[ संतोष त्रिवेदी ]: सम्मान-समिति की पहले से ‘फिक्स’ बैठक शहर के एक अज्ञात स्थान पर रखी गई। इसका मकसद था कि साहित्य के मोर्चे पर आ रही गिरावट का मसला उठाना। इसके लिए जरूरी था कि इस बात की तफ्तीश की जाए कि किसे उठाने से कितने लोग गिरेंगे। इसके लिए शहर की नामी इनामी संस्था ने लेखकों से खुला आवेदन मांगा था। इसमें ‘उठे’ और ‘गिरे’ दोनों टाइप के लेखक अपनी संभावनाएं टटोलने लगे। जो साहित्य में नए-नए घुसे थे, उन्हें लगा कि सब जगह भले अंधेर हो, साहित्य में अभी भी बहुत कुछ बचा है। इसलिए कुछ लोग साहित्य को और कुछ लोग स्वयं को बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े। पिछले साल से भी अधिक आवेदन आए। समिति के ठीक सामने एक बड़ी सी मेज रखी थी, जिसमें समकालीन साहित्य की सभी संभावनाएं पसरी हुई पड़ी थीं।

अब आइए, पहले समिति के अनुभवी सदस्यों से मिलते हैं। अनुभवी इसलिए कि चारों सज्जन ‘सम्मानयाफ्ता’ हैं। बड़ी विषम परिस्थितियों में भी ये अपने लिए ‘सम्मान’ निकाल लाए, जब लग रहा था कि गलती से असल लेखक न झपट ले जाए। इन सभी ने साहित्य की और अपने ‘सम्मान’ की भरपूर रक्षा की। जो महामना ऊंची कुर्सी पर विराजमान हैं, निर्णायक मंडल के अध्यक्ष वही हैं। वह हमेशा हवाई मार्ग से सफर करते हैं। जमीन पर तभी उतरते हैं जब कोई सम्मान लेना हो या देना हो। सरकारें भले बदल जाएं, पर उनका रुतबा नहीं बदलता। जो उनके दाएं बैठे हुए हैं, उन्हें साहित्यिक-यात्राओं का लंबा अनुभव है। शहर के साहित्यिक ठेकों पर उनके नाम का सिक्का चलता है। गोष्ठियां उनके ताप से दहकती हैं। लोग सम्मान के पीछे भागते हैं, सम्मान उनके आगे। साहित्य का कोई ऐसा सम्मान नहीं बचा जो उनकी निगाह से न गुजरा हो। लोग जैसे अपनी जिंदगी में बसंत देखते हैं, साहित्य में वैसे वह ‘सम्मान’ देखते हैं। यहां तक कि लोग उनसे सम्मान पाने के सूत्र तक पूछते हैं।

महामना के ठीक बाएं जो सज्जन दिख रहे हैं, वह बड़े भारी और वजनी रचनाकार हैं। महामना के करीब रहने से भी इनका वजन बढ़ा है। इस बात का इन्हें लेशमात्र भी घमंड नहीं है। ये उनके प्रति समर्पित हैं और साहित्य इनके प्रति। समिति के अभी तक के परिचय से आप कतई आक्रांत न हों। इसमें संतुलन बरकरार रहे इसके लिए भी समुचित उपाय किए गए हैं। मेज के कोने में बैठे सज्जन इसी उपाय का प्रतिफल हैं। कोना हर लिहाज से उनके लिए मुफीद है। वह बैठक से कभी भी बहिर्गमन कर सकते हैं। यह कोना उन्हें इसलिए मुहैया कराया गया है, क्योंकि बाहर जाने का रास्ता बिल्कुल उसके पास है। जो भी वहां बैठे उनका काम बस इतना है कि समिति को वे ईमानदारी से संभावित-सम्मानित की खबर दें, ताकि समिति बहुमत से उस नाम को खारिज कर सके।

मेज पर पड़े कागज के टुकड़ों को उठाने से पहले अध्यक्ष जी ने सावधान करते हुए कहा, ‘आओ जो भी खाना-पीना है, निर्णय देने से पहले ही कर लें। इससे किसी भी तरह के अपराध-बोध से अपना स्वाद खराब करने की जरूरत नहीं रहेगी।’ महामना के इस विनम्र आह्वान के बाद सभी सदस्य मेज पर टूट पड़े। थोड़ी देर बाद जब डकारें कमरे के बाहर जाने लगीं तो बैठक शुरू हुई। महामना ने लिफाफों पर एक नजर डाली और कोने वाले सज्जन से कहा कि वह अपनी संस्तुति पेश करें। उन्होंने कहना शुरू किया, ‘जी, यह बड़े हिम्मती लेखक हैं। पिछले तीन सालों से सम्मान की हर दौड़ में हिस्सा लेते हैं, पर आखिरी समय में पता नहीं इनका पत्ता कैसे कट जाता है। सम्मान इनसे इतनी बार रूठा है कि ये चाहकर भी सम्मान-वापसी गिरोह में शामिल नहीं हो पा रहे हैं। अगर यह सम्मान इन्हें मिलता है तो मेरी जिम्मेदारी है कि ये इसे सरकार का विरोध करते हुए वापस कर देंगे। इससे संस्था और लेखक दोनों का नाम होगा।’

तभी महामना के दाएं बैठे सज्जन के जिस्म में जोरदार हरकत हुई। कोने की ओर घूरते हुए बोले, ‘देखिए, लेखक को फकीर प्रवृत्ति का होना चाहिए। हमारा वाला पैसे का नहीं सम्मान का भूखा है। मेरी योजना है कि सम्मान का जो भी सामान हो वह लेखक घर ले जाए। रही बात धनराशि की, उसे सम्मान-समारोह संपन्न होने के बाद ही उनसे धरवा लेंगे। गारंटी मैं लेता हूं।’ बाएं वाले सज्जन ने प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। महामना ने बहुमत से इसी लेखक को इस साल का ‘साहित्यश्री-सम्मान’ देने की घोषणा कर दी। साथ ही उन्होंने कोने वाले सज्जन को अगले साल की निर्णायक समिति का सदस्य भी घोषित कर दिया।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]