[ राजनाथ सिंह सूर्य ]: लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच सीटों का बंटवारा हो जाने के बाद जहां महागठबंधन की चर्चा शिथिल पड़ गई है वहीं कांग्रेस द्वारा चुनाव पूर्व किसी मोर्चे का गठन करने के लिए जिस प्रयास की धूम मचाई जा रही थी उस पर भी पूर्ण विराम लग गया है। भले ही कांग्रेस ने यह घोषणा की हो कि वह उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन उसकी असली मंशा प्रदेश की छोटी-छोटी पार्टियों को अपने झंडे के नीचे लाना है। माना जा रहा है कि अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव इस मुहिम में लगे हैं। देखा जाए तो लगभग दो दशक बाद सपा और बसपा में चुनावी समझौता हुआ है।

सत्ता में रहते हुए 1991 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद मुलायम सिंह ने बसपा संस्थापक कांशीराम का हाथ पकड़ा था और प्रबल जनसमर्थन के बावजूद भाजपा को हराकर सत्ता पर फिर से कब्जा किया था, लेकिन यह बेमेल गठबंधन प्रारंभ से ही तनावपूर्ण स्थिति में रहा और दो जून, 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद ध्वस्त हो गया। बसपा प्रमुख मायावती ने भले ही अब यह कहा हो कि उन्होंने देश के व्यापक हित के लिए उस कांड को भुला दिया है और अखिलेश यादव उनके प्रति कितनी भी विनम्रता दिखाएं, परंतु यह किसी से छिपा नहीं कि मायावती अपने साथ आने वालों का साथ छोड़ देने में महारत रखती हैं।

मायावती और अखिलेश यादव के बीच हुआ यह समझौता अभी महज दो व्यक्तियों के बीच हुआ समझौता है। इसका वास्तविक स्वरूप किन सीटों पर कौन पार्टी लड़ रही है, इसकी घोषणा होने के बाद हो सकेगा? इन दोनों ही पार्टियों का कैडर किसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से जुड़ा हुआ नहीं है। पिछले तीन दशक से इन दोनों राजनीतिक दलों की मानसिकता वाले लोगों में हर प्रकार का टकराव होता रहा है और 2016 के चुनाव तक यही स्थिति रही। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सभी प्रकार की हैसियत गंवा चुके दोनों राजनीतिक दलों के बीच अस्तित्व के लिए किया गया यह समझौता उन्हें सफलता के सोपान पर चढ़ाएगा या फिर ध्वस्त होने की दिशा में आगे बढ़ाएगा, यह निर्भर करेगा दोनों पार्टियों के कैडर में समन्वय पर। इस समझौते से एक बात स्पष्ट होती है कि राजनीति में सफलता के लिए सब कुछ जायज होने का सिद्धांत पूरी तरह अपनी पैठ बना चुका है।

निश्चय ही सपा-बसपा का गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए एक चुनौती है। इस चुनौती का सामना करने के लिए भाजपा ने 50 प्रतिशत मत प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित कर प्रत्येक मतदान केंद्र को सुदृढ़ बनाने के लिए योजनाओं की घोषणा की है। भाजपा को अपनी सीट और प्रतिष्ठा, दोनों के लिए मिली चुनौती का सामना करना यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति निरंतर शून्यता की ओर बढ़ती जा रही है। उत्तर प्रदेश के छोटे दल भाजपा से विमुख हो गए हैं और सपा-बसपा गठबंधन में उन्हें कोई स्थान नहीं मिल रहा इसलिए कांग्रेस की ओर उनका रुख करना स्वाभाविक है, लेकिन कांग्रेस के इस संभावित गठबंधन का कोई प्रभावी स्वरूप उभरकर सामने आएगा, इसकी संभावना कम है।

माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव कहीं-न कहीं त्रिकोणात्मक होने के बावजूद अधिकांशत: भाजपा और सपा-बसपा गठबंधन के बीच होगा। यही कारण है कि विश्लेषक पिछले चुनाव में इन दोनों पक्षों की स्थिति के आधार पर ही आगामी निर्वाचन के लिए समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। वे यह स्मरण रखें तो बेहतर कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं का रूझान 1967 के निर्वाचन के बाद से लगातार बदलता रहा है। वे सभी राजनीतिक दलों को अपनी कसौटी पर कसते रहे हैैं।

यह कल्पना शायद ही किसी ने की हो कि हाशिये पर चली गई भाजपा कभी उत्तर प्रदेश की 71 लोकसभा सीटें जीत सकेगी या फिर विधानसभा चुनावों में तीसरे नंबर पर रहने के बावजूद सवा तीन सौ विधायकों के साथ सरकार की बागडोर संभालेगी। इसलिए इस बार लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए केवल इसलिए गंभीर चुनौती नहीं है कि केंद्र और राज्य, दोनों में उसकी सरकार है, बल्कि इसलिए भी कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं का मिजाज प्रत्येक चुनाव में बदलता रहता है। इसमें संदेह नहीं कि केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की योगी सरकार की कल्याणाकारी नीतियों से माहौल बदला है, लेकिन लेकिन जिस जातीय समुच्चय को मंचों से बार-बार नकारा जाता है उसके परिणाम को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सफलता प्राप्त करने के बाद उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ गठबंधन के लिए इस आधार पर आस लगाए बैठी थी कि बेंगलूरु में कर्नाटक के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में मंच पर हाथ उठाकर जिन दलों के नेताओं ने एक साथ रहने की शपथ खाई थी वे कांग्रेस के समर्थक हो जाएंगे, लेकिन सपा-बसपा ने उसे ज्यादा भाव नहीं दिया। दरअसल राहुल गांधी और सोनिया गांधी चुनावी समय के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के किसी भी जनपद में एक बार भी नहीं गए।

अस्वस्थता के कारण सोनिया गांधी रायबरेली नहीं आ पातीं और राहुल गांधी को अमेठी आने की घोषणा के बाद अपना कार्यक्रम रद करना पड़ता है। एक वर्ष में जितनी बार वे विदेश यात्रा करते हैं यदि उसका आधा समय भी उत्तर प्रदेश में देते तो चुनावी सफलता के संदर्भ में कांग्रेस चर्चा में बनी रह सकती थी। आज वह चर्चा से बाहर है। इतना ही नहीं, जैसे संकेत मिल रहे हैं उसके कुछ प्रमुख नेता सपा या बसपा में अपने लिए स्थान खोज रहे हैं।

गठबंधन की राजनीति में चौधरी अजीत सिंह भी अपने लिए स्थान की तलाश में हैैं, जो अपने पिता की तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों विशेषकर जाटों के नेता के रूप में उभारने के लिए कभी इस डाल तो कभी उस डाल पर बैठकर अपनी साख गंवा चुके हैं। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में चुनावी तालमेल की तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। आने वाले दिनों में अभी और जोड़-तोड़ देखने को मिल सकते हैैं।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैैं )