नई दिल्ली [ बलबीर पुंज ]। लिंगायतों को गैर-हिंदू घोषित करने और उन्हें अल्पसंख्यक दर्जा देने संबंधी कर्नाटक सरकार के निर्णय ने वर्तमान भारतीय शासकीय व्यवस्था के विकृत पक्ष को रेखांकित किया है। संभवत: भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां बहुसंख्यक समाज के कुछ समूह अल्पसंख्यक पहचान पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आखिर कुछ हिंदुओं द्वारा अपने अनंतकालीन सांस्कृतिक अस्तित्व से दूरी बनाने का क्या कारण है? कर्नाटक विधानसभा चुनाव में करीब 20 प्रतिशत लिंगायतों का समर्थन लेने हेतु कांग्रेस अपनी पुरानी विभाजनकारी राजनीति के प्रति लालायित हो गई है। चुनाव की घोषणा होने के साथ लागू हुई आचार संहिता के कारण लिंगायतों पर केंद्र सरकार अंतिम निर्णय बाद में लेगी, किंतु इस पहल से कांग्रेस लाभान्वित होगी या नहीं, यह 15 मई को चुनाव परिणामों के बाद स्पष्ट हो जाएगा।

गुजरात में भी कांग्रेस ने उठाया था पाटीदार अारक्षण का मुद्दा

गुजरात विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस द्वारा अपनाई इसी प्रकार की राजनीति, जिसके केंद्र में ‘पाटीदार आरक्षण’ था, को गुजरातवासियों ने विफल कर दिया था। सिद्धारमैया सरकार द्वारा लिंगायतों को गैर-हिंदू घोषित करने का फैसला उस उधार के बौद्धिक चिंतन का परिणाम है जिसे कांग्रेसी प्रबंधन ने 1970 के दशक में वामपंथियों से ठेके पर लिया था। इसके राजनीतिक मूल में-इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को एकजुट करना और जाति के नाम पर हिंदुओं को बांटना निहित है। यह प्रयास उस गांधीवादी दर्शन का प्रतिवाद भी है जिसमें भारतीय समाज की एकजुटता और भारत की अखंडता का विचार था।

महात्मा गांधी अौर राहुल गांधी के चिंतन में भारी अंतर्विरोध

1932 में जब अंग्रेज दलितों के पृथक निर्वाचन मंडल का प्रस्ताव लेकर आए तब गांधीजी ने इसका विरोध करते हुए यरवडा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनके प्रयासों के कारण ही वह योजना विफल हो गई। उस समय के ‘गांधी’ (राष्ट्रपिता) और वर्तमान कांग्रेस के ‘गांधी’ (सोनिया-राहुल) के चिंतन में भारी अंतर्विरोध है। मूल प्रश्न है कि आखिर क्यों हिंदू समाज के कुछ वर्ग ‘हिंदू’ नहीं रहना चाहते और ‘अल्पसंख्यक’ होने के लिए प्रयासरत हैं? पाकिस्तान में स्थिति इसके विपरीत है। वहां इस्लाम से निष्कासित अहमदिया समुदाय सुन्नी संप्रदाय का एक हिस्सा होने का दावा करता है। पाकिस्तान में 1974 के संवैधानिक संशोधन के जरिये अल्पसंख्यक घोषित किया गया अहमदिया पंथ इस्लाम में वापस लौटने का हरसंभव प्रयास कर रहा है। इसका कारण पाकिस्तान में गैर-मुस्लिमों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार है।

हिंदू बहुल भारत में बहुसंख्यक समाज के साथ हो रहा भेदभाव

विभाजन के समय पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की जनसंख्या 24 प्रतिशत थी जो आज दो प्रतिशत से भी कम है। इसका कारण शरीयत द्वारा निर्धारित वह नियति है जिससे बचने के लिए अल्पसंख्यक या तो मतांतरित हो गए या फिर कुछ सुरक्षित देशों में जाकर बस गए। अहमदिया समुदाय भी इसी संकट से जूझ रहा है। ‘मुझे हिंदू होने पर गर्व है’- यह नारा स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो में बुलंद किया था, फिर भी उनके द्वारा 1897 में स्थापित रामकृष्ण मिशन ने 87 वर्ष बाद स्वयं को ‘हिंदू’ संस्थान मानने से इन्कार कर दिया। इस मांग के पीछे हिंदू बहुल भारत में बहुसंख्यक समाज के साथ हो रहा भेदभाव बड़ा कारण था। 1980 के दशक में पश्चिम बंगाल की तत्कालीन माक्र्सवादी सरकार ने रामकृष्ण मिशन के शिक्षण संस्थानों पर नियंत्रण करने की कुत्सित योजना बनाई जिससे बचने के लिए उसने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया और स्वयं को अल्पसंख्यक ‘रामकृष्णवादी’ घोषित करने की मांग की।

हिंदू समाज को बांटने के पीछे भी ब्रितानियों की कुत्सित चालें रहीं

19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में संभवत: सिख, हिंदू समुदाय से बाहर जाने वाला पहला बड़ा समुदाय था जिसकी पटकथा कुटिल ब्रितानियों ने अपनी साम्राज्यवादी नीति ‘बांटो और राज करो’ के अंतर्गत लिखी। शेष हिंदू समाज को बांटने के पीछे भी ब्रितानियों की कुत्सित चालें रहीं। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत में इसी विभाजनकारी मानसिकता का संचालन कांग्रेस दशकों से ‘सेक्युलरवाद’ के नाम पर सत्ता पाने हेतु कर रही है। 2014 में संप्रग सरकार द्वारा चुनाव से ऐन पहले जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित करना इसी परिपाटी का ही एक प्रमाण है। भारत के अधिकांश बड़े और संसाधन समृद्ध मंदिरों पर सरकारों का न केवल नियंत्रण है, अपितु वे श्रद्धालुओं से प्राप्त होने वाली आय पर भी अधिकार रखती हैं। क्या इस प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप भारत की बड़ी मस्जिदों और गिरजाघरों में संभव है?

 हिंदू समुदाय भिन्न-भिन्न उप-वर्गों का वृहद समाज है

लिंगायतों के ‘गैर-हिंदू’ घोषित होने पर उन्हें अल्पसंख्यकों की भांति सभी विशेषाधिकार प्राप्त हो जाएंगे, किंतु कुछ बड़े लिंगायत नेता और बुद्धिजीवी इस पर चर्चा ही नहीं कर रहे हैं, अपितु वे केवल अपने समुदाय की विभिन्न मान्यताओं और प्रथाओं पर बल देते हुए स्वयं को ‘हिंदू’ मानने से इन्कार कर रहे हैं। लिंगायत बुद्धिजीवी एसएम जामदार के अनुसार, ‘हमें हिंदू मत कहिए, हम हिंदू-विरोधी नहीं हैं, बस हम उनसे अलग हैं।’ यदि ऐसा है तो देश में ‘हिंदू’ कौन हुआ? जो विभिन्न जातियों में बंटे हैं? जो वेदों के ज्ञानी हैं? जो किसी विशेष महाकाव्य या विशेष व्यक्तित्व में विश्वास रखते हैं? जो मूर्तिपूजा करते हैं? मंदिरों में अपना सिर झुकाते है? जो जनेऊ धारण करते हैं? अब या तो इनमें से कोई एक हिंदू है या सभी हिंदू है या फिर इनमें से कोई भी हिंदू नहीं है? वास्तव में हिंदू समुदाय भिन्न-भिन्न उप-वर्गों का वृहद समाज है जो अपनी विशेष परंपराओं, मान्यताओं, पूजा-पद्धति, रीति-रिवाजों, परिधानों आदि से अलंकृत है।

हिंदू समाज के अतिरिक्त भारत में मुस्लिम और ईसाई समाज कई भागों में बंटा है

प्राचीन हिंदू संस्कृति में मूलत: चार वर्गों का उल्लेख है-वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मार्त। इन्हीं से कई उप-वर्गों और अवतारों का जन्म हुआ। क्या इन सभी को अलग संप्रदायों में बांटकर ‘गैर-हिंदू’ घोषित कर दिया जाए? इन सभी का मूल आधार सनातन हिंदू परंपरा है- जो नित नूतन, चिर पुरातन है। हिंदू समाज के अतिरिक्त भारत में मुस्लिम और ईसाई समाज कई भागों में बंटा है जिसमें दाह-संस्कार से लेकर उनके पूजास्थल और अन्य परंपराएं तक भिन्न हैं तो क्या इस आधार पर उन्हें भी अलग-अलग संप्रदाय की मान्यता दे दी जाए?

संविधान निर्माताओं और कालांतर में सत्तारूढ़ दलों ने अल्पसंख्यकों और उनके अधिकारों को कई संवैधानिक संरक्षण दिए हैं। शिक्षा, धार्मिक और सांस्कृतिक विशेषाधिकार देने के पीछे अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले संभावित अतिक्रमण को रोकने की मंशा भले रही हो, किंतु यही बहुसंख्यक अधिकारों के हनन और भेदभाव का बड़ा कारण बन रहा है। क्या इसमें सुधार की आवश्यकता नहीं? यदि हमारी शासकीय-व्यवस्था पंथनिरपेक्ष है और सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है तो किसका मजहब क्या होना चाहिए, यह तय करने का अधिकार सरकार को किसने दिया?

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)