[ हर्ष वी पंत ]: अमेरिकी विदेश मंत्री ने पिछले दिनों चीन को लेकर दो-टूक लहजे में दमदार भाषण दिया। उन्होंने चीनी जनता के साथ-साथ विश्व में स्वतंत्र सोच वाले देशों का आह्वान किया कि वे कम्युनिस्ट पार्टी की सोच में बदलाव लाने के लिए कार्य करें। उन्होंने कहा कि यदि इन देशों ने कम्युनिस्ट चीन को नहीं बदला तो वह निश्चित ही हम सभी को बदल देगा। उन्होंने कहा कि अमेरिका-चीन रिश्तों के भविष्य का खाका स्वतंत्र विश्व और तानाशाही के बीच संघर्ष से तय होगा। इसके साथ ही उन्होंने सुझाया कि वाशिंगटन को बीजिंग के साथ बिना सोचे-विचारे सक्रियता नहीं बढ़ानी चाहिए। इसके बजाय सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ चीनी जनता को सशक्त बनाने पर ध्यान देना चाहिए। बीजिंग ने स्वाभाविक रूप से इसका प्रतिवाद करते हुए प्रतिक्रिया दी कि पोंपियो का भाषण वास्तविकता से कटा हुआ और वैचारिक पूर्वाग्रह से भरा है।

बीजिंग और वाशिंगटन के रिश्ते रसातल में चले गए

इसमें कोई संदेह नहीं कि बीजिंग और वाशिंगटन के रिश्ते ऐतिहासिक रूप से रसातल में चले गए हैं। अमेरिका की चीन नीति को लेकर एक नई आम सहमति उभरी है। ट्रंप प्रशासन ने हाल में चीन को लेकर अपना रुख-रवैया और सख्त किया है। उसने कई मोर्चों पर कदम उठाए हैं। मसलन मानवाधिकार से लेकर व्यापार एवं तकनीक, कूटनीतिक एवं आधिकारिक सक्रियता से लेकर अकादमिक जैसे तमाम क्षेत्रों में अमेरिका ने अपना शिकंजा कसा है। कुछ दिन पहले ही अमेरिका ने ह्यूस्टन स्थिति चीनी वाणिज्य दूतावास पर तालाबंदी कर दी। इससे तिलमिलाए चीन ने बदले में चेंगदू में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास परिसर को अपने कब्जे में ले लिया।

पोंपियो ने कहा - दक्षिण चीन सागर में चीन के अधिकांश दावे पूरी तरह गैर-कानूनी

दक्षिण चीन सागर में चीनी दावों को भी अमेरिका ने मुखर रूप से चुनौती देने का फैसला किया है। पोंपियो ने कहा भी कि दक्षिण चीन सागर में चीन के अधिकांश दावे पूरी तरह गैर-कानूनी हैं। इस क्षेत्र में अशांति बढ़ाने के लिए उन्होंने बीजिंग को आड़े हाथों भी लिया। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूर्ववर्ती अमेरिकी प्रशासन इस मामले में मुखरता दिखाने से हिचकता रहा, जबकि ट्रंप प्रशासन ने बीजिंग के लिए एक रेखा खींच दी है। हांगकांग में नागरिक अधिकारों का दमन करने के लिए चीन द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लागू करने के बाद अमेरिका ने हांगकांग को दिया तरजीही व्यापार साझेदार का दर्जा समाप्त कर दिया।

चीन में उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न के आरोप में अमेरिका ने चीनी अधिकारियों पर लगाया प्रतिबंध

चीन के शिनझियांग प्रांत में अल्पसंख्यक उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न के आरोप में वाशिंगटन ने तमाम चीनी अधिकारियों पर प्रतिबंध भी लगाए हैं। इनमें कम्युनिस्ट पार्टी के एक दिग्गज सदस्य भी शामिल हैं। ताइवान और तिब्बत के मसले पर भी ट्रंप प्रशासन चीन को चिढ़ाने से गुरेज नहीं कर रहा। इस साल उसने ताइवान के लिए 18 करोड़ डॉलर के हथियारों की बिक्री को मंजूरी दी। वहीं उन चीनी अधिकारियों के खिलाफ भी कदम उठाए जिन्होंने तिब्बत के इलाकों में अमेरिकी अधिकारियों और नागरिकों की आवाजाही में अड़ंगे लगाए। अकादमिक वर्ग भी सख्त निगरानी के दायरे में है।

अमेरिका ने उन छात्रों और शोधार्थियों के वीजा रद कर दिए जिनका चीनी सेना के साथ जुड़ाव था

अमेरिका ने उन छात्रों और शोधार्थियों के वीजा रद कर दिए जिनका चीनी सेना के साथ कोई जुड़ाव था। इस सबकी शुरुआत चार साल पहले तब हुई थी जब ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार अभियान में चीन पर रुख कड़ा करने का बिगुल बजाया था। उसके बाद अमेरिका में व्यापार और तकनीकी अलगाव का सबसे बड़ा अभियान चला। चीन की सबसे बड़ी तकनीकी कंपनी हुआवे पर शिकंजा बीजिंग के खिलाफ अमेरिकी संकल्प का प्रतीक बन गया है। वाशिंगटन ने हुआवे के खिलाफ एक वैश्विक अभियान चलाया और पिछले महीने उसे तब बड़ी कामयाबी मिली जब ब्रिटेन ने भी अपने यहां 5जी नेटवर्क की प्रक्रिया से हुआवे को बाहर कर दिया।

अमेरिका ने टिकटॉक और वीचैट पर लगाया प्रतिबंध

अब अमेरिका ने टिकटॉक और वीचैट को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए उन पर प्रतिबंध की घोषणा की है। अमेरिकी डाटा में चीनी सेंधमारी को रोकने के लिए वाशिंगटन ने क्लीन नेटवर्क प्रोग्राम भी बनाया है जिससे चीनी कंपनियों और एप्स के लिए अमेरिकी नागरिकों और कंपनियों से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां जुटाना टेढ़ी खीर हो जाएगा।

चीन को लेकर अमेरिका की नीति बहुत बदल गई

जहां अमेरिका-चीन रिश्ते पहले ही गर्त में जा रहे हैं वहीं अमेरिकी चुनावी चक्रव्यूह को देखते हुए आने वाले समय में यह गर्त और गहरी हो सकती है। यह स्पष्ट हो रहा है कि चीन को लेकर अमेरिका की नीति बहुत बदल गई है। यहां तक कि ट्रंप की चुनावी हार के बावजूद आसार नहीं दिखते कि अमेरिका-चीन के द्विपक्षीय रिश्तों की तासीर में कुछ खास बदलाव आएगा। तकरीबन पांच दशकों तक छह अमेरिकी राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में चीन के प्रति सर्वानुमति वाली नीति पर अब विराम लगता दिख रहा है।

आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक मोर्चे पर चीन के साथ अविश्वास बढ़ा

एक समय अमेरिका का मानना था कि उसे चीन के उभार में सहयोगी की भूमिका निभानी चाहिए। इसके उलट अब आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और यहां तक कि अकादमिक मोर्चे पर चीन के साथ अविश्वास बढ़ा है। व्यापक रूप से यही माना जा रहा है कि व्यापार में चीन के अनुचित तौर-तरीकों और आक्रामक भू-राजनीतिक कदमों को चुनौती देकर ट्रंप ने उचित ही किया। ट्रंप के इस रुख का उनके डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन ने भी विरोध नहीं किया। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या अमेरिका अपने दम पर चीन की काट कर सकता है?

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के व्यवहार में बदलाव लाना चाहिए

पोंपियो ने अपने भाषण में रेखांकित किया कि चीन पर ट्रंप प्रशासन की सख्ती की रणनीति पर समान विचारों वाले साथियों के साथ आगे बढ़ा जाएगा। लोकतांत्रिक देशों को स्वतंत्र सोच वाले राष्ट्रों के रूप में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें रचनात्मक और दृढ़ निश्चय के साथ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के व्यवहार में बदलाव लाना चाहिए, क्योंकि बीजिंग के कदम हमारी जनता और उसकी समृद्धि को खतरे में डाल रहे हैं। पोंपियो का कहना सही है, क्योंकि जब तक दुनिया के सभी देश चीन की चुनौती के खिलाफ एकजुट होकर एक दूसरे की मदद के लिए आगे नहीं आते तब तक वे व्यापक विचारात्मक लड़ाई में मात खाते रहेंगे। इसके साथ ही नई दिल्ली का काम भी आसान होता है। हिमालयी क्षेत्र में अपनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे से निपटने की कवायद में भारत को भी उन मूल्यों के प्रति और मुखर होना होगा जो लोकतांत्रिक राष्ट्रों को एक कड़ी में पिरोकर रखते हैं। पुरानी परिपाटी पर भरोसा करना भारत के लिए अब विकल्प नहीं रह गया है।

( लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )