[ एनके सिंह ]: विश्व बैंक ने एक नया शब्द समूह बनाया है-रिफ्यूजिंग टू डेवलप कंट्रीज। इसे हिंदी में समझें तो इसका अर्थ होगा कि ऐसे देश जो विकास से परहेज करते हैं। बैंक ने इसका प्रयोग दक्षिण एशियाई देशों में विकास की विपुल संभावनाओं के बावजूद उनकी उदासीनता को लेकर हाल में जारी अपनी एक रिपोर्ट में किया है। यदि भारत में विकास विश्लेषक इसका प्रयोग करना चाहें तो उत्तर भारत के कम से कम चार बड़े राज्य इस श्रेणी में आते हैं जिनमें से कुछ के लिए अर्थशास्त्री आशीष बोस ने एक वक्त ‘बीमारू’ शब्द संक्षेप गढ़ा था।

विश्व बैंक की इस रिपोर्ट से 72 घंटे पहले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी ने भी एक रिपोर्ट जारी की जो दुनिया के देशों के अलावा भारत के राज्यों में लोगों की गरीबी जनित अभाव की स्थिति से जुड़ी है। इसे बहुआयामी गरीबी सूचकांक यानी एमपीआइ कहते हैं। दरअसल इस सूचकांक को वर्ष 2010 में मानव विकास सूचकांक के सभी तीनों पैमानों मसलन जीवन स्तर, शैक्षणिक स्तर और स्वास्थ्य के आधार पर तैयार किया गया है। इनसे उत्पन्न हुए अभावों के कुल दस पैमानों को लेकर इसे बनाया गया है।

इसमें केरल हमेशा की तरह अव्वल रहा तो बिहार भी अपनी परिपाटी को कायम रखते हुए सबसे निचले स्तर पर रहा। बिहार ने शायद विंस लोंबार्डी के उस मशहूर कथन को चरितार्थ किया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘जैसे जीतना एक आदत होती है, वैसे ही दुर्भाग्य से हारना भी एक आदत बन जाती है।’ इस रिपोर्ट में बताया गया कि 2005-06 से 2015-16 के बीच दस वर्षों के दौरान भारत में गरीबी 55 प्रतिशत से आधी घटकर 28 प्रतिशत हो गई, जबकि इसी अवधि में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्य गरीबी से उबरने की अपनी गति को अपेक्षित रफ्तार नहीं दे सके। देश में कुल गरीबों की आधी से ज्यादा आबादी यानी तकरीबन 19.60 करोड़ लोग गरीबी और अभाव की गर्त से बाहर निकलने की जद्दोजहद में जुटे हैं।

यूएनडीपी के दस प्रमुख पैमाने हैं। इनमें पोषण, बाल मृत्यु दर, स्कूल जाने का समय, स्कूल में उपस्थिति, खाना पकाने के लिए ईंधन की उपलब्धता, स्वच्छता, पेयजल, बिजली की उपलब्धता, घर और संपत्ति जैसे मानदंड शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार इन दस पैमानों में से सात में बिहार, दो में झारखंड (एक में संयुक्त रूप से मध्य प्रदेश भी) और एक में उत्तर प्रदेश सबसे निचले स्तर पर है। इसके उलट केरल दस में आठ पैमानों के लिहाज से सिरमौर है। एक में दिल्ली का दबदबा है तो एक में पंजाब शीर्ष पर है। हिंदी पट्टी के इन राज्यों के शाश्वत उनींदेपन की आखिर क्या वजह हो सकती है? क्या कारण है कि विकास की बयार को लेकर वे अड़ियल बने हुए हैं? वहीं अगर हिंसक भीड़ जैसे अनुत्पादक कार्यों की बात करें तो यही राज्य उसमें अव्वल आते हैं। इसकी पड़ताल करें तो पाएंगे कि इन समाजों में एक अलग किस्म की सामूहिक चेतना कायम है जो मजहबी उन्माद को लेकर सड़कों पर फसाद करने खड़ी हो जाती है।

आखिर जो हाथ किसी को मारने के लिए उठते हैं वही बच्चे को पोषक भोजन खिलाने के लिए क्यों नहीं? या उस ठेकेदार के खिलाफ क्यों लामबंद होकर दबाव नहीं डालते जिसके द्वारा बनाई गई गांव की सड़क एक बरसात के बाद दूसरी बरसात नहीं देख पाती? या उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों आगे नहीं आते जो अर्से से अनाथ आश्रम में मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करते रहते हैं? कैसे कोई खतरनाक आपराधिक पृष्ठभूमि वाला गुंडा चुनाव-दर-चुनाव इसी जनता के मत हासिल करते हुए देश में प्रजातंत्र के सबसे ‘पवित्र’ मंदिर तक पहुंच जाता है? क्या तब यह सामूहिक चेतना विलुप्त हो जाती है?

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के चौथे चक्र की रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए बिहार के समाज कल्याण विभाग ने भी माना है कि प्रदेश में पैदा होने वाला हर दूसरा बच्चा कुपोषण के कारण बौना हो रहा है या कम वजन की व्याधि से परेशान है। यानी उसका भविष्य एक बीमार नागरिक का होगा। विकास से परहेज का एक और उदाहरण देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अपनी पूर्ववर्ती तीन योजनाओं के मुकाबले काफी अच्छी है, लेकिन बिहार अकेला ऐसा राज्य था जिसने किसी न किसी बहाने शुरुआत से ही इसका विरोध किया।

उचित अमल के अभाव में राज्य सरकार की इससे संबंधित योजना भी दम तोड़ रही है। इसका परिणाम यही हुआ कि नाबार्ड द्वारा हाल में जारी किसानों की आय संबंधी रिपोर्ट के अनुसार झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सबसे नीचे हैं तो पंजाब और हरियाणा इसमें सबसे ऊपर हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में यूएनडीपी की गरीबों से जुड़ी रिपोर्ट को देखा जाए तो देश में अनुसूचित जनजाति का हर दूसरा व्यक्ति, उच्च जाति का प्रत्येक सातवां, ईसाई समाज का छठा और मुस्लिम समुदाय का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है।

विकास के मोर्चे पर इन राज्यों की बिगड़ी तस्वीर में भारी आबादी के बोझ को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इससे संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। वहीं परिवार नियोजन के अमल में बिहार पिछले कई दशकों से पूरी तरह असफल या उदासीन राज्य बना हुआ है। आज बिहार का आबादी घनत्व 1105 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है जो राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक है तो उत्तर प्रदेश का दोगुना। इस वर्ष 10 मार्च को जनसंख्या नियंत्रण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुपालन से संबंधित एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार के परिवार नियोजन विभाग के उपायुक्त एसके सिकदर ने बताया कि बिहार सरकार लगभग हर दूसरे दंपती को परिवार नियोजन के आधुनिक साधन उपलब्ध करने में असफल रही है।

यह शायद उदासीनता की पराकाष्ठा है और वह भी तब जब सरकारें यह जानती हैं कि देश में सर्वाधिक जनसंख्या वृद्धि दर में अव्वल बिहार की गरीबी और तंगहाली का कारण भी यही जनसंख्या है। गर्भनिरोधकों के प्रति जागरूकता भी नगण्य है जहां महज तीन से चार प्रतिशत लोग ही इनके बारे में जानते हैं। दशकों तक सरकारों की ओर से जागरूकता अभियान के अभाव में बिहार में हर आठवां बच्चा 18 साल से कम आयु की मां द्वारा पैदा किया जाता है। यही वजह है कि बाल एवं जननी मृत्यु दर भी बिहार में सबसे ज्यादा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में हर चौथे दिन मानसिक रूप से बीमार महिला को डायन मानकर ईंट मार-मार मौत के घाट उतार दिया जाता है। विडंबना है कि सरकारें जनता को इतना भी नहीं समझा पाई हैं कि डायन जैसा कुछ नहीं होता। शायद लोंबार्डी सही थे कि हारना इन राज्यों की आदत में शुमार हो गया है।

[ लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]