मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। COVID-19 Lockdown आज से चार-पांच दशक पहले जब कोई अपने गांव से परदेस कमाने जाता था, तो गांव के दर्जनों लोग उसे छोड़ने गांव के बाहर तक आते थे। उसकी विदाई पर पूरा गांव रोता था, क्योंकि तब यह सुनिश्चित नहीं होता था कि जाने वाला कब वापस लौटेगा। लौट भी पाएगा कि नहीं। चिट्ठी-पत्री और मनीऑर्डर भी कभी-कभार ही आते थे। उन दिनों अपने ही देश के कोलकाता और मुंबई (तब कलकत्ता और बंबई) जैसे महानगर भी ‘परदेस’ ही माने जाते थे, क्योंकि वहां गया व्यक्ति साधन के अभाव में कई बार वर्षो तक नहीं लौट पाता था।

फिर दिन बदले। टेलीग्राम से एसटीडी होते हुए हम मोबाइल फोन पर ऐसे आ पहुंचे कि टेलीग्राम सेवा ही बंद करनी पड़ी। जिन डाकघरों का मुंह मनीऑर्डर के लिए ताका जाता था, वही डाकघर आज डीबीटी जैसी योजनाओं का पैसा छोटी सी मशीन पर एक अंगुली लगवाकर बांटते दिखाई दे रहे हैं। इस बीच नहीं बदली, तो परदेसियों की हालत। उलटे यह और बिगड़ गई लगती है। इसका अहसास अब हो रहा है, सूटकेस पर अपने बच्चे को सुलाकर उसे घसीटती स्त्री को देखकर। जिस ऑटो रिक्शा को मुंबई में दो-चार किमी की सवारी माना जाता है, उसी पर पूरे परिवार को लादकर दो हजार किलोमीटर का लंबा सफर तय करने निकले रिक्शाचालक को देखकर या फिर औरंगाबाद में पटरियों पर सो गए थके-हारे श्रमिकों की लाशें देखकर।

आश्चर्य होता है कि ये दृश्य देखकर भी कुछ लोगों का दिल पसीजने को तैयार नहीं। बुलंदशहर का एक थानेदार यह फतवा निकालता दिखाई देता है कि जो भी व्यक्ति सड़कों पर चलते प्रवासी मजदूरों को खाने-पीने की वस्तुएं देगा, उसके विरुद्ध महामारी अधिनियम के तहत वैधानिक कार्रवाई की जाएगी। कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री अपने ही राज्य के मूल निवासी श्रमिकों को यह सोचकर वापस बुलाने से डर रहे हैं कि कहीं उनके आने से उनके राज्य में कोरोना का ग्राफ न ऊंचा हो जाए। कुछ राज्य इस चिंता में हलकान हो रहे हैं कि ये प्रवासी श्रमिक चले गए तो उनके राज्य में उद्योगों का क्या होगा, जबकि इन्हीं राज्यों में कोरोना का ग्राफ लगातार ऊंचा होता जा रहा है और स्थिति संभाले नहीं संभल रही है।

लॉकडाउन के शुरुआती दौर में जब दिल्ली और हरियाणा के श्रमिक सिर पर 15-20 किलो की बोरी लादकर सपरिवार अपने गांव की ओर रवाना हुए तो स्थिति इतनी भयंकर नहीं थी, क्योंकि कम-से-कम यूपी के निवासियों में तो नोएडा में प्रवेश करते ही अपने प्रदेश में होने का अहसास पैदा हो जाता था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्थिति की गंभीरता समझते हुए राज्य परिवहन निगम की बसों के हजारों फेरे लगवाकर प्रवासी श्रमिकों के इस अहसास को और मजबूती प्रदान की। लेकिन आज जब मुंबई से पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए लोग पैदल मार्च करते दिखाई देते हैं तो दिल कांप उठता है। ट्रेन से भी मुंबई से महाराष्ट्र की सीमा पार करने में करीब 10 घंटे लगते हैं। उसके बाद ट्रेन करीब 15 घंटे मध्य प्रदेश में दौड़ती है। तब कहीं उत्तर प्रदेश की सीमा शुरू होती है।

गमीनत है कि मध्य प्रदेश अपना आतिथेय धर्म बखूबी निभा रहा है। मध्य प्रदेश की सीमा के अंदर जगह-जगह पैदल, ऑटो या ट्रक-टैंपो से गुजर रहे प्रवासियों के खाने-पीने से लेकर विश्रम तक की व्यवस्था की गई है। महाराष्ट्र में भी कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आई हैं, लेकिन सब कुछ देख-समझ रही सरकार की तरफ से महाराष्ट्र में भी कोई इंतजाम नहीं है। उलटे कुछ हद तक इस स्थिति का दोषी भी महाराष्ट्र ही है। आज महाराष्ट्र सरकार प्रवासियों के ट्रेन टिकट का खर्च मुख्यमंत्री सहायता निधि से देने की घोषणा कर चुकी है। यह स्वागत योग्य कदम है, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा ‘श्रमिक विशेष ट्रेन’ चलाने की घोषणा के बाद करीब 10 दिनों तक बने रहे गतिरोध ने ही प्रवासी श्रमिकों के मन में असुरक्षा का भाव पैदा किया, जिस कारण उन्हें पैदल मार्च करने पर बाध्य होना पड़ा।

इस गतिरोध में करीब-करीब सभी राजनीतिक दल बराबर के भागीदार हैं। कोई ट्रेन चलवाने का श्रेय लेने की कोशिश करता रहा, तो कोई टिकट का खर्च उठाने का दावा करके इतराता रहा। ये और बात है कि ट्रेनें चलने के बाद भी किराया तब तक प्रवासियों से ही वसूला जाता रहा, जब तक मुख्यमंत्री सहायता कोष से देने की घोषणा नहीं हो गई। यह घोषणा होने तक करीब 70 फीसद लोग पैदल या किसी अन्य माध्यम से गांव पहुंच गए हैं, या पहुंचने वाले हैं। श्रमिकों के जिलावार पंजीकरण का काम मुंबई पुलिस को सौंपा गया है। पुलिस के पास और भी बहुत से काम हैं।

जिलावार सूची तैयार होने के बाद महाराष्ट्र के अधिकारी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकारियों को सूचित करते हैं। वहां से हरी झंडी मिलने के बाद ही ट्रेनें रवाना होती हैं। मुंबई-पुणो-नासिक के त्रिकोण में उत्तर प्रदेश व बिहार के प्रवासी श्रमिकों की संख्या करीब 60 लाख है। इनमें से 25 लाख तो हर साल इन्हीं दिनों गांव जाते थे। गांव में गेहूं की कटाई व धान की बोआई निपटाकर फिर आते थे। यह बात महाराष्ट्र के आला अधिकारियों को भी पता रही होगी और रेल विभाग को भी। इसके बावजूद बाहर जानेवाले श्रमिकों के आंकड़े जुटाने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई। यह कोशिश और प्रवासियों की मन:स्थिति का आकलन समय पर कर लिया जाता तो आज लाखों प्रवासी तपती धूप में बच्चों के साथ पैदल चलने को मजबूर न होते।

[मुंबई ब्यूरो प्रमुख]