[स्मृति ईरानी]। माहवारी संबंधी मुद्दों की अनदेखी से न केवल महिलाओं के स्वास्थ्य, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। माहवारी के दौरान स्वच्छता न रखने और जागरूकता की कमी के कारण किसी महिला को संक्रमण, असामान्य रक्तस्नाव जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं जिससे व्यक्ति और राष्ट्र, दोनों पर स्वास्थ्य देखभाल का बोझ बढ़ता है। भारत में लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान स्वच्छता न रखने के कारण विभिन्न प्रकार के संक्रमणों से पीड़ित हैं। बार-बार संक्रमण, विशेष रूप से एचपीवी संक्रमण से सर्वाइकल कैंसर भी हो सकता है। देश में हर साल सर्वाइकल कैंसर के लगभग 1,32,000 नए मामले सामने आते हैं, जिसमें से लगभग 74000 महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। यह विश्व में ऐसे कैंसर से होने वाली मौतों का लगभग एक तिहाई है।

मात्र 17 प्रतिशत है महिलाओं का आर्थिक योगदान

माहवारी के दिनों में कई महिलाओं को दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ती है जिससे कार्य प्रभावित होता है। वर्तमान में भारत में महिलाओं का आर्थिक योगदान मात्र 17 प्रतिशत है, जो विकसित या दूसरे विकासशील देशों की तुलना में काफी कम है। यदि औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर दिए जाएं तो देश की अर्थव्यवस्था और सुदृढ़ होगी और वर्ष 2024 तक भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश बनाने के लक्ष्य को पूर्ण करने में भी मदद मिलेगी।

स्वच्छता की कमी के लिए तीन कारक हैं जिम्मेदार

माहवारी के दौरान स्वच्छता की कमी के लिए मुख्य रूप से तीन कारक जिम्मेदार हैं-सामाजिक धारणाएं, जागरूकता की कमी और सुविधाओं एवं साधनों तक पहुंच का अभाव। इस विषय पर कोई चर्चा न होने की वजह से अधिकतर पुरुष अपने परिवारों की महिलाओं को होने वाले नुकसान से अनजान रहते हैं। वे भी गलत जानकारी के शिकार होते हैं, जो इसे लेकर कुछ बदलाव ला सकते हैं। जागरूकता की कमी के चलते अधिकतर महिलाओं को माहवारी स्वच्छता के महत्व के बारे में जानकारी नहीं है। 80 प्रतिशत से अधिक किशोरियों को माहवारी के बारे में बताया ही नहीं जाता, जिससे पहली माहवारी का अनुभव उनके लिए सदमे से भरा होता है।

सैनिटरी नैपकिन के बारे में बहुत कम जानती हैं महिलाएं

दस प्रतिशत से भी कम ग्रामीण महिलाएं सैनिटरी नैपकिन के बारे में जानती हैं और माहवारी के दौरान असुरक्षित साधनों का इस्तेमाल करती हैं। हालांकि वर्ष 2018 से सैनिटरी नैपकिन और टैंपोन को करमुक्त कर दिया गया है, पर अब भी यह कई महिलाओं की पहुंच से बाहर है। घर के बने पैड में कपड़े या बोरे का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें राख, भूसी या रेत भरी होती हैं। माहवारी के कपड़े को अक्सर कम पानी से धोया जाता है और शर्म-संकोच की वजह से इन्हें अन्य गीले कपड़ों के नीचे या नम शौचालयों में सुखाया जाता है।

व्यापक स्तर पर जन आंदोलन की जरूरत

सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत माहवारी स्वच्छता को महत्व दिया और वर्ष 2015 में शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों को जारी किया। माहवारी स्वच्छता के मुद्दे पर परिवर्तन लाने के लिए व्यापक स्तर पर जन आंदोलन करने की दरकार है जिसमें सार्वजनिक, कॉरपोरेट और स्वैच्छिक संस्थानों सहित अलग-अलग क्षेत्रों की भागीदारी हो। बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी से सरकार के हस्तक्षेप और नीतियों को समर्थन मिलेगा। जन आंदोलन में माहवारी से जुड़ी गलत धारणाओं को खत्म करने पर विशेष जोर दिया जाए ताकि यह न तो महिलाओं के लिए शर्म की बात रहे और न ही पुरुषों के लिए एक दमनकारी अवधारणा बने।

सैनिटरी नैपकिन की खरीद के लिए 42.54 करोड़ रुपये आवंटित 

देश की 2.3 करोड़ लड़कियां सामाजिक धारणाओं और जागरूकता की कमी के कारण पहली माहवारी पर ही स्कूल छोड़ देती हैं। वर्ष 2018-19 में केंद्र ने आयुष्मान भारत योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरियों के लिए सैनिटरी नैपकिन की खरीद के लिए 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 42.54 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। सैनिटरी नैपकिन अब औषधि केंद्रों पर मात्र एक रुपये प्रति पैड की दर से उपलब्ध हैं। हालांकि एक महिला को अपने जीवनकाल में करीब 30 से अधिक वर्षों तक माहवारी होती है, पर सार्वजनिक और निजी शौचालयों के निर्माण में अक्सर उसकी जरूरतों को अनदेखा किया जाता है।

सर्वेक्षणों से पता चला है कि 67 प्रतिशत कार्यक्षेत्रों में सैनिटरी नैपकिन नहीं रखे जाते। सरकारी स्कूल के शौचालयों में इंसीनरेटर (सैनिटरी नैपकिन नष्ट करने वाला उपकरण) लगाने की भारत सरकार की पहल इसी दिशा में एक कदम है। परोपकारी एवं सामाजिक संस्थाओं और व्यक्तियों को भी गरीब महिलाओं को सैनिटरी उत्पाद एवं महिला केंद्रित शौचालय प्रदान करने में योगदान करना चाहिए।

सैनिटरी उत्पादों के निपटान के लिए भी करने होंगे प्रयास 

माहवारी स्वच्छता के लिए किए गए प्रयासों में कैंसर की स्क्रीनिंग को भी शामिल करना चाहिए। पिछले एक वर्ष में 53 लाख से अधिक महिलाओं में स्तन कैंसर की जांच की गई है और लगभग 9700 महिलाओं का इलाज किया जा रहा है। वहीं 37 लाख से अधिक महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर की जांच की गई और लगभग 10000 का इलाज किया जा रहा है। हमें सैनिटरी उत्पादों के निपटान के लिए भी प्रयास करने होंगे। यदि अनुमानित 12.1 करोड़ महिलाएं और किशोरी हर महीने औसतन आठ डिस्पोजेबल नैपकिन उपयोग करती हैं तो भारत में एक वर्ष में 1,13,000 टन कचरा उत्पन्न होगा। यह महत्वपूर्ण है कि प्रभावी ढंग से इस कचरे का निपटान किया जाए। पुन: उपयोग हो सकने वाले उत्पादों जैसे क्लॉथ पैड, माहवारी कप आदि का उपयोग बढ़ाने पर भी जोर देना होगा। माहवारी कप जैसे विकल्प को प्रारंभिक निवेश के बाद 4 से 10 साल तक उपयोग किया जा सकता है। ये न केवल सस्ते और प्रभावी हैं, बल्कि कचरा प्रबंधन में भी सहायक हैं।

कुल मिलाकर माहवारी के प्रति हमें एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। तभी समाज में जागरूकता आएगी और माहवारी स्वच्छता प्रबंधन के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा। इससे आधी आबादी भी हमारे राष्ट्र की प्रगति में मददगार साबित हो सकेगी।

(लेखिका केंद्रीय महिला एवं बाल विकास और कपड़ा मंत्री हैं)