सौरभ जैन। Coronavirus News इन दिनों विश्व एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसकी कल्पना भी हमने पहले कभी नहीं की थी। कोरोना जैसी महामारी के आगे विश्व के विकसित राष्ट्र भी संघर्ष करते देखे जा रहे हैं। भारत भी अपने सीमित संसाधनों के साथ इस महामारी का डटकर मुकाबला कर रहा है। इस दौर में सरकारी अस्पताल के डॉक्टर समेत सभी कर्मचारी दिन-रात एक कर कार्य कर रहे हैं, तो वहीं निजी अस्पतालों की निरंतर आ रही शिकायतें आपदा के समय की चिंता में वृद्धि कर रही हैं।

देश के बड़े शहरों के नामचीन अस्पताल द्वारा कोविड संक्रमित मरीजों को भर्ती करने से पहले लाखों रुपये तक की अग्रिम जमा राशि लेने की खबरें भी आई हैं। आम आदमी द्वारा तो इन अस्पतालों में इलाज करने की कल्पना करना भी संभव नहीं हैं। निजी अस्पतालों द्वारा आपदा को अवसर में बदलते देख देश के सर्वोच्च न्यायालय को सरकार से यह प्रश्न करना पड़ा कि सरकारों से मुफ्त में जमीन लेने वाले अस्पताल कोविड मरीजों का मुफ्त में इलाज क्यों नहीं कर सकते? न्यायालय ने उन अस्पतालों की पहचान करने का आदेश दिया जो कम खर्च में कोरोना संक्रमित मरीजों का इलाज कर सकते हैं। कोरोना की चिकित्सा में निजी अस्पतालों द्वारा लाखों रुपये वसूलने के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने भी स्वयं संज्ञान लेते हुए कहा कि यदि ये अस्पताल सीमा से बाहर जाकर मनमाना शुल्क वसूल करेंगे, तो उनके लाइसेंस निरस्त कर दिए जाएंगे।

निजी अस्पतालों की मनमानी की सबसे बड़ी वजह इलाज के खर्च की अधिकतम सीमा का तय न होना था। मार्च से घोषित लॉकडाउन में देर आए दुरुस्त आए के क्रम में जून माह में केंद्र सरकार ने दिल्ली में कोविड-19 के इलाज की खर्च सीमा तय करने का फैसला लिया। केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा गठित समिति ने निजी अस्पतालों में कोरोना वायरस इलाज में होने वाले खर्चों की एक सीमा तय करने की सिफारिश की। समिति के अनुसार, दिल्ली के निजी अस्पतालों में आइसोलेशन बेड का खर्च आठ से 10 हजार रुपये, बिना वेंटिलेटर के आइसीयू का खर्च 13 से 15 हजार रुपये, आइसीयू में वेंटिलेटर के उपयोग होने पर खर्च 15 से 18 हजार रुपये तय किया गया है। इस निर्णय के होने तक तो निजी स्वास्थ्य क्षेत्र जमकर लूट कर चुके थे।

यह महामारी का समय है, किंतु सामान्य समय में भी एक आम धारणा यह होती है कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधा निजी अस्पतालों में ही मिलती है। इसी कारण से उच्च वर्ग अपने इलाज के लिए इन पर ही निर्भर रहता है, मध्य वर्ग जीवन की लालसा में इन अस्पतालों के खर्चों का जोखिम उठाता है और रही बात निम्न वर्ग की तो उसके लिए इन अस्पतालों की दहलीज भी दूर के स्वप्न समान है। कोरोना काल में सरकारी अस्पतालों और चिकित्सकों की मेहनत ने निजी अस्पतालों पर निर्भरता वाली सोच को गलत साबित किया है। हालांकि अधोसंरचना, स्वास्थ्य सुविधा और चिकित्सकों की संख्या के मामले में वे निजी क्षेत्रों के कमतर होने के बावजूद मरीजों की सेवा में आगे रहे हैं।

एक ओर स्वास्थ्य क्षेत्र सेवा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, किंतु निजी अस्पतालों ने महामारी के इस दौर में कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जो न सिर्फ हैरान करते हैं, बल्कि निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के एक मात्र धन पूर्ति के लक्ष्य की ओर इशारा भी करते हैं। अप्रैल-मई माह में कई शहरों में ऐसे मरीज जो कोरोना से संक्रमित नहीं हैं, निजी अस्पतालों द्वारा उनका इलाज न करने की खबरें भी सामने आई थी। यह कितनी हैरान करने वाली बात है? इस तरह के मामलों के प्रकाश में आने के बाद राज्यवार इस पर बहस छिड़ गई थी।

तमिलनाडु सरकार ने कोरोना इलाज के ख़र्च की ऊपरी सीमा तय करने के साथ अस्पतालों की अलग-अलग कैटेगरी बनाते हुए उनकी फीस निर्धारित की। महाराष्ट्र सरकार भी मई माह के समाप्त होते समय कोरोना संक्रमण के इलाज का अधिकतम खर्च नौ हजार रुपये प्रतिदिन निर्धारित कर चुकी है। जिस प्रदेश में कोरोना के सर्वाधिक मामले प्रारंभ से ही बने हुए हैं, वहां ऐसे आदेश निकालने में दो माह की प्रतीक्षा क्यों की गई? जिम्मेदारों की लापरवाही ने निजी क्षेत्रों को लूट करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित किया। यदि समय रहते नियम बनाए जाते तो देश भर में ऐसे अनगिनत मामले जिनमें पैसों के अभाव में इलाज न हो पाना, सामान्य बीमारी के बावजूद इलाज करने से मना कर देना, इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकते हुए एक सामान्य रोगी का कोरोना पॉजिटिव हो जाना इत्यादि नहीं होता। हर बार की तरह इस बार भी यही साबित हुआ कि हमारी नीतियां आग लगने पर कुआं खोदने जैसी ही होती हैं।

[शोध अध्येता, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर]