हर्ष वी पंत। लंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने आखिर अपनी बात सामने रखी। उन पर दबाव स्पष्ट रूप से दिखा। श्रीलंका इस समय अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। वह आर्थिक रूप से बदहाल हो गया है। जनता में भारी आक्रोश है। इसने राजनीतिक अस्थिरता का जोखिम बढ़ाया है। राष्ट्रपति गोटाबाया महीनों तक जनता की नाराजगी को अनदेखा कर कड़े एवं निर्णायक फैसले लेने से हिचकते रहे, किंतु जनता के निरंतर दबाव ने उन्हें अपने खोल से बाहर आने पर मजबूर कर दिया। हालांकि उन्होंने राष्ट्रपति पद से तो इस्तीफा नहीं दिया, लेकिन रानिल विक्रमसिंघे के रूप में नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति अवश्य कर दी है। साथ ही एक युवा मंत्रिमंडल के गठन के अतिरिक्त अपनी शक्तियों पर नियंत्रण संबंधी संवैधानिक सुधारों को लागू करने का वादा भी किया है। उनके बड़े भाई महिंदा राजपक्षे के समर्थकों और सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों में बीते दिनों झड़प हो गई थी। प्रदर्शनकारियों ने महंिदूा के आवास को आग के हवाले कर दिया था। दबाव में महिंदा राजपक्षे को न केवल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, बल्कि वह इस समय नौसेना के कैंप में शरण लिए हुए हैं।

राजपक्षे परिवार श्रीलंकाई जनता के कोप का केंद्र बना हुआ है। गोटाबाया भी शायद ही इससे बच पाएं। हालांकि उन्होंने कुछ विकल्प बचा रखे हैं। अपने संकटग्रस्त देश के भविष्य की खातिर वह कई पक्षों के साथ संवाद में लगे हुए हैं। यह जरूरी है, क्योंकि श्रीलंका अराजकता के कगार पर है और यदि राजनीतिक बिरादरी ने समय रहते कोई समाधान नहीं निकाला तो स्थिति का बद से बदतर होना तय है। वहां बिगड़े हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि साल में दूसरी बार आपातकाल लगाना पड़ा है। श्रीलंकाई केंद्रीय बैंक के गवर्नर नंदलाल वीरसिंघे ने आशंका जताई है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति इतनी खराब हो सकती है कि उसकी भरपाई संभव नहीं होगी। ऐसी स्थिति को रोकने के लिए उन्होंने कहा है कि जल्द ही नई सरकार गठित की जाए और यदि दो हफ्तों में राजनीतिक स्थिरता नहीं आती तो बड़ी मुश्किल होगी। राजनीतिक स्थिरता इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि वहां सैन्य तख्तापलट की अटकलें जोर पकड़ने लगी थीं, जिनका सेना को खंडन करना पड़ा। ये अटकलें राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में सेना की बढ़ती भूमिका के चलते लगाई जाने लगी थीं।

स्वतंत्र श्रीलंका के इतिहास में यह अभी तक का सबसे बड़ा आर्थिक संकट है। इससे भी बड़ी त्रसदी यह है कि संकट की इस घड़ी में कोई उसका खेवनहार नहीं दिखता। राजपक्षे परिवार ने आर्थिक कुप्रबंधन से उस अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क कर दिया है जो कुछ साल पहले तक शानदार प्रदर्शन कर रही थी। महंिदूा, उनके बेटे नमल सहित उनके भाई बासिल और चामल भी अपने पदों से चलता कर दिए गए हैं। इसके बावजूद श्रीलंकाई सड़कों पर उमड़े प्रदर्शनकारियों का आक्रोश थमता नहीं दिखता, जो स्वयं को राजपक्षे परिवार द्वारा ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। गोटाबाया का राजनीतिक भविष्य भी अधर में दिख रहा है और इस संकट का सामना करने में अभी तक उनका प्रदर्शन भी लचर ही रहा है। वैसे तो इस आर्थिक संकट के बीज श्रीलंका की पिछली कुछ सरकारों के दौरान ही बो दिए गए थे, लेकिन 2019 के चुनाव में गोटाबाया द्वारा करों में बेतुकी कटौती के दांव से इस आर्थिक आपदा ने जल्द ही विकराल रूप धारण कर लिया। फिर कोविड महामारी आ गई। उसने पर्यटन पर आश्रित श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी। इसी दौर में श्रीलंका ने खेती में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग पर प्रतिबंध जैसे खराब फैसले भी लिए। इससे खाद्य उत्पादन बुरी तरह गिर गया। जब तक इस फैसले को पलटा गया तब तक भारी नुकसान हो चुका था। खाद्य उत्पादन में भारी गिरावट आई। श्रीलंकाई रुपये की पतली होती हालत से खानपान, दवाओं और ईंधन जैसी बुनियादी जरूरत की चीजों की भारी किल्लत हो गई। बिगड़े हालात ने श्रीलंकाई जनता को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया, क्योंकि सरकार को उसकी बातें सुनाई पड़ती नहीं दिख रही थीं।

इस आर्थिक संकट में चीन भी एक अहम किरदार है। श्रीलंका ने चीन से भारी-भरकर कर्ज लिया और वह भी उन परियोजनाओं के लिए जो उसके लिए आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं थीं। महंिदूा राजपक्षे से अपनी करीबी का फायदा उठाते हुए चीन ने हंबनटोटा में बंदरगाह और उसके निकट मट्टाला में हवाई अड्डा बनाने का अनुबंध किया। ये दोनों ही इलाके महंिदूा के निर्वाचन क्षेत्र में आते हैं। कर्ज न चुका पाने के चलते श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल के पट्टे पर देने के लिए विवश होना पड़ा। श्रीलंका पर चीन का करीब 6.5 अरब डालर का कर्ज है। यह मामला असल में चीन की कर्ज के जाल में फंसाने वाली कुटिल नीति का सटीक उदाहरण है। कर्ज पुनर्गठन को लेकर चीन के साथ बातचीत भी बहुत प्रभावी नहीं रही है। हालांकि वह अपनी मुद्रा रेनमिनबी के बदले श्रीलंकाई रुपये को सहारा देने के लिए कुछ तैयार हुआ था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हस्तक्षेप के कारण उसे कदम पीछे खींचने पड़े। श्रीलंका में इस समय कायम राजनीतिक गतिरोध ने मुद्रा कोष के साथ किसी राहत पैकेज पर वार्ता के लिए उसकी स्थिति को कमजोर कर दिया है। वहीं विपक्ष गोटाबाया की साझा सरकार गठित करने की पेशकश पर हिचक दिखाने के साथ ही उनके इस्तीफे पर अड़ा हुआ है।

यहां भारत की भूमिका अहम हो जाती है। श्रीलंका के मामले में भारत का कूटनीतिक रवैया अभी तक सही रहा है। जहां भारत ने जमीनी हकीकत को भांपकर 2019 में राजपक्षे के सत्ता में आते ही उनके साथ संपर्क साधा वहीं हाल के आर्थिक संकट में श्रीलंका को निरंतर मदद भी पहुंचाई। इसमें कर्ज डिफाल्ट से बचने को 2.4 अरब डालर की मदद, डीजल की आपूर्ति और खानपान एवं दवाओं जैसे आवश्यक आयात के लिए एक अरब डालर की क्रेडिट लाइन जैसी मदद शामिल हैं। साथ ही वहां अपनी सेना न भेजने और श्रीलंका की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भरोसा जताकर भारत ने बिल्कुल सही किया। असल में इस संकट से श्रीलंका को स्वयं निपटना होगा। भारत इसमें एक जिम्मेदार पड़ोसी की तरह मददगार बना रहेगा, लेकिन श्रीलंका के भविष्य की कुंजी उसके नेताओं के हाथ में है कि वे किस प्रकार अपनी जिम्मेदारी निभाकर जन आकांक्षाओं की पूर्ति करेंगे।

(लेखक नई दिल्ली स्थित आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)