे एनबीएफसी के चलते यह स्थिति और जटिल होती गई। इसी कारण कर्ज की यह धारा सूख गई है। हालांकि अनेक नए प्रयासों से फंसे हुए कर्जो की वसूली में आई तेजी से बैंकों की दशा सुधरी है जिसका लाभ निजी क्षेत्र को नए कर्जो के प्रवाह में मिल सकता है।

बैंकों को मदद

हालांकि सरकार ने मुश्किलों से जूझते बैंकों को पुनर्पूजीकरण की मदद मुहैया कराई है, लेकिन यही काफी नहीं होगा। बैंकिंग क्षेत्र व्यापक एवं ढांचागत सुधारों की बाट जोह रहा है। बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक सुधार से ही देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकती है। सरकार ने हाल में आइबीसी में सुधार को लेकर भी सराहनीय कदम उठाया है जिसमें पुरानी कंपनी के प्रबंधन के किसी कृत्य को लेकर बोली में सफलता हासिल करने वाली नई कंपनी को किसी आपराधिक कार्रवाई से नहीं जूझना होगा। इसके चलते इनसॉल्वेंसी प्रक्रिया में शामिल होने की इच्छुक तमाम कंपनियां भयाक्रांत थीं, जो डर अब सरकार ने दूर कर दिया है।

आर्थिक सुस्‍‍‍‍ती दूर करने के उपाय 

इसके अलावा मौजूदा सुस्ती को दूर करने के लिए मोदी सरकार की निवेश एवं वृद्धि पर नवगठित समिति की भी गत सप्ताह की शुरुआत में बैठक हुई। फिर भी तमाम ऐसे सुधार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं जो आर्थिक मोर्चे पर ‘एनिमल स्पिरिट’ यानी धारणा और माहौल को बदलने का माद्दा रखते हैं। क्या अपने राजनीतिक एवं सामरिक एजेंडे पर पर्याप्त दमखम दिखाने वाली मोदी सरकार ढांचागत आर्थिक सुधारों को मूर्त रूप देने का साहस दिखा पाएगी? अर्थव्यवस्था को इस फौरी सुस्ती से निकालने और पांच टिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य काफी कुछ इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेगा। 

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